सब शास्त्र अ, उ, म में समाहित हो गये। हिंदुओं के हों, कि मुसलमानो के, कि ईसाइयों के, कि बौद्धों के, कि जैनों के— भेद नहीं पड़ता “ओशो”

 सब शास्त्र अ, उ, म में समाहित हो गये। हिंदुओं के हों, कि मुसलमानो के, कि ईसाइयों के, कि बौद्धों के, कि जैनों के— भेद नहीं पड़ता “ओशो”

ओशो- यह सुबह, यह वृक्षों में शांति, पक्षियों की चहचहाहट…या कि हवाओं का वृक्षों से गुजरना, पहाड़ों का सन्नाटा… या कि नदियों का पहाड़ों से उतरना… या सागरों में लहरों की हलचल, नाद… या आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट—यह सभी ओंकार है।ओंकार का अर्थ है : सार—ध्वनि; समस्त ध्वनियों का सार। ओंकार कोई मंत्र नहीं, सभी छंदों में छिपी हुई आत्मा का नाम है। जहां भी गीत है, वहां ओंकार है। जहां भी वाणी है, वहां ओंकार है। जहां भी ध्वनि है, वहां ओंकार है।

और यह सारा जगत ध्वनियों से भरा है। इस जगत की उत्पत्ति ध्वनि में है। इस जगत का जीवन ध्वनि में है; और इस जगत का विसर्जन भी ध्वनि में है।

ओम से सब पैदा हुआ, ओम में सब जीता, ओम में सब एक दिन लीन हो जाता है। जो प्रारंभ है, वही अंत है। और जो प्रारंभ है और अंत है, वही मध्य भी है। मध्य अन्यथा कैसे होगा!

इंजील कहती है : प्रारंभ में ईश्वर था और ईश्वर शब्द के साथ था, और ईश्वर शब्द था, और फिर उसी शब्द से सब निष्पन्न हुआ। वह ओंकार की ही चर्चा है।

मैं बोलूं तो ओंकार है। तुम सुनो तो ओंकार है। हम मौन बैठें तो ओंकार है। जंहा लयबद्धता है, वहीं ओंकार है। सन्नाटे में भी—स्मरण रखना—जंहा कोई नाद नहीं पैदा होता, वहा भी छुपा हुआ नाद है। मौन का संगीत का संगीत शून्य का संगीत। जब तुम चुप हो, तब भी तो एक गीत झर—झर बहता है। जब वाणी निर्मित नहीं होती, तब भी तो सूक्ष्म में छंद बंधता है। अप्रकट है, अव्यक्त है; पर है तो सही। तो शून्य में भी और शब्द में भी ओंकार निमज्जित है।

ओंकार ऐसा है जैसे सागर। हम ऐसे हैं जैसे सागर की मछली।

इस ओकार को समझना। इस ओंकार को ठीक से समझा नहीं गया है। लोग तो समझे कि एक मंत्र है, दोहरा लिया। यह दोहराने की बात नहीं है। यह तो तुम्हारे भीतर जब छंदोबद्धता पैदा हो, तभी तुम समझोगे ओंकार क्या है। हिंदू होने से नहीं समझोगे। वेदपाठी होने से नहीं समझोगे। पूजा का थाल सजाकर ओंकार की रटन करने से नहीं समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में उत्सव होगा, तब समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में गान फूटेगा, तब समझोगे। जब तुम्हारे भीतर झरने बहेगे, तब समझोगे।

ओम से शुरुआत अदभुत है।

अथातोभक्तिजिज्ञासा!

उस ओम में सब आ गया; अब आगे विस्तार होगा। जो जानते हैं उनके लिए ओम में सब कह दिया गया। जो नहीं जानते, उनके लिए बात फैलाकर कहनी होगी। अन्यथा शास्त्र पूरा हो गया ओंकार पर।

ओंकार बनता है तीन ध्वनियों से : अ, उ, म। ये तीन मूल ध्वनिया है;शेष सभी ध्वनियां इन्हीं ध्वनियो के प्रकारातर से भेद हैं। यही असली त्रिवेणी है—अ, उ, म। यही त्रिमूर्ति है। यही शब्दब्रह्म के तीन चेहरे हैं।

सब शास्त्र अ, उ, म में समाहित हो गये। हिंदुओं के हों, कि मुसलमानो के, कि ईसाइयों के, कि बौद्धों के, कि जैनों के— भेद नहीं पड़ता। जो भी कहा गया है अब तक और जो नहीं कहा गया, सब इन तीन ध्वनियों में समाहित हो गया है। ओम कहा, तो सब कहा। ओम जाना, तो सब जाना। इसलिए वेद घोषणा करते हैं कि जिसने ओंकार को जान लिया, उसे जानने को कुछ और शेष नहीं रहा। निश्चित ही यह उस ओंकार की बात नहीं है, जो तुम अपने पूजागृह में बैठकर दोहरा लेते हो। यह ओंकार तो तुम्हारे पूरे जीवन की सुगंध की तरह प्रकट होगा, तो समझोगे।
तुम्हारे जीवन में बड़ी छंदहीनता है। तुम्हारा जीवन टूटा—फूटा हुआ सितार है, जिसके तार या तो बहुत ढीले हैं या बहुत कसे हैं; और जिस तार पर कैसे अंगुलियां रखें, उसका शास्त्र ही तुम भूल गए हो; और जिस सितार को कैसे बजाएं, कैसे निनादित करें, उसकी भाषा ही तुम्हें नहीं आती। तुम सितार लिए बैठे हो, सितार में छिपा संगीत तुम्हारी प्रतीक्षा करता है, और जीवन बड़ी पीड़ा से भरा है। यह सारी पीड़ा रूपांतरित हो सकती है : तुम गाओ, तुम गुनगुनाओ; तुम्हारे भीतर की सरिता बहे; तुम नाचो।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३