नई-नई भूल करना, मगर एक ही भूल बार-बार मत करना क्योंकि मुक्ति का एक ही मार्ग है अनुभव ज्ञान “ओशो”

 नई-नई भूल करना, मगर एक ही भूल बार-बार मत करना क्योंकि मुक्ति का एक ही मार्ग है अनुभव ज्ञान “ओशो”

ओशो– उपनिषदों का बड़ा अदभुत वचन है–तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है। यह कहता है, वे ही त्याग सकते हैं, जिन्होंने भोगा। जो भोग के पहले भाग गए, वे भोग से सदा पीड़ित रहेंगे। जिन्होंने भोग लिया, उनकी स्थिति शांत हो गई, उफशम को उफलब्ध हो गए। अब वे जा सकते हैं। अब कोई उन्हें रोकने वाला न रहा।

तो मैं तुमसे कहूंगा,”अगर करें तो मुश्किल, न करें तो मुश्किल”– ऐसी दुविधा हो, तो करना। “ना-करना” मत चुनना। उसको जिसने चुना, वह भटकेगा।

भूल करने से कभी मत डरना। क्योंकि जो भूल करने से डरता है, उसकी यात्रा ही बंद हो जाती है। हां, इतना ही स्मरण रखना, एक ही भूल बार-बार मत करना। नई-नई भूल करना, मगर एक ही भूल बार-बार मत करना। एक भूल को पूरी तरह कर लेना, ताकि दोबारा करने का सवाल भी न रह जाए।

तो अगर तुम्हें चुनना ही पड़े तो करके मुश्किल भोगना। मुश्किल तुम भोगोगे। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि करने से तुम्हें मुश्किल नहीं होगी। करने से भी होगी, न-करने से भी होगी। लेकिन करने वाली मुश्किल से कुछ लाभ है–ज्ञान उपलब्ध होता है। न-करने वाली मुश्किल से कुछ उपलब्ध नहीं होता । वह मुश्किल नपुंसक है, बांझ है, उससे कुछ पैदा नहीं होता।

लेकिन अगर तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाए, तो मैं तुमसे कहता हूं दो में चुनने की कुछ जरूरत ही नहीं है। तुम साक्षीभाव चुनना। वह तीसरा विकल्प है।
कामवासना उठे, तुम देखते रहना। कामवासना उठेगी, साथ ही दो विचार भी उठेंगे-भोग लें, न भोगें; तुम दोनों को देखते रहना। तुम चुनना ही मत।

उसी को होश कहा है ज्ञानियों ने, साक्षीभाव कहा है। हम मध्य में ही खड़े रहेंगे। हम चुनेंगे ही नहीं।

इसको कृष्णमूर्ति च्वाइसलेसनेस कहते हैं–निर्विकल्पना। इसी निर्विकल्पना को साधते-साधते, जिसको पतंजलि ने कहा है, निर्विकल्प समाधि, वह उपलब्ध होती है।
चोरी करना कि नहीं करना–दोनों को तुम देखते रहना। न इसको चुनना, न उसको चुनना। विवाह करना कि ब्रह्मचारी रहना–न इसको चुनना, न उसको चुनना। तुम दोनों को देखते रहना। तुम कहना, मैं तो द्रष्टा मात्र हूं, मैं सिर्फ देखूंगा। मैं कर्ता नहीं बनूंगा, मैं चुनूंगा नहीं। मन में उठने देना लहरें। सब तरह की उठेंगी, तुम देखते रहना। अगर तुमने हिम्मत रखी देखते रहने की तो धीरे-धीरे पाओगे, सागर शांत हो जाता है। दोनों ही लहरें खो जाती हैं। कोई भी विकल्प चुनना नहीं पड़ता।
और उस निर्विकल्प दशा में ही जीवन की परम अनुभूति, जीवन का परम आकाश उपलब्ध होता है। उस निर्विकल्प दशा में ही अमृत के बादल बरसते हैं। उस निर्विकल्प को ही चुनो। अगर चुनना ही है तो “न-चुनने” को चुनो।

अगर यह तुम्हारी समझ के बाहर हो, तो करने को चुनना।
लेकिन निर्विकल्प को अगर चुन सको–निर्विकल्प को चुनने का मतलब है कुछ भी न चुनना; तब तुम जीवन से ऐसे गुजर जाओगे जैसा कबीर ने कहा है,–“ज्यों कि त्यों धर दीन्हीं चदरिया।
खूब जतन से ओढ़ी चदरिया, ज्यों की त्यों धर दीन्हीं।”

यह जतन. . . ऊंट खड़ा ही रहा। बैठा ही नहीं। होश रखा, चादर खराब न हो जाए। ऐसी, जैसी पाई थी, वैसी ही परमात्मा को लौटा दी।
अगर तुम दो विकल्पों के बीच निर्विकल्प रह सको, तो तुम्हारे जीवन में परम सूत्र का आविर्भाव हो गया। वही है कुंजी उसके द्वार की।

☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
कहे कबीर दीवाना–(प्रवचन–16)
सुरति का दीया
दिनांक 6 जून, 1975, प्रातः,
ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूनां