हम स्वयं को भी नहीं जीत पाए हैं और सब जीतने की योजनाएं बनाते हैं
ओशो– स्वयं को भी नहीं जीत पाए! और जो व्यक्ति स्वयं को जीते बिना और सारी जीत की योजना बनाता है, उससे ज्यादा विक्षिप्त और कौन होगा! अगर जीत की ही यात्रा करनी है, तो पहले स्वयं की कर लेनी चाहिए। स्वयं को न जीतने का क्या अर्थ है?
अगर मैं आपसे कहूं कि आज आप क्रोध मत करना, तो क्या आपकी स्वयं पर इतनी शक्ति है कि आज आप क्रोध न करें? यह तो बड़ी बात हो गई। अगर मैं आपसे इतना ही कहूं कि पांच मिनट आंख बंद करके बैठ जाएं और राम शब्द को भीतर न आने दें, तब आपको पता चल जाएगा कि अपने ऊपर कितनी मालकियत है!
आंख बंद कर लें और मैं कहता हूं, पांच मिनट राम शब्द आपके भीतर न आने पाए। तो इतनी भी ताकत नहीं है कि राम शब्द को आप भीतर आने से रोक सकें। इस पांच मिनट में इतना आएगा, जितना जिंदगी में कभी नहीं आया था! एकदम राम-जप शुरू हो जाएगा! राम-जप का जो फायदा होगा, वह होगा। लेकिन स्वयं की हार सिद्ध हो जाएगी। स्वयं पर हमारा रत्तीभर भी वश नहीं है।
जांच करें, तो अपनी गुलामी पता चलेगी कि हम कैसे कमजोर हैं! कैसे कमजोर हैं! हमारी कमजोरी सब तरफ लिखी हुई है। हर द्वार-दरवाजे पर, हर इंद्रिय पर, हर वृत्ति पर, हर वासना पर, हर विचार पर हमारी कमजोरी और गुलामी लिखी हुई है। अपने को धोखा देने से कुछ न होगा।
आत्मा का एक अर्थ तो है, स्वयं। और आत्मा जीती जिसने, इसका दूसरा अर्थ है, और भी गहरा, और वह है, जिसने जाना स्वयं को। क्योंकि जानना जीतना बन जाता है। ज्ञान विजय है। आत्मज्ञान आत्म-विजय है।
महावीर ने कहा है, जिसने जाना स्वयं को, उसने जीता भी। इसलिए महावीर के साथ जिन जुड़ गया। जिन का अर्थ है, जिसने जीता। लेकिन जाना, तो जीता। क्योंकि जिसे हम जानते ही नहीं, उसे हम जीतेंगे कैसे? जिसे जीतना है, उसे जाने बिना जीतने का कोई उपाय नहीं है। ज्ञान विजय है। जिसे भी हम जान लेते हैं, उसके हम मालिक हो जाते हैं।
तो दूसरे अर्थ में हम आत्म-अज्ञानी हैं। हमें कुछ पता ही नहीं कि मैं कौन हूं! नाम-धाम पता है, उससे कुछ होने का हमारा संबंध नहीं है। पता ही नहीं, मैं कौन हूं! इसकी कोई खबर ही नहीं। जिसे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं, उसे आत्मवान कहना भी सिर्फ शब्दों के साथ खिलवाड़ है
☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
गीता-दर्शन – भाग 3
ज्ञान विजय है (अध्याय-6) प्रवचन—चौथा