जो आस्तिक नास्तिक से भयभीत होता है, वह आस्तिक नहीं है

 जो आस्तिक नास्तिक से भयभीत होता है, वह आस्तिक नहीं है

ओशो– अंध—श्रद्धा से अर्थ है, वस्तुत: जिसमें श्रद्धा न हो, सिर्फ ऊपर—ऊपर से श्रद्धा कर ली गई हो। भीतर से आप भी जानते हों कि श्रद्धा नहीं है, लेकिन किसी भय के कारण या किसी लोभ के कारण या मात्र संस्कार के कारण, समाज की शिक्षा के कारण स्वीकार कर लिया हो।

ऐसी श्रद्धा के पास आंखें नहीं हो सकतीं। क्योंकि आंखें तो तभी उपलब्ध होती हैं श्रद्धा को, जब हृदय उसके साथ हो। तो अंध—श्रद्धा बुद्धि की ही बात है। यह थोड़ा समझना पड़ेगा।

क्यौंकि आमतौर से लोग समझते हैं कि अंध—श्रद्धा हृदय की बात है, बुद्धि की नहीं। अंध—श्रद्धा बुद्धि की ही बात है; श्रद्धा हृदय की बात है। बुद्धि सोचती है लाभ—हानि, हित—अहित, परिणाम, और उनके हिसाब से श्रद्धा को निर्मित करती है।

आप भगवान में श्रद्धा रखते हैं। इसलिए नहीं कि आपके हृदय का कोई तालमेल परमात्मा से हो गया है, बल्कि इसलिए कि भय मालूम पड़ता है। बचपन से डराए गए हैं कि अगर परमात्मा को न माना, तो कुछ अहित हो जाएगा। यह भी समझाया गया है कि परमात्मा को माना, तो स्वर्ग मिलेगा, पुण्य होगा, भविष्य में सुख पाएंगे।

मन डरता है। मन भयभीत होता है। मन लोभ के पीछे दौड़ता है। लेकिन भीतर गहरे में आप जानते हैं कि आपका परमात्मा से कोई संबंध नहीं है।

यह जो ऊपर की श्रद्धा है, जबरदस्ती आरोपित श्रद्धा है, यह अंधी होगी। क्योंकि हृदय का तालमेल न हो, तो आंख नहीं हो सकती। और ऐसी श्रद्धा सदा ही तर्क से डरेगी, यह उसकी पहचान होगी। ऐसी श्रद्धा सदा ही तर्क से डरेगी, क्योंकि भीतर तो पता ही है कि परमात्मा से कोई संबंध नहीं है। वह है या नहीं, यह भी पता नहीं है। ऊपर—ऊपर से माना है। अगर कोई खंडन करने लगे, तर्क देने लगे, तो भीतर भय होगा। भय दूसरे से नहीं होता, भीतर अपने ही छिपा होता है।

अगर मेरी श्रद्धा ऊपर—ऊपर है, अंधी है, तो मैं डरूंगा कि कोई मेरी श्रद्धा न काट दे। कोई विपरीत बातें न कह दे। विपरीत बातों से डर नहीं आता। क्योंकि मेरी श्रद्धा कमजोर है, इसलिए डर है कि टूट न जाए। और मेरी श्रद्धा ऊपर—ऊपर है, फट सकती है, छिद्र हो सकते हैं। और छिद्र हो जाएं, तो मेरे भीतर जो अश्रद्धा छिपी है, उसका मुझे दर्शन हो जाएगा।

ध्यान रहे, दुनिया में कोई आदमी आपको संदेह में नहीं डाल सकता। संदेह में डाल ही तब सकता है, जब संदेह आपके भीतर भरा हो। और श्रद्धा की पर्त भर हो ऊपर। पर्त तोड़ी जा सकती है, तो संदेह आपका बाहर आ जाएगा।

जो आस्तिक नास्तिक से भयभीत होता है, वह आस्तिक नहीं है। और जो आस्तिक डरता है कि कहीं ईश्वर के विपरीत कोई बात सुन ली, तो कुछ खतरा हो जाएगा, वह आस्तिक नहीं है, उसे अभी आस्था उपलब्ध नहीं हुई; वह अपने से ही डरा हुआ है। वह जानता है कि कोई भी जरा—सा कुरेद दे, तो मेरे भीतर का संदेह बाहर आ जाएगा। वह संदेह बाहर न आए, इसलिए वह पागल की तरह अपने भरोसे के लिए लड़ता है।

☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
गीता दर्शन–(भाग–6) प्रवचन–155
समस्‍त विपरीतताओं का विलय—परमात्‍मा में