धर्म हमेशा से रूढ़ियों के परिपोषक रहे हैं, अंधेपन के समर्थक रहे हैं। उन्होंने विचार की आग नहीं जलायी। उन्होंने विचार की आग को बुझाया। उन्होंने चिंतन और मनन को गति नहीं दी; मारा, हत्या की। इसलिए वे हमसे न मालूम कैसी-कैसी मूढ़तापूर्ण बातें मनवा सके; मनवा ही नहीं सके, करवा भी सके! “ओशो”
प्रश्न: ओशो, संन्यास जीवन का त्याग है या कि जीवन जीने की कला? ओशो- सदियों से संन्यास जीवन का त्याग रहा है और वही भ्रांति थी, जिसके कारण संन्यास सर्वव्यापी नहीं हो सका। उसी चट्टान से टकरा कर संन्यास के फूल की पंखुरियां बिखर गईं।
संन्यास कोमल फूल है और त्याग की कठोर धारणा स्वभावतः उस नाजुक–सौ चीज को नश्ट करने में समर्थ हो गयी।
त्याग की धारणा में ही बुनियादी रूप से अज्ञान है। त्याग का अर्थ हैः भगोड़ापन, पलायनवाद, कायरता। त्याग के लिए किसी बुद्धिमत्ता की कोई आवश्यकता नहीं है।
जीने के लिए बुद्धिमत्ता चाहिए, प्रखरता चाहिए, प्रतिभा चाहिए। भागने के लिए तो प्रतिभा की कोई जरूरत नहीं। युद्ध के मैदान से जो भागते हैं, उन्हें तो हम कायर कहते हैं और जीवन के रण-क्षेत्र से जो भाग जाते हैं, उनको…? उनको रणछोड़दास जी! वे भी भगोड़े हैं। अच्छे नाम देने से कुछ भी न होगा। सुंदर नाम की ओट में गंदगियां कितनी देर तक छिपाई जा सकती हैं?
एक ओर तो धर्म कहते रहे ‘संसार परमात्मा का सृजन है’, और दूसरी ओर यही लोग कहते रहे कि ‘संसार को छोड़ो, त्यागो; संसार पाप है। अगर संसार परमात्मा का सृजन है तो परमात्मा पापी है। यह तो सीधा सा गणित है। अगर संसार गलत है तो संसार को बनाने वाला ठीक कैसे हो सकेगा? और अगर संसार को बनाने वाला ठीक है तो उसकी कृति भी सुंदर हो जाएगी। परमात्मा अगर स्रष्टा है तो सृष्टि सौंदर्य है; यह उसका काव्य है। यह उसके हाथ से रंगा हुआ चित्र है, इसके सब रंग उसने ही तो भरे हैं। उसकी ही तूलिका के तो चिह्न हैं जगह-जगह। उसके ही तो हस्ताक्षर हैं पत्ते-पत्ते पर।
लेकिन महात्मा दोहरी बातें कहते रहे। एक तरफ कहते रहे, ‘परमात्मा ने सृष्टि बनाई’ और दूसरी तरफ कहते रहे, ‘छोड़ो, भागो, त्यागो!’ और हमें विकृति भी न दिखाई पड़ी उनके तर्क में। हम सुनते-सुनते इस बात के इतने आदी हो गए कि हमने कभी सोचा ही नहीं। असल में हमें सोचने की क्षमता ही धर्म ने नहीं दी; सोचने की क्षमता हमसे छीन ली। हमसे कहा, विश्वास करो। हमसे नहीं कहा कि जागो, होष से भरो। हमसे कहा, जो कहा जाए उसे मानो। बाबा वाक्य प्रमाणम! जो भी कहा जाए, वह कितना ही मूढ़तापूर्ण हो, उसे स्वीकार करो, अंगीकार करो। यही आस्तिकता थी। इसलिए हमने आस्तिकता के भीतर छिपी हुई विसंगतियों को नहीं देखा, क्योंकि जो देखे वह नास्तिक, जो देखे वह नर्क में पड़े। अंधों के लिए स्वर्ग था। आंख वालों के लिए नरक था। कौन जाना चाहे नरक में। इससे बेहतर है आंख बंद करके ही जीओ, अंधे हो कर ही जी लो। चार दिन की जिंदगी है, आंख बंद के गुजार लो। फिर पुरस्कार है स्वर्ग का। और सारा क्या है प्रश्न उठाने में? क्यों झंझट में पड़ों? पंड़ितों से, पुरोहितों से, राजनेताओं से, समाज के ठेकेदारों से झंझट लेनी सुगम बात तो नहीं है। उपद्रव मोल लेना है। बगावत है।
तो धर्म हमेषा से रूढ़ियों के परिपोषक रहे हैं, अंधेपन के समर्थक रहे हैं। उन्होंने विचार की आग नहीं जलायी। उन्होंने विचार की आग को बुझाया। उन्होंने चिंतन और मनन को गति नहीं दी; मारा, हत्या की। इसलिए वे हमसे न मालूम कैसी-कैसी मूढ़तापूर्ण बातें मनवा सके; मनवा ही नहीं सके, करवा भी सके!
संन्यास त्याग नहीं है, संन्यास परम भोग है।
मैंने कल ही तुमसे कहा, ‘विष्णु-सहस्र-नाम’ में परमात्मा का एक नाम है: महाभोग। वही नाम मुझे सर्वाधिक प्यारा है, क्योंकि उस नाम में बात जैसे पूरी-पूरी आ गयी।
जीवन को भोगने की कला संन्यास है। निश्चित ही सितार का तोड़ देना तो कोई भी कर सकता हैं; सितार बजाने के लिए रविशंकर चाहिए। वर्षों की तपश्चर्या चाहिए। तोड़ने में तपश्चर्या नहीं करनी होती। तोड़ने में क्या है, एक बच्चा तोड़ दे! लेकिन सितार का बजाना हो, ऐसा बजाना हो कि दीपक राग उठे, कि बुझे दीये जल जाएं, तो फिर वर्षों का श्रम और साधना चाहिए।
त्याग में कोई साधना नहीं है। मूढ़ से मूढ़ व्यक्ति भाग सकता है। भागने में क्या है? भय काफी है। बस भयभीत कर दो, लोग भागने लगेंगे। लोगों को डरा दो, लोग भागने लगेंगे। लेकिन अगर सितार बजाना सीखना है तो वर्शो सतत, अहर्निश श्रम करना होगा। एक दिन में बात नहीं आ जाती। पहले दिन तो सितार बजाओगे तो भरोसा ही नहीं आएगा कि इस सितार में से कभी राग उठने वाले हैं। विराग ही उठेगा, राग नहीं। षोरगुल उठेगा, संगीत नहीं।
जीवन में कुछ भी गलत नहीं है। जीवन तो परमात्मा का प्रकट रूप है। यह तो उसकी देह है, उसकी काया है। जैसे तुम्हारे भीतर आत्मा छिपी है, दिखाई नहीं पड़ता, देह दिखाई पड़ती है-वैसे ही संसार दिखाई पड़ता है। उसके भीतर जो छिपा है वह परमात्मा है। तुम छोड़ कर भागोगे तो फिर खोजोगे कैसे, खोदोगे कैसे? माना कि खुदाई कठिन है, पत्थर भी आएंगे, चट्टानें भी तोड़नी पड़ेगी, श्रम करना होगा गहरा तब कहीं जल-स्त्रोत तक पहुंच पाओगे; लेकिन सस्ते नुस्खे मिल गए लोगों को कि सब छोड़-छाड़ कर बैठ जाओ; राम-राम जपते रहो, सब ठीक हो जाएगा।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
उड़ियो पंख पसार-(प्रवचन-04)