अगर परमात्मा से भक्ति करनी है तो स्त्री से प्रेम सीखना पड़ेगा “ओशो”

 अगर परमात्मा से भक्ति करनी है तो स्त्री से प्रेम सीखना पड़ेगा “ओशो”

ओशो– नारद कहते हैं: कांताभक्ति। भक्त को अगर परमात्मा से भक्ति करनी है तो स्त्री से प्रेम सीखना पड़ेगा। फिर एक पर ही प्रतिबद्ध होना पड़ेगा।

तुम्हारा प्रेम बंटा हुआ है; थोड़ा इस दिशा में, थोड़ा उस दिशा में; थोड़ी राजनीति भी कर लो, थोड़ा धन कमा लो; थोड़ा धर्म भी कर लो; थोड़ी प्रतिष्ठा में हज क्या है; सभी कुछ बांट लो, बटोर लो! जिंदगी छोटी है, हाथ छोटे हैं, समय बहुत संकीर्ण है! तुम हजार दिशाओं में दौड़कर पगला जाते हो।प्रेम अहर्निश एक दिशा में यात्रा है। इसलिए कांताभक्ति! एक बार स्त्री किसी के प्रेम में पड़ जाए, फिर उसके लिए संसार में कोई दूसरा पुरुष रह नहीं जाता। यही तो अड़चन है।

इसलिए स्त्री पुरुष को नहीं समझ पाती, पुरुष स्त्री को नहीं समझ पाता।

पुरुष के लिए और भी स्त्रियां हैं। और पुरुष हमेशा अनुभव करता है कि नये-नये संबंध हो जाएं तो शायद ज्यादा सुख होगा। स्त्री की प्रतीति यह है कि संबंध जितना गहरा हो उतना ज्यादा सुख होगा।

पुरुष मात्रा पर जाता है; स्त्री, गुण पर। इसलिए सम्राट हैं, तो हजारों रानियों को इकट्ठा कर लेते हैं। फिर भी मन नहीं भरता। पुरुष का मन भरता नहीं–भर सकता नहीं।

क्योंकि मन भरने की तो तभी सम्भावना है जब प्रेम गहरा हो, गुणात्मक हो। एक के साथ इतनी तल्लीनता आ जाए, इतना तादात्म्य हो जाए कि भेद गिर जाएं। प्रेम तो तभी तृप्त होता है जब प्रार्थना की सुगंध प्रेम में उठने लगे।

समय चाहिए!
पुरुष का प्रेम मौसमी फूलों की तरह है, अभी बोए, दो तीन सप्ताह बाद आना शुरू हो जाए।

सर्दी आएगी, बाग- बगीचे मौसमी फूलों से भर जाएंगे। स्त्री का प्रेम मौसमी फूलों जैसा नहीं है, समय लगता है। जितना बड़ा वृक्ष, जितना आकाश में ऊपर उठाना हो, उतना जमीन में गहरी जड़ों को जाना पड़ता है। क्षणभंगुर है पुरुष का प्रेम।

अगर पुरुष के प्रेम को गौर से देखो, तो तुम उसे पाओगे कि जब वह प्रेम के क्षण में होता है, तब तो यह भूल ही जाता है कि मैं पुरुष हूं, क्या कह रहा हूं। वह कहता है,’’ सदा तुझे प्रेम करूंगा! तेरे अतिरिक्त और कोई मेरे लिए प्रेम का पात्र नहीं है’’।

पुरुष ये बातें कहता है, जब कहता है तब वह भी आविष्ट होता है उन बातों से-लेकिन घड़ीभर बाद उसे लगता है,’’ यह मैं क्या कह गया! इसे पूरा कर पाऊंगा?

असम्भव मालूम होता है’’ । स्त्री इन बातों को हृदय से कहती है। सच तो यह है, स्त्री ये बातें कहती नहीं, अनुभव करती है।

अगर तुम दो प्रेमियों को बैठे देखो, तो तुम स्त्री को चुप पाओगे, पुरुष को बोलते पाओगे। स्त्री चुप रहती है, कहना क्या है! जो है, है। जो है, वह अपनी दीप्ति से ही चमकेगा, उसे शब्‍द दे कर ओछा क्यों करें? ऐसा नहीं कि स्त्री बोलना नहीं जानती।

स्त्री पुरुष से ज्यादा बोलना जानती है। लेकिन प्रेम के क्षण में स्त्री चुप होती है।

बात इतनी बड़ी है कि कही नहीं जा सकती। ऐसे तो स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा बोलने में कुशल होती हैं। बच्चियां पहले बोलती हैं बच्चों की बजाय।

लड़के थोड़ा देर लगाते हैं बोलने में। स्कूलों में भी लड़कियां ज्यादा प्रथम कोटि की आती हैं, बोल सकती हैं। कुशल हैं बोलने में। पुरुष का बोलना इतना कुशल नहीं है।

लेकिन जब स्त्री-पुरुष प्रेम में पड़ते हैं, स्त्री चुप होती है, पुरुष बोलता है। क्योंकि जो नहीं है, वह बोल-बोलकर उसकी आभा पैदा करता है, आभास पैदा करता है। स्त्री चुप्पी से बोलती है।

एक बार प्रेम में पड़ जाए तो वह सदा के लिए पड़ गई। इसलिए तो इस देश में हजारों स्त्रियां सती हो गईं अपने प्रेमियों के पीछे, लेकिन कोई पुरुष कभी सता नहीं हुआ।

इधर पत्नी मरी नहीं कि वह दूसरी पत्नी को लाने के विचार करने लगता है—वस्तुत : तो यह है कि मरने के पहले ही करने लगता है।

पुरुष स्थिर नहीं है, चंचल है। इसलिए नारद को कहना पड़ा : ‘’कांताभक्ति’’। जैसे कोई स्त्री किसी को प्रेम करती है, ऐसा परमात्मा को प्रेम करना।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
भक्‍ति सूत्र