प्रशंसक शत्रु बनने में कितनी देर लेते हैं? मौके की तलाश है, जिस दिन प्रशंसा खत्म हो जाए उस दिन निंदा शुरू हो जाती है “ओशो”

 प्रशंसक शत्रु बनने में कितनी देर लेते हैं? मौके की तलाश है, जिस दिन प्रशंसा खत्म हो जाए उस दिन निंदा शुरू हो जाती है “ओशो”

ओशो- एक फकीर था। एक युवा फकीर था जपान के एक गांवमें। उसकी बड़ी कीर्ति थी, उसकी बड़ी महिमा थी।सारा गांव उसे पूजता और आदर करता।

उसके सम्मान में सारे गांव में गीत गाए जाते। लेकिन एक दिन सब बात बदल गई। गांव की एक युवती को गर्भ रह गया और उसे बच्चा हो गया। और उस युवती को घर के लोगों ने पूछा कि किसका बच्चा है, तो उसने उस साधु का नाम ले दिया कि उस युवा फकीर का यह बच्चा है।फिर देर कितनी लगती है, प्रशंसक शत्रु बनने में कितनी देर लेते हैं? जरा सी भी देर नहीं लेते, क्योंकि प्रशंसक के मन में हमेशा भीतर तो निंदा छिपी रहती है। मौके की तलाश करती है, जिस दिन प्रशंसा खत्म हो जाए उस दिन निंदा शुरू हो जाती है। आदर देने वाले लोग, एक क्षण में अनादर देना शुरू कर देते हैं। पैर छूने वाले लोग, एक क्षण में सिर काटना शुरू कर देते हैं,इसमें कोई भेद नहीं है इन दोनों में।

यह एक ही आदमी की दो शक्लें हैं।वे सारे गांव के लोग फकीर के झोपड़े़ पर टूट प़ड़े। इतने दिनों का सप्रेम था भीतर, इतनी श्रद्धा दी थी तो दिल में तो क्रोध इकट्ठा हो ही गया था कि यह आदमी बड़ी श्रद्धा लिए जा रहा है! आज अश्रद्धा देने का मौका मिला था तो कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था। उन्होंने जाकर उस फकीर के झोपड़े पर आग लगा दी। और जाकर उस बच्चे को, एक दिन के बच्चे को उस फकीर के ऊपर पटक दिया।उस फकीर ने पूछा कि बात क्या है? तो उन लोगोंने कहा यह भी हमसे पूछते हो कि बात क्या है? यह बच्चा तुम्हारा है, यह भी हमें बताना पड़ेगा कि बात क्या है? अपने जलते मकान को देखो, और अपने भीतर दिल को देखो, और इस बच्चे को देखो, और इस लड़की को देखो। हमसे पूछने की जरूरत नहीं, यह बच्चा तुम्हारा है।

वह फकीर बोला इज इट सो?
ऐसी बात है, बच्चा मेरा है?

वह बच्चा रोने लगा तो उस बच्चे को वह चुप कराने के लिए गीत गाने लगा। वे लोग उसका मकान जला कर वापस लौट गए। फिर वह अपने रोज के समय पर, दोपहर हुई और भीख मांगने निकला। लेकिन आज उस गांव में उसे कौन भीख देगा? आज जिस द्वार पर भी वह खड़ा हुआ, वह द्वार बंद हो गया। आज उसके पीछे बच्चों की टोली और लोगों की भीड़ चलने लगी, मजाक करती, पत्थर फेंकती। वह उस घर के सामने पहुंचा जिस घर की वह लड़की थी और जिस लड़की का वह बच्चा था। उसने वहां आवाज दी और उसने कहा कि मेरे लिए भीख मिले न मिले, लेकिन इस बच्चे के लिए तो दूध मिल जाए! मेरा कसूर भी हो सकता है, लेकिन इस बेचारे का क्या कसूर हो सकता है?वह बच्चा रो रहा है, भीड़ वहां खड़ी है।

उस लड़की के सहनशीलता के बाहर हो गई बात। वह अपने पिता के पैर पर गिर पड़ी और उसने कहा : मुझे माफ करें, मैंने साधु का नाम झूठा ही ले दिया। उस बच्चे के असली बाप को बचाने के लिए मैंने सोचा कि साधु का नाम ले दूं। साधु से मेरा कोई परिचय भी नहीं है।बाप तो घबड़ा आया। यह तो बड़ी दुर्घटना हो गई। वह नीचे भागा हुआ आया, फकीर के पैर पर गिर पड़ा और उससे बच्चा छीनने लगा।और उस फकीर ने पूछा : बात क्या है? उसके बाप ने कहा : माफ करें, भूल हो गई, यह बच्चा आपका नहीं है। उस फकीर ने पूछा : इज इट सो। ऐसी बात है कि यह बच्चा मेरा नहीं है?

तो उस बाप ने, उस गांव के लोगों ने कहा : पागल हो तुम! तुमने सुबह ही क्यों नहीं इनकार किया?

उस फकीर ने कहा. इससे क्या फर्क पड़ता था, बच्चा किसी न किसी का होगा ही। और एक झोपड़ा तुम जला ही चुके थे। अब तुम दूसरा जलाते। और एक आदमी को तुम बदनाम करने का मजा ले ही चुके थे, तुम एक आदमी को और बदनाम करने का मजा लेते। इससे क्या फर्क पड़ता था? बच्चा किसी न किसी का होगा, मेरा भी हो सकता है; इसमें क्या हर्जा! इसमें क्या फर्क क्या पड़ गया?

तो लोगों ने कहा : तुम्हें इतनी भी समझ नहीं है कि तुम्हारी इतनी निंदा हुई, इतना अपमान हुआ, इतना अनादर हुआ?उस फकीर ने कहा: अगर तुम्हारे आदर की मुझे कोई फिकर होती तो तुम्हारे अनादर की भी मुझे कोई फिकर होती। मुझे तो जैसा ठीक लगता है, वैसा मैं जीता हूं तुम्हें जैसा ठीक लगता है,तुम करते हो। कल तक तुम्हें ठीक लगता था, आदर करें, तो तुम आदर करते थे। आज तुम्हें ठीक लगा, अनादर करें, तुम अनादर करते थे। लेकिन न तुम्हारे आदर से मुझे प्रयोजन है, न तुम्हारे अनादर से।

तो उन लोगों ने कहा भले आदमी, इतना तो सोचता कम से कम कि तू भला आदमी है और बुरा हो जाएगा?तो उसने कहा न मैं बुरा हूं और न भला हूं अब तो मैं वही हूं जो मैं हूं। अब मैंने यह बुरे-भले के सिक्के छोड़ दिए। अब मैंने यह फिकर छोड़ दी है कि मैं अच्छा हो जाऊं, क्योंकि मैंने अच्छा होने की जितनी कोशिश की, मैंने पाया कि मैं बुरा होता चला गया। मैंने बुराई से बचने की जितनी कोशिश की, मैंने पाया कि भलाई उतनी दूर होती चली गई। मैंने वह खयाल छोड़ दिया। मैं बिलकुल तटस्थ हो गया। और जिस दिन मैं तटस्थ हो गया, उसी दिन मैंने पाया कि न बुराई भीतर रह गई, न भलाई भीतर रह गई। और एक नई चीज का जन्म हो गया है, जो सभी भलाइयों से ज्यादा भली है और जिसके पास बुराई की छाया भी नहीं होती।

तो संत एक तीसरी तरह का व्यक्ति है। साधक की दिशा सज्जन होने की दिशा नहीं है, साधक की दिशा संत होने की दिशा है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३