जब तक तुम परमात्मा ही न हो जाओगे तब तक पीड़ा की रेखा बनी रहेगी “ओशो”
ओशो– कबीर कहते हैं कि हमने तो एक को एक कर के जान लिया। अब कोई दुई न बची। अब हम कोई अलग नहीं हैं। अब तू कोई अलग नहीं है।
सूफियों की बड़ी पुरानी कथा है। उस कथा में मैंने थोड़ा सा जोड़ा है। कथा है कि जलालुद्दीन रूमी एक गीत में, कि प्रेमी ने प्रेयसी के द्वारा पर दस्तक दी आधी रात।
प्रेयसी ने भीतर से पूछा कौन है?
प्रेमी ने कहा, मैं हूं तेरा प्रेमी। मेरी पगध्वनि नहीं पहचानी? मेरी आवाज नहीं पहचानी?
भीतर सन्नाटा हो गया। कोई उत्तर न आया। प्रेमी बेचैन हुआ। उसने कहा, क्या कारण है? द्वार क्यों नहीं खुलते?
प्रेयसी ने कहा, इस घर में दो के लायक जगह नहीं है। या तो मैं, या तू। प्रेम के घर में दो के लिए जगह नहीं है। यह द्वार बंद ही रहेगा। जब तक तुम एक होकर न आओ।
प्रेमी वापस चला गया। दिवस आए गए, ऋतुएं आई गईं, वर्ष बीते। बड़ी साधना की उसने। बड़ा अपने को निखारा। शुद्ध किया, आग से गुजरा। कंचन हो गया, फिर एक रात पूर्णिमा की उसने द्वार पर दस्तक दी।
वही सवाल, कौन हो?
प्रेमी ने कहा, तू ही है।
रूमी कहता है, द्वार खुल गए , भक्त कह दे परमात्मा से, कि बस तू ही है, मैं नहीं हूं। यात्रा पूरी हो गई।
लेकिन अगर थोड़ा गौर से देखोगे तो जब तक तू का भाव है, तब तक मैं का भाव मिट नहीं सकता। क्योंकि तू का अर्थ ही क्या है अगर मैं नहीं? तू में सारा अर्थ ही मैं के कारण है। तू के पहले मैं है। और जब प्रेमी ने कहा तू ही है, तब कौन कह रहा है? और तब भीतर तो वह जानता है कि मैं कह रहा हूं। मैं ही तो तू कहेगा। मैं न होगा, तो तू भी कौन कहेगा?
इसलिए रूमी की तो कविता पूरी हो जाती है, कि द्वार खुल गए। लेकिन मैं थोड़ी दूर द्वार और बंद रखना चाहूंगा। अगर रूमी मिल जाए तो मैं कहूंगा, कविता को थोड़ा और चलने दो। कहलाओ प्रेयसी से कि जब तक तू है, तब तक मैं भी मौजूद है। और दो के लिए द्वार न खुल सकेंगे और प्रेमी तो लौटा दो। अभी कचरा जब गया, कंचन बचा; अब कंचन को भी मिट जाने दो। अशुद्धि गई, शुद्धि बची; अब शुद्धि को भी जाने दो। पाप गया, पुण्य बचा; अब पुण्य को भी जाने दो।
और तब मैं कहता हूं, प्रेमी को आने की जरूरत नहीं, प्रेयसी ही आएगी। तब उसे वापस दोबारा लाने की जरूरत नहीं दरवाजा के खटखटाने के लिए। दो दफा काफी खटखटा चुका। अब प्रेमी न लौटेगा। तब प्रेमी जहां होगा, मगन होगा। अब प्रेयसी ही उसे खोजती हुई आएगी। प्रेयसी ही उसे आकर आलिंगन कर लेगी।
जिस दिन भक्त बिलकुल मिट जाता है, भगवान आता है। और मैं तुमसे कहता हूं, कि भक्त कैसे भगवान तक पहुंच सकता है? न तो तुम्हें पता है उसका मालूम, न ठिकाना मालूम। पाती भी लिखोगे तो कहां? जाओगे तो कहां? तुम उसे खोजोगे कैसे? वह मिल भी जाए, तो प्रत्यभिज्ञा जैसे होगी? रिकग्नीशन कैसे होगा कि यही है? क्योंकि पहले तो कभी जाना नहीं।
नहीं, तुम न जा सकोगे। तुम मिट जाओ, वह आता है। वह तुम्हारे हृदय के द्वार पर खुद ही दस्तक देता है। वह खुद ही आता है। जिस दिन भक्त तैयार है, उस दिन भगवान उसे खोजता चला आता है। क्योंकि भगवान तो सदा मौजूद ही था। तुम्हारे आसपास ही था। तुम्हें घेरे था। तुम्हारा परिवेश था। तुम्हारी श्वास था। तुम्हारा प्राण था। तुम भरे थे अपने से इतने ज्यादा, कि भीतर कोई जगह न थी। अवधू गगन मंडल घर कीजै।
जब तुम शून्य हो जाओगे, वह उतर आता है। शून्यता में पूर्णता ऐसी ही उतर आती है, जैसे बूंद सागर में खो जाए। तुम शून्य हुए कि पूर्ण होने के अधिकारी हुए। तुम मिटे, कि परमात्मा हुआ।
प्रेयसी खुद ही खोजती हुई पहुंची होगी। किसी वृक्ष के नीचे बैठा देखा होगा प्रेमी को। नाची होगी उसके चारों तरफ। आलिंगन किया होगा। कहा होगा कि मैं आ गई। अब तो तुम बिलकुल मिट गए। न तू बचा, न मैं बची। दोनों साथ बचती हैं, साथ जाती हैं। क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तू का क्या अर्थ है, अगर मैं नहीं? मैं का क्या अर्थ है,अगर तू नहीं?
कबीर कहते हैं,
हम तो एक एक करि जाना।
न वहां कोई मैं है, न वहां कोई तू है। हमने तो एक को बस, एक ही तरह जाना।
दोई कहै, तिनही को दोजख
जिन्होंने दो कहा, वे नर्क में।
दोई कहै, तिनही को दोजख…
वह नर्क में है। दो यानी नर्क, एक यानी स्वर्ग।
…जिन नाहिन पहचाना।
वे ही दो कहते हैं जिन्होंने पहचाना नहीं। और जो दो कहते हैं, वे गहन नर्क में पड़े रहते हैं।
सीमा नर्क है। बंधे हुए अनुभव होना पीड़ा है। सब तरफ से दबे होना दुख है। कुछ बचा है पाने को। नर्क है, जब तक सभी न पा लिया गया हो। कुछ भी न बचे बाहर। तुम ऐसे फैल जाओ कि आकाश जैसे ढाक लो सारे अस्तित्व को। कि फूल तुममें खिलें, चांदत्तारे तुममें चलें।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३