ऊर्जा की अंतर्यात्रा ही धर्म का सारा सार है “ओशो”
ओशो– धर्म अनुभव की बात कभी नहीं करता है, सिर्फ विधि की बात करता है। वह बताता है कि यह कैसे होगा, लेकिन यह नहीं बताता कि क्या। क्या को तुम पर छोड़ दिया जाता है।’
बुद्ध निरंतर चालीस वर्षों तक कहते रहे कि मुझसे सत्य, ईश्वर, मोक्ष और निर्वाण के संबंध में प्रश्न मत पूछो, इन चीजों के संबंध में प्रश्न ही मत पूछो। बस, इतना पूछो कि वहां कैसे पहुंचा जाए। मैं तुम्हें मार्ग बता सकता हूं लेकिन यह अनुभव नहीं बता सकता, शब्दों में भी नहीं।अनुभव व्यक्तिगत है, विधि अवैयक्तिक है। विधि वैज्ञानिक है, अवैयक्तिक है, अनुभव सदा वैयक्तिक है, काव्यात्मक है।
बुद्ध एक ढंग से कहते हैं, महावीर दूसरे ढंग से कहते हैं, और कृष्ण तीसरे ढंग से। मोहम्मद, मूसा, लाओत्से, सब विधि में नहीं, अभिव्यक्ति में एक—दूसरे से भिन्न हो जाते हैं। सिर्फ एक बात में वे एकमत हैं कि वे जो कहते हैं, वह उसे प्रकट नहीं करता है, जो उन्होंने अनुभव किया है। सिर्फ इस बात में वे सहमत हैं। फिर भी वे प्रयत्न करते हैं कि उस बात की ओर कुछ इंगित करें, कुछ कहें। यह असंभव लगता है, लेकिन अगर तुम्हारा हृदय सहानुभूतिपूर्ण है तो कुछ संप्रेषित हो सकता है। लेकिन उसके लिए प्रगाढ़ सहानुभूति, प्रेम और निष्ठा की जरूरत है।
सच तो यह है कि जब कोई बात तुम तक संप्रेषित हो जाती है तो उसका श्रेय कहने वाले से अधिक तुमको है। अगर तुम उसे गहरे प्रेम से और श्रद्धा से ग्रहण कर सको तो कुछ बात तुम तक पहुंच जाती है। लेकिन अगर तुम उसके प्रति आलोचक का भाव रखो तो कुछ भी नहीं पहुंचता। पहली बात तो उसे कहना कठिन है, लेकिन यदि कहा भी जाए तो तुम्हारी आलोचनात्मक वृत्ति के कारण संवाद असंभव हो जाता है।
और अगर केंद्र पर विस्फोट नहीं होता है तो समझना चाहिए कि अभी तुम केंद्रित नहीं हुए हो। एक बार तुम केंद्रित हो गए कि तुरंत विस्फोट घटित होता है। उसमें समय का अंतराल नहीं है। इसलिए अगर विस्फोट घटित नहीं होता है तो समझना कि तुम अभी इकट्ठे नहीं हो, एकाग्र नहीं हुए हो। अभी तुम्हें एक केंद्र नहीं प्राप्त हुआ है, तुम अभी भी बंटे हो, तुम्हारी ऊर्जा नष्ट हो रही है, बाहर जा रही है।
जब ऊर्जा बाहर जाती है तो तुम खाली हो रहे हो, रिक्त हो रहे हो, नष्ट हो रहे हो। और अंत में नपुंसक, निर्जीव हो जाओगे। सच तो यह है कि मृत्यु आती है तो तुम्हें मरा हुआ ही पाती है। तुम एक मृत कोष्ठ हो। तुम निरंतर अपनी ऊर्जा बाहर की तरफ फेंकते हो और तब कितनी भी ऊर्जा हो वह एक अवधि के भीतर चुक जाएगी और तुम रिक्त हो जाओगे। ऊर्जा का बाहर जाना मृत्यु है। तुम प्रत्येक क्षण मर रहे हो, नष्ट हो रहे हो।
कहते हैं कि सूरज भी, जो कि महान ऊर्जा का भंडार है और जो करोड़ों वर्ष का है, निरंतर रिक्त हो रहा है, और चार हजार वर्षों के भीतर वह समाप्त होने वाला है। सूर्य समाप्त होगा, क्योंकि उसके पास फिर विकीरित करने को ऊर्जा नहीं बचेगी। सूर्य प्रतिदिन मर रहा है, क्योंकि उसकी किरणें उसकी ऊर्जा को ब्रह्मांड की सरहदों की ओर—अगर उसकी कोई सरहदें हैं—बहा ले जा रही हैं, उसकी ऊर्जा बाहर जा रही है।
केवल मनुष्य अपनी ऊर्जा को दिशा देने और रूपांतरित करने की क्षमता रखता है। अन्यथा मृत्यु स्वाभाविक घटना है, प्रत्येक चीज मरती है। केवल मनुष्य अमृत को, चिन्मय को जान सकता है।
तो तुम इस पूरी चीज को एक नियम में सीमित कर सकते हो। अगर ऊर्जा बाहर जाती है तो मृत्यु उसका परिणाम है, और तब तुम कभी न जानोगे कि जीवन क्या है! तुम धीरे— धीरे मरना भर जानोगे, जीवित होने की प्रगाढ़ता का तुम्हें पता नहीं चलेगा। अगर किसी चीज की भी ऊर्जा बाहर जाती है तो उसकी मृत्यु अपने आप घटित होती है। और अगर तुम ऊर्जा की दिशा बदल देते हो, बाहर बहने की बजाय वह भीतर को ओर बहने लगे तो रूपांतरण संभव है। तब यह भीतर की ओर बहने वाली ऊर्जा एक बिंदु पर केंद्रित हो जाती है।
वह बिंदु नाभि—केंद्र के पास है, क्योंकि तुम नाभि के रूप में ही जन्म धारण करते हो। तुम अपनी नाभि से ही अपनी मां से जुड़े होते हो। फिर नाभि से ही मां की जीवन—ऊर्जा तुम्हें प्राप्त होती है। और नाभि के विच्छिन्न किए जाने पर ही तुम व्यक्ति बनते हो; उसके ‘पहले तुम व्यक्ति नहीं हो, मां के ही एक अंग हो। असली जन्म तो नाभि—रज्यू के कटने पर ही घटित होता है। तभी बच्चा अपना जीवन शुरू करता है, अपना केंद्र बनता है। वह केंद्र नाभि के पास होगा, क्योंकि नाभि से ही बच्चे को जीवन—ऊर्जा मिलती है। वही सेतु है। और तुम जानो न जानो, अभी भी नाभि ही तुम्हारा केंद्र है।
इसलिए अगर ऊर्जा भीतर बहने लगे, दिशा बदलने पर जब वह भीतर मुडने लगे, तो वह नाभि—केंद्र पर ही चोट करेगी। और जब ऊर्जा इतनी हो जाएगी कि केंद्र उसे अपने में समा न सके तो विस्फोट घटित होगा। उस विस्फोट में तुम पुन: व्यक्ति नहीं रह जाते। जैसे जब तुम मां से जुड़े थे तो व्यक्ति नहीं थे वैसे ही पुन: तुम व्यक्ति न रहोगे।
अब तुम्हारा एक नया जन्म हुआ। तुम ब्रह्मांड के साथ एक हो गए। अब तुम्हारा कोई केंद्र न रहा, अब तुम ‘मैं’ नहीं कह सकते, क्योंकि अब अहंकार न रहा। बुद्ध, कृष्ण या महावीर ‘मैं’ का प्रयोग किए जाते हैं, लेकिन वह औपचारिक है। उनका अहंकार जाता रहा है, वे नहीं हैं।
ऊर्जा की अंतर्यात्रा ही धर्म का सारा सार है। धार्मिक खोज का वही अर्थ है, कैसे ऊर्जा को भीतर ले जाया जाए। और ये विधियां सहयोगी हैं। लेकिन स्मरण रहे, केंद्रित होना समाधि नहीं है, अनुभव नहीं है। केंद्रित होना समाधि का द्वार है। और जब अनुभव होता है तो केंद्र भी जाता रहता है। इसलिए केंद्रित होना मात्र मार्ग है।
अभी तुम केंद्रित नहीं हो। अभी तो तुम्हारे बहुत से केंद्र हैं, इसलिए केंद्रित नहीं हो। और जब केंद्रित होगे तब एक ही केंद्र रह जाएगा। तब जो ऊर्जा अनेक केंद्रों में चक्कर लगाती थी, वह लौट आती है। उसे ही घर वापिस आना कहते हैं। तब तुम अपने केंद्र पर हो। और तब विस्फोट घटित होता है। और तब फिर केंद्र खो जाता है। लेकिन तब तुम्हारे बहुत से केंद्र नहीं हैं, तब कोई भी केंद्र नहीं है। तुम ब्रह्मांड के साथ एक हो गए। तब अस्तित्व और तुम एक ही अर्थ रखते हो।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
तंत्र–सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–14
प्रेम को ध्यान बनाओ, ध्यान को प्रेम