परमात्मा का प्रसाद अपात्र से अपात्र में उतर आता है। बस एक ही बात चाहिए कि अपात्र स्वीकार करने को राजी हो “ओशो”
ओशो- परमात्मा कब आ जाता है अकारण, कब तुम्हें भर देता है, कुछ कहा नहीं जा सकता; इसीलिए शांडिल्य कहते है—प्रसाद अपात्र से अपात्र में उतर आता है। बस एक ही बात चाहिए कि अपात्र स्वीकार करने को राजी हो, बस उतनी बात चाहिए द्वार—दरवाजे बंद मत कर लेना! जब सूरज की किरण सुबह आती है और तुम्हारे दरवाजे से प्रवेश करती है, तो वह यह नहीं कहती—पहले घर साफ बुहारो, शुद्ध करो, पानी छिडको, इस धूल भरे घर मे मैं नहीं आऊंगा;कपड़े—लत्ते धोओ, स्नान करो, फिर मैं निकलूंगा तुम्हारे लिए; अभी मैं उनके लिए निकला हूं जो स्नान कर चुके हैं; ब्रह्ममुहूर्त में उठे थे; तुम अपात्र अभी बिस्तर में पड़े हो। लेकिन तुम कभी बिस्तर में भी पड़े होते हो कंबल ओढ़े और सूरज की किरण आकर तुम्हें जगाने लगती है तुम्हारे कमरे में; ऐसा ही परमात्मा आता है।तुम्हारी अपात्रता और तुम्हारी पात्रता, सब दो कौड़ी की हैं। तुम्हारी अपात्रता भी दो कौड़ी की है, तुम्हारी पात्रता भी दो कौड़ी की है। पात्रता में भी क्या करोगे? कोई आदमी धन के पीछे दीवाना है तो कहता है—मैं अपात्र। और वह धन छोड़ कर चला जाएगा जंगल में तो सोचेगा—पात्र। और धन में था ही क्या? तुम सोचते हो परमात्मा तुम्हारे सरकारी नोटों में भरोसा करता है? तुम भी नहीं करते, परमात्मा क्या खाक करेगा? तुम्हारे सरकारी नोटों का भरोसा क्या है, कब कैंसिल हो जाएं, कब कागज के टुकड़े हो जाएं! तुम सोचते हो तुम्हारे रिजर्व बैंक के गवर्नर के द्वारा जो प्रामीसरी नोट दिए जाते हैं, वह परमात्मा उन में भरोसा करता है? कि तुम्हारे पास दस लाख रुपए थे, तो तुम अपात्र; अब तुमने दस लाख के नोट छोड़ दिए, जंगल मे जाकर बैठ गए, तो तुम पात्र! तुमने छोड़ा क्या? पकड़ा क्या? कागज के नोट थे। कागज के नोटों से न तो कोई अपात्र होता है, न कोई पात्र होता है।
फिर आदमी की पात्रता मेरी दृष्टि में क्या है? एक ही कि आदमी अपना द्वार खोलने को राजी हो। आदमी विनम्र हो। और ध्यान रखना, इसे मैं दोहरा कर तुमसे कहना चाहता हूं कि जिनको तुम पात्र कहते हो, वे विनम्र नहीं होते, और वही उनकी गहरी से गहरी अपात्रता है। किसी ने उपवास कर लिया, वह पात्र हो जाता है। वह अकड़कर बैठ जाता है। किसी ने गरीब पत्नी को छोड़ दिया, अब पत्नी भूखों मरती है, परेशान होती है; कोई अपने बच्चों को छोड़कर चला गया, अब बच्चे अनाथ हो गए और भीख मांगने लगे; मगर यह अकड़कर बैठा है मंदिर में कि मैं मुनि हो गया;कि मैं त्यागी हूं; कि मैं व्रती हूं कि देखो मैंने कितनी पात्रता अर्जित की है! यह अपराधी है, पात्र इत्यादि कुछ भी नहीं। इसने बच्चों को अनाथ कर दिया, इसने पत्नी को बाजार में खड़ा कर दिया, यह अपने छोटे—मोटे कर्तव्य भी नहीं निभा सका, इसको तुम पात्र कह रहे हो? वह सिर इत्यादि घुटाकर यहा बैठ गया है, इससे तुम सोचते हो कि परमात्मा इससे बड़े प्रसन्न हैं। कोई सिर घुटा लेने से परमात्मा का खास लगाव तुम में हो जाएगा?
यह क्या पात्रता है! लेकिन इस पात्रता का भाव पैदा हो गया, तो अहंकार मजबूत हो गया—यह और अपात्र हो गया। इससे तो तभी बेहतर था जब यह कहता था कि मैं अपात्र हूं; कभी—कभी शराब भी पी लेता हूं; और कभी—कभी किसी स्त्री के मोह में भी पड़ जाता हूं और कभी—कभी मन में क्रोध भी आ जाता है, मैं अपात्र हूं; मुझे कैसे परमात्मा मिलेगा, मैं अपात्र हूं। जिस दिन इसका ऐसा भाव था, मेरी दृष्टि में उस दिन यह ज्यादा पात्र था—कम से कम निर—अहकारिता थी; दंभ नहीं था, अकड़ नहीं थी, यह झुक सकता था।
एक ही पात्रता है मेरी दृष्टि में —झुकने की क्षमता, ग्रहण करने की क्षमता, द्वार खोलने के लिए राजीपन। तुम अगर द्वार खोलने को तैयार हो हृदय के, तो आ गया मुहूर्त, आ गया शुभ दिन।
ओशो