“प्रेम में ईर्ष्या की उपस्थिति” हमेशा ईर्ष्या एक छाया की भांति प्रेम का अनुसरण क्यों करती है? “ओशो”
ओशो– प्रेम के साथ ईर्ष्या का कुछ भी लेना देना नहीं है। वास्तव में तुम्हारे तथाकथित प्रेम का भी प्रेम के साथ कुछ भी लेना देना नहीं है। ये सुंदर शब्द हैं जिनका तुम बिना जाने हुए कि उनका अर्थ क्या है? बिना उसका अनुभव किए हुए कि उनका क्या अर्थ है? प्रयोग किये चले जा रहे हो। तुम प्रेम का प्रयोग किए चले जाते हो: तुम उसका इतना अधिक प्रयोग करते हो कि तुम इस तथ्य को भूल ही जाते हो कि तुमने अभी तक उसका अनुभव नहीं किया है। परमात्मा, प्रेम, निर्वाण और प्रार्थना जैसे सुंदर शब्दों का और ऐसे ही अन्य सुंदर शब्दों का प्रयोग करना अनेक खतरों में एक है। तुम उनका प्रयोग किए चले जाते हो, तुम उनको दोहराए चले जाते हो, और धीमे-धीमे वास्तविक रूप से दोहराना ही तुम्हारे इस अनुभव को सृजित करता है, जिसे मानो तुम जानते हो।तुम प्रेम के बारे में क्या जानते हो? यदि तुम प्रेम के बारे में कुछ भी चीज़ जानते हो, तो तुम यह प्रश्न पूंछ ही नहीं सकते, क्योंकि प्रेम में ईर्ष्या की उपस्थिति होती ही नहीं है। और जब भी कहीं ईर्ष्या होती है, तो प्रेम की उपस्थिति नहीं होती। ईर्ष्या, प्रेम का भाग नहीं है, ईर्ष्या मालकियत का, अधिकार में बनाये रखने का भाग है। मालकियत का प्रेम के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं ह। तुम अधिकार और शक्ति के द्वारा उसे नियंत्रण में रखना चाहते हो, तुम शक्ति शाली होने का अनुभव करते हो, तुम्हारा अधिकार क्षेत्र और बड़ा हो जाता है, और यदि कोई अन्य व्यक्ति तुम्हारे अधिकार क्षेत्र में अनधिकृत रूप से प्रवेश करने की चेष्टा करता है, तो तुम क्रोधित होते हो। अथवा यदि किसी अन्य व्यक्ति के पास तुम्हारे घर की तुलना में एक और अधिक बड़ा घर है, तो तुम्हें ईर्ष्या होती है। अथवा यदि कोई व्यक्ति तुम्हें तुम्हारी सम्पति से बेदखल होने की चेष्टा करता है तो तुम ईर्ष्या करते हो और क्रोधित भी होते हो। यदि तुम प्रेम करते हो, तो ईर्ष्या होना असंभव है, यह किसी भी तरह से संभव है ही नहीं।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
(Tantra Vision-भाग-02)
प्रवचन-08