सत्ता का हमारे मन में इतना…… आदर है, यह स्वतंत्र आदमियों का लक्षण नहीं है “ओशो”

 सत्ता का हमारे मन में इतना…… आदर है, यह स्वतंत्र आदमियों का लक्षण नहीं है “ओशो”

ओशो- अखबार उठा कर देखें, तो दो कौड़ी का आदमी किसी पद पर हो जाए, तो अखबार के लिए भगवान हो जाता है। वही आदमी कल अखबार से, दुनिया..पद से नीचे उतर जाए, फिर उसका पता लगाना मुश्किल है कि वह कहां है। कोई पता नहीं चलेगा।
बस सत्ता का हमारे मन में इतना आदर है। यह स्वतंत्र आदमियों का लक्षण नहीं है। सारा अखबार सत्ताधिकारियों की आवाज से भरा है। उनकी ही खबरें..किसको छींक आ गई, किसको क्या तकलीफ हो गई, वे सारी खबरें हैं। किसके घर कौन आया, कौन गया, वे सब खबरें हैं। जैसे मुल्क में और कुछ भी नहीं होता। न मुल्क में संगीत है, न मुल्क में कला है, न मुल्क में धर्म है, न मुल्क में दर्शन है, न मुल्क में योग है, कुछ भी नहीं है, सिर्फ राजनीति है। यह गुलाम आदमियों का लक्षण है।
जो कौम जितनी चित्त से गुलाम होगी, उतनी ज्यादा राजनीति को सब कुछ मान लेगी। बस यही सब कुछ हो रहा है। क्योंकि सत्ता में जो खड़ा है वही बस सब कुछ है और दूसरा आदमी किसी मूल्य का नहीं है। राधाकृष्णन कहां हैं, कभी खोजते, पता लगाते हैं, कहां हैं? राधाकृष्णन का कभी पता चलता है कहां चले गए? गए, कोई पूछेगा नहीं।
स्वतंत्र आदमी हजार-हजार दिशाओं में यात्रा करता है, गुलाम आदमी सत्ता के आस-पास पूंछ हिलाता है, और कुछ भी नहीं करता। एक मिनिस्टर के आस-पास जाकर लोगों के चेहरे देखें और फिर सोचें कि यह मुल्क कितने दिन आजाद रह सकता है। एक मिनिस्टर के पास चले जाएं और आस-पास घूमते हुए लोगों के जरा चेहरे देखें..कैसी जीभ लटक रही है, लार टपक रही है, पूंछ हिल रही है, वह सब चारों तरफ कौन हैं, देखें।
यह मुल्क कैसा? इस मुल्क के मन में आजादी का कोई भाव है? कोई गरिमा है? कोई गौरव है? व्यक्तित्व का कोई अर्थ है? छोटे-मोटे आदमी नहीं, युनिवर्सिटी का वाइस चांसलर, तो वह भी एक मिनिस्टर के चपरासी के पास चक्कर लगा रहा है। सत्ता सब कुछ है। गुलाम आदमी के मन का यह भाव है।

स्वतंत्र आदमी कहता है, सत्ता कामचलाऊ बात है, फंक्शनल है। यह वैसा ही है जैसे कि घर में एक रसोइया रखा हुआ है, भोजन बनाता है। फूड मिनिस्टर पूरे प्रांत के रसोइए से ज्यादा कीमत का नहीं है। इससे ज्यादा कोई मतलब भी नहीं है उसका। फंक्शनल बात है। एक काम है।
रेलें चल रही हैं, तो रेल को चलाने के लिए, व्यवस्था करने के लिए कोई होगा। इंतजाम करना है, तो इंतजाम करने के लिए कोई होगा। ठीक है, लेकिन मुल्क की पूरी आत्मा इन्हीं के आस-पास घूमने लगे, तो यह मुल्क और यह कौम गुलाम चित्त की है।
तो हम आजादी के त्यौहार मना लेते हैं, लेकिन हम गुलाम हैं। हमारा मन गुलाम है। हमें मुक्त होना चाहिए, स्वतंत्र होना चाहिए। त्यौहार का कोई मतलब नहीं है। वह दिन सौभाग्य का होगा, त्यौहार चाहे हो चाहे न हो, लेकिन हमारा मन स्वतंत्र हो।
एक-एक आदमी को स्वतंत्रता का कोई भाव पैदा हो, स्वतंत्रता का बोध पैदा हो, व्यक्तित्व की गरिमा पैदा हो। और जिस व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व की गरिमा का थोड़ा बोध होता है, वह दूसरे के व्यक्तित्व की गरिमा के प्रति उतना ही संवेदनशील हो जाता है। जो व्यक्ति अपने को स्वतंत्र रखना चाहता है, वह दूसरे को कभी परतंत्र नहीं करता। जो व्यक्ति स्वतंत्रता को प्रेम करता है, वह सबको स्वतंत्र करेगा।
स्वतंत्र व्यक्ति अपने बच्चों से कहेगा, हम तुम्हें प्रेम देंगे, नियम नहीं। हम तुम्हें प्रेम करेंगे लेकिन बंधन नहीं देंगे। स्वतंत्र पति अपनी पत्नी से कहेगा कि तू मेरी दासी नहीं है, मित्र हैं हम, साथी हैं हम। प्रेम मैं दे सकता हूं, गुलाम तुझे नहीं बना सकता। प्रेम कैसे गुलाम बना सकता है? लेकिन जिसको हम प्रेम कह रहे हैं, वह पूरी तरह गुलाम बना रहा है। इसलिए प्रेम का नाम चलता है, गुलामी का जाल चलता है।
कलह है, कष्ट है, दुख है। सब भीतर, सब सड़ गया है। सब ऊपर-ऊपर हंसी है, भीतर सब सड़ा-गला है, सब दुर्गंध है। उसको किसी तरह लीप-पोत कर बाहर निकल आते हैं। बाहर सब ठीक लगता है..घर-घर भीतर गंदा और परेशानी में है, और सारी परेशानी की एक जड़ है कि गुलाम चित्त खुद भी गुलाम होता है, दूसरे पर भी गुलामी थोपता है।
स्वतंत्र चित्त स्वयं भी स्वतंत्र होता है, दूसरे को भी स्वतंत्र करता है। स्वतंत्र चित्त सब तरफ स्वतंत्रता के बीज बिखेरता है। क्या यह हो रहा है? अगर यह हो रहा हो, तो आपके आजादी के त्यौहार बड़े अच्छे हैं, और अगर यह न हो रहा हो, तो अपने को धोखा देने के उपाय से ज्यादा नहीं हैं।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-04)