ओशो- अर्जुन का मन हो कितना ही जटिल, कितनी ही हों द्वंद्व की पर्तें भीतर, पर अर्जुन सरल व्यक्तित्व है। जटिलता है बहुत, लेकिन अपनी जटिलता के प्रति किसी धोखे में अर्जुन नहीं है। और अपनी जटिलता को भी प्रकट करने में स्पष्ट और ईमानदार है। शायद यही उसकी योग्यता है कि कृष्ण का संदेश उसे उपलब्ध हो सका।बीमार भी होते हैं हम, तो भी स्वीकार करने का मन नहीं होता। बीमारी को भी छिपाते हैं। और जो बीमारी को भी स्वीकार न करता हो, उसके स्वस्थ होने की संभावना बहुत कम हो जाती है। क्योंकि जिसे मिटाना है, उसे स्वीकार करना जरूरी है। और जिसे मिटाना है, उसे ठीक से पहचानना भी जरूरी है। जिससे मुक्त होना है, उसे जाने बिना मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है।
दो तरह की ईमानदारिया हैं। एक ईमानदारी है, जो हम दूसरों के प्रति रखते हैं। वह ईमानदारी बहुत बड़ी ईमानदारी नहीं है; कामचलाऊ है, ऊपरी है। एक और ईमानदारी है गहरी, जो व्यक्ति अपने प्रति रखता है। वह ईमानदारी खोजनी बड़ी मुश्किल है। पहली ईमानदारी ही खोजनी बहुत मुश्किल है, दूसरी तो और भी मुश्किल है।
अपने प्रति ईमानदार होना बड़ा कठिन है, क्योंकि हम सबने अपने संबंध में कुछ धारणाएं, कुछ प्रतिमाएं बना रखी हैं। और अगर हम अपने प्रति ईमानदार हों, तो हमारी ही निर्मित प्रतिमाएं हमारे हाथों ही खंडित हो जाती हैं। हम जो भी अपने को समझते हैं, वह हम हैं नहीं। हम जो भी अपने को मानते हैं, उससे हमारा दूर का भी संबंध नहीं है। और जो हम हैं, वह इतना पीड़ादायी है कि उसे देखने की हिम्मत भी हम नहीं जुटा पाते हैं। जो हमारी वास्तविकता है, जो हमारा यथार्थ है, उसको हम आंख गड़ाकर देखने का भी साहस नहीं रखते हैं।
और धार्मिक जीवन का प्रारंभ तो उसी व्यक्ति का हो सकेगा, जो अपने प्रति ईमानदार है, जो अपने यथार्थ को जानने का साहस जुटा पाता है। जो जैसा है, वैसा ही अपने को उघाड़कर देख सकता है। चाहे हो कितना ही विकृत, और चाहे कितना ही हो गहन अंधेरा, और चाहे कितने ही रोग हों भीतर, और चाहे कितनी ही हो विक्षिप्तता, लेकिन जो उस सबको शांत भाव से देखने को तैयार है, स्वीकार करने को कि ऐसा मैं हूं वही व्यक्ति धार्मिक हो सकता है। अपने प्रति ईमानदारी धार्मिक व्यक्ति का पहला कदम है।
अर्जुन जटिल है, उलझा हुआ है। जैसा कि कोई भी मनुष्य जटिल है और उलझा हुआ है। मनुष्य होने के साथ ही वैसी जटिलता अनिवार्य है। लेकिन अर्जुन उसे छिपाने को आतुर नहीं है। जानकर उसे भुलाने की भी उसकी चेष्टा नहीं है। अनजाने जटिलता है, लेकिन जानकर अर्जुन उससे मुक्त होने के लिए भी आतुर है। न उसे खुद भी पता चलता हो, लेकिन अपने प्रति वह विनम्र है। और जो भी उसके भीतर हो रहा है, वह उसे कृष्ण से कहे चला जाता है। इस सूत्र में कुछ बातें उसने बड़े मूल्य की कही हैं। साधक की तरफ से समझने योग्य! जो खोजने निकलते हैं परमात्मा को, उनके लिए बहुत मूल्य की!
कई बार तो ऐसा हो सकता है कि कृष्ण का वचन भी उतना मूल्यवान न हो। क्योंकि कृष्ण का वचन तो आत्यंतिक है, अंतिम है। जब हम पहुंचेंगे, तब हम उसे जानेंगे। ऐसा हो सकता है कि बहुत बार अर्जुन का वक्तव्य बहुत कीमती हो, कृष्ण से भी ज्यादा कीमती हो, हमारे लिए। सत्य उतना नहीं है वह, जितना कृष्ण का वक्तव्य होगा। न वह आत्यंतिक कोई अनुभूति है, लेकिन अर्जुन जहां खड़ा है, वहीं हम सब खड़े हैं। तो अर्जुन को समझ लेना, उसके वक्तव्य को समझ लेना, खुद को समझने के लिए बहुत कीमती है। और खुद को जो समझ ले, वह किसी दिन कृष्ण को भी समझ पा सकता है