स्त्रियां अपने शरीर की उतनी फिक्र नहीं करती हैं, जितनी अपने गहनों की फिक्र करती हैं, क्योंकि आस—पास जो लोग हैं, वे पदार्थ से आकर्षित होते हैं “ओशो”

 स्त्रियां अपने शरीर की उतनी फिक्र नहीं करती हैं, जितनी अपने गहनों की फिक्र करती हैं, क्योंकि आस—पास जो लोग हैं, वे पदार्थ से आकर्षित होते हैं “ओशो”

ओशो- धन, पद, बहुत स्थूल आकर्षण हैं। वे आकर्षण वैसे ही हैं, जैसे चुंबक के पास लोहा खिंचता है। ऐसे ही हम खिंचे चले जाते हैं। ध्यान रखना, आप चुंबक नहीं हैं। जब आप धन की तरफ खिंचते हैं, तो ध्यान रखना, धन आपकी तरफ कभी नहीं खिंचता है। आप ही धन की तरफ खिंचते हैं। धन चुंबक होता है। ध्यान रखना, धन पुरुष हो जाता है, आप स्त्रैण हो जाते हैं।इसलिए धन को प्रेम करने वाला रुपए को ऐसे देखता है, जैसे अपने प्रेमी को। वह उसका परमात्मा है। रुपए को छूता है ऐसे, जैसे किसी जीवित चीज को भी उसने कभी नहीं छुआ है। रुपए को उलट—पलटकर देखता है!

और हम सबको पता है। स्त्रियों को पता है। इसलिए स्त्रियां अपने शरीर की उतनी फिक्र नहीं करती हैं, जितनी अपने गहनों की फिक्र करती हैं। क्योंकि आस—पास जो लोग हैं, वे पदार्थ से आकर्षित होते हैं। अभी शरीर का भी आकर्षण दूर है।

इसलिए स्त्री अपने शरीर को गंवा सकती है, लेकिन अपने हीरे को नहीं खो सकती। उसके हाथ में उतना आकर्षण नहीं मालूम पड़ता उसे, जितना हीरे की अंगूठी में मालूम पड़ता है। और उसकी समझ एक लिहाज से सही है। क्योंकि जब भी कोई उसके हाथ को देखता है, तो सौ में से नब्बे मौके पर हाथ को देखने वाले बहुत कम लोग हैं, हीरे की अंगूठी को देखने वाले ज्यादा लोग हैं। इसलिए अगर कुरूप हाथ भी हो और हीरे की अंगूठी हो, तो आपको हाथ का कुरूप होना दिखाई नहीं पड़ता। हीरे की अंगूठी का सौंदर्य हाथ पर छा जाता है। इसलिए कुरूप व्यक्ति आभूषणों से अपने को लादता चला जाता है। असल में कुरूपता ही केवल आभूषण के प्रति आकर्षित होती है, क्योंकि वह और नीचे के तल का आकर्षण है।

पुरुष भी भलीभांति जानते हैं कि उनका बड़ा मकान एक स्त्री को आकर्षित कर सकता है। उनका बैंक बैलेंस एक स्त्री को आकर्षित कर सकता है। उनकी बड़ी कार एक स्त्री को आकर्षित कर सकती है। इसलिए पुरुषों को भी अपने शरीर की भी उतनी चिंता नहीं है, जितनी अपनी कार की है, जितनी अपने मकान की है, जितनी अपनी तिजोड़ी की है। क्योंकि आदमी के जिस समाज में हम जी रहे हैं, वह पदार्थ के तल पर आकर्षित हो रहा है, और श्रद्धा बहुत लंबी यात्रा है फिर।।

पदार्थ से ऊपर उठें, बड़ी कृपा होगी, लोभ से ऊपर उठें। कम से कम जीवित व्यक्ति में आकर्षित हों, मृत पदार्थों में नहीं। यह भी बड़ी क्रांति है। कुछ लोग जीवित व्यक्तियों में आकर्षित होते हैं, लेकिन यौन के बाहर उनका आकर्षण नहीं जाता। एक—दूसरे के शरीर तो मिलते हैं, लेकिन एक—दूसरे के मन कभी भी नहीं मिल पाते हैं।

एक ही शरीर कितनी बार भोगा जा सकता है? और एक ही शरीर कितनी देर तक आकर्षक हो सकता है? और एक ही शरीर कितनी देर तक खींचेगा? फिर वह खिंचाव भी एक ऊब और बोर्डम हो जाती है। और मन तो मिलते नहीं।

हमारे पास मन जैसी कोई चीज भी है, और हम कभी किसी के मन से भी आकर्षित होते हैं, तो ही हमें प्रेम का अनुभव शुरू होगा। प्रेम, शरीर—मुक्त दो मन के बीच आकर्षण है। प्रेम मैत्री है।लेकिन हमें प्रेम का अनुभव नहीं है। मित्रता दुर्लभ होती चली गई है। और प्रेम का ही पता न हो, तो श्रद्धा बहुत कठिन हो जाएगी। मन का प्रेम मित्रता को जन्म देता है।

ओशो गीता सूत्र