जो व्यक्ति चार-पांच साल सत्ता में रह जाता है, जनता उसी को सत्ता से उतारने को उत्सुक हो जाती है, छोटी-छोटी बातें फिर खूब बड़ी-बड़ी करके फैलायी जाती हैं। और लोग उनको स्वीकार करने को राजी होते हैं “ओशो”
ओशो– अदालत में मुकदमा था। एक नेताजी ने अदालत में एक आदमी पर मानहानि का मुकदमा चलाया था। क्योंकि होटल में जहा कि पचास—साठ लोग मौजूद थे, उस आदमी ने नेताजी को उल्लू का पट्टा कह दिया। स्वभावत: नेताजी क्रुद्ध हो गये। उल्लू का पट्ठा! इसको मजा चखा कर रहेंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन नेताजी के बगल में ही खड़ा था, जब उल्लू का पट्ठा उन्हें कहा गया। तो उन्होंने उससे कहा कि मुल्ला, गवाही देनी होगी, तुम्हारे सामने कहा था। उसने कहा तो बिलकुल गवाही दूंगा, प्रत्यक्ष गवाह मैं हूं। मेरे सामने गाली दी गयी है, मैं तुम्हारे बगल में खड़ा था।
अदालत में गवाहियां हुईं। मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा मजिस्ट्रेट ने कि वहा पचास लोग थे, और जिस आदमी पर दोष लगाया गया है गाली देने का, वह आदमी कहता है कि मैंने किसी का नाम लेकर नहीं कहा; हा, मैंने उल्लू का पट्ठा शब्द उपयोग किया था। मगर वहां पचास—साठ लोग थे, नेताजी को मैंने लक्ष्य कर के यह नहीं कहा है। तुम्हारे पास क्या सबूत है नसरुद्दीन कि इसने नेताजी को ही लक्ष्य कर के कहा?
नसरुद्दीन ने कहा. मैं मानता हूं वहा पचास—साठ लोग थे, लेकिन उल्लू का पट्ठा वहा सिवाय नेताजी के और कोई था ही नहीं।
अब क्या करोगे? अपना गवाह भी यह कह रहा है। तुम चाहते हो जो सत्ता में है, शक्ति में है, पद में है, जिनके पास धन है, वह चारों खाने गिरे; इससे तुम्हारे दिल को बड़ी राहत होगी। दुनिया में जब कभी किसी का पतन होता है, लोगों के चित्त को बड़ी राहत मिलती है, बड़ा हलकापन आ जाता है। लोग प्रतीक्षा करते हैं इसकी कि किसी का चरित्र भ्रष्ट हो जाये। इस पर बहुत दारमदार है उनकी। चरित्र तो बनाना मुश्किल है। अपने जीवन को तो गरिमा देना मुश्किल है, महिमा देना मुश्किल है; मगर किसी की महिमा छिन जाये तो उसको बढ़ा—चढ़ा कर चर्चा करना तो आसान है। जितनी उसकी तुम चर्चा करते हो बुराई की, उतने ही तुम भीतर अच्छे होते जाते हो। यह निंदा का मनोविज्ञान है। यह अहंकार की छाया है और अहंकार का पोषण भी।
जहा तुम्हें लगता है कि कुछ निंदा हो रही है, वहीं तुम्हें रस आता है। रस आता है, क्योंकि दूसरा आदमी छोटा किया जा रहा है और उसके छोटे होने में एक भीतरी प्रतीति होती है कि मैं बड़ा हूं। इसलिए अगर कोई भिखारी रास्ते पर केले के छिलके पर फिसल कर गिर पड़े तो तुम्हें उतना रस नहीं आता है, जितना रस कोई सम्राट केले के छिलके पर फिसल कर गिर पड़े तो आये। दिल खुश हो जायेगा—जिसको मुल्ला नसरुद्दीन कहता है दिल का गार्डन—गार्डन हो जाना—बाग—बाग हो जाने का उसने अनुवाद किया है। जब पहली दफा उसने मुझसे कहा, मैं भी चौंका और मैंने उससे पूछा कि यह दिल का गार्डन—गार्डन हो जाना क्या है। उसने कहा : अरे, बाग—बाग हो जाना! यह उसका अंग्रेजी अनुवाद है।
कोई बादशाह फिसलकर गिर पड़े, कैसा चित्त प्रसन्न होता है! इसलिए जब तुम्हें खबर मिल जाती है कि कोई प्रधानमंत्री, कोई राष्ट्रपति किसी गलत काम को करते हुए पकड़ लिया गया है, तो कैसा निंदा का रस फैलता है! क्या प्रयोजन है, किसको लेना—देना होना चाहिए? कोई प्रधानमंत्री अगर किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गया है, बस…। जैसे कि कोई बडी अनूठी बात हो गयी है! कितना रस फैलता है, कितने लोग उत्सुक हो जाते हैं! यह सिर्फ एक बात बताई जा रही है इसके भीतर, सिर्फ एक बात की सूचना हो रही है कि तुम प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि जरा फंसो, कि जरा कहीं गिरो, कि जरा पैर फिसले तुम्हारा किसी केले के छिलके पर, तुम चारोखाने चित्त हो जाओ। यह दिल में तुम्हारे आकांक्षा ही थी।
इसीलिए जो व्यक्ति भी चार—पांच साल सत्ता में रह जाता है, जनता उसी को सत्ता से उतारने को उत्सुक हो जाती है, आतुर हो जाती है। बहुत हो गया, यह गिरना ही चाहिए आदमी। छोटी—छोटी बातें फिर खूब बड़ी—बड़ी करके फैलायी जाती हैं। और लोग उनको स्वीकार करने को राजी होते हैं।
तुमने मजा देखा, अगर तुम किसी की प्रशंसा करो कोई सुनने को राजी नहीं है, न कोई स्वीकार करने को राजी है। अगर तुम कहो कि फलां व्यक्ति देखो, कैसा महात्मा हो गया! वह कहेगा अरे, सब देख लिये महात्मा! कहीं कोई महात्मा न होता है न हुआ है; सब धोखाधड़ी है। कुछ चालबाजी होगी, जरा रुको, थोड़ा ठहरो, जब पकड़ा जायेगा तब पता चलेगा। हमने कईयों को गिरते देख लिया है।
लेकिन अगर कोई तुमसे कहे कि फलां आदमी चोरी कर रहा है, फलां आदमी बेईमान है, फलां आदमी ने रिश्वत खायी है, तो तुम कभी इंकार नहीं करते कि नहीं—नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? तुम तो तत्क्षण स्वीकार कर लेते हो जैसे तुम पहले से माने ही बैठे थे। हमने यह मान ही रखा है कि हमारे अतिरिक्त और सब लोग बुरे हैं; किन्हीं का पता चल गया है, किन्हीं का पता नहीं चला है, कभी चल जायेगा, मगर हमारे सिवाय सारे लोग बुरे हैं। यह तो हमारी स्वीकृत मान्यता है। इस स्वीकृत मान्यता को जो भी सहारा दे देता है हम तत्क्षण अंगीकार कर लेते हैं।
हालत हमारी ऐसी है कि अगर कोई तुमसे कहे कि फलां आदमी देखो, कितनी प्यारी बांसुरी बजा रहा है! तुम कहोगे : वह क्या खाक बांसुरी बजायेगा, चोर, लंपट, लुच्चा! जैसे कि लुच्चा और लंपट और चोर होने से बांसुरी बजाने में कोई बाधा पड़ती हो! लेकिन तुमने तत्क्षण निंदा कर दी, कि वह क्या खाक बांसुरी बजायेगा, उसकी बांसुरी में क्या रखा है? हम उसे भलीभांति जानते हैं। हम उसके बाप—दादों को भी जानते हैं, वह क्या बांसुरी बजायेगा?
लेकिन इससे उल्टी बात तुम्हें कभी सुनने में न आयेगी—कि कोई कहे कि देखो, वह आदमी चोर है, बेईमान है, लंपट है; और तुम कहो कि नहीं, यह कैसे हो सकता है, क्योंकि वह इतनी प्यारी बांसुरी बजाता है! नहीं—नहीं, यह नहीं हो सकता। इतनी प्यारी बांसुरी बजाने वाला आदमी चोर होगा, लंपट होगा, यह कैसे हो सकता है?
ऐसा तुम कभी न कहोगे। यह तुम्हारे अहंकार के विपरीत है। जो तुम्हारे अहंकार को भरता है वह है निंदा। इसलिए प्रशंसा तो लोग बड़े बेमन से करते हैं—बड़े बेमन से, मजबूरी में करते हैं। कुछ लेना हो प्रशंसा कर के तो करते हैं। इसलिए ऊपर—ऊपर प्रशंसा कर देते हैं, पीछे बदला लेते हैं।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-07)