लोग इतने भूखे हैं, इतने दीन, इतने दुर्बल कि रोटी-रोजी के लिए धर्म बदल लेते हैं! तो निश्चित ही तुम्हारे धर्म की कीमत रोटी-रोजी से ज्यादा नहीं है! “ओशो”

 लोग इतने भूखे हैं, इतने दीन, इतने दुर्बल कि रोटी-रोजी के लिए धर्म बदल लेते हैं! तो निश्चित ही तुम्हारे धर्म की कीमत रोटी-रोजी से ज्यादा नहीं है! “ओशो”

प्रश्न- सभी धर्म चाहते है उनका धर्म छोडकर कोई दूसरे धर्म मे न जाये-लेकिन दूसरे धर्म के लोग उनके धर्म मे आ जाये-क्यो ?

ओशो- यह देश हिन्दू मतांध लोगों के हाथ का शिकार हुआ जा रहा है। चेष्टा यह है कि कोई हिन्दू किसी दूसरे धर्म में न जा सके। लेकिन कोई नहीं पूछता कि हिन्दू किसी दूसरे धर्म में जाना क्यों चाहते हैं! और अगर जाना चाहते हैं, तो उनके जाने के कारण मिटाओ। अगर हिन्दू नहीं चाहते कि हिन्दू ईसाई हों, तो उनके कारण मिटाओ।

एक तरफ हरिजनों को जिन्दा जलाते हो, उनकी स्त्रियों पर बलात्कार करते हो, उनके बच्चों को भून डालते हो, गाँव के गाँव बर्बाद कर देते हो, आग लगा देते हो, और दूसरी तरफ वे ईसाई भी नहीं हो सकते! यह तो खूब स्वतंत्रता रही!

जिस धर्म में उनका जीवन भी संकट में है, उस धर्म में ही उन्हें जीना होगा — इसको स्वतंत्रता कहते हो?

लेकिन धर्म-स्वातंत्र्य विधेयक को लाने वाले लोगों का कहना है कि ईसाई लोगों को भरमा लेते हैं — हम भरमाने के खिलाफ विधेयक बना रहे हैं।

तुम नहीं भरमा पाते, ईसाई भरमा लेते हैं?इस विधेयक को लाने वालों का कहना है कि ईसाई लोगों को धन, पद, नौकरी, प्रतिष्ठा, शिक्षा, भोजन, अस्पताल, स्कूल — ऐसी चीजें देकर भरमा लेते हैं — तो तुम पांच हज़ार साल से क्या कर रहे हो? स्कूल नहीं खोल सके? अस्पताल नहीं बनवा सके? लोगों को रोटी-रोजी-कपडा नहीं दे सके?

अगर ईसाई लोगों को रोटी-रोजी-कपडा देकर भरमा लेते हैं, तो यह तो सिर्फ तुम्हारी लांछना है। यह तो तुम्हारे ऊपर दोषारोपण हुआ| यह तो तुम्हारे चेहरे पर कलंक है,कालिख पूत गयी!

पांच हजार साल में तुम लोगों को रोटी-रोजी भी नहीं दे पाए! लोग इतने भूखे हैं, इतने दीन, इतने दुर्बल कि रोटी-रोजी के लिए धर्म बदल लेते हैं! तो निश्चित ही तुम्हारे धर्म की कीमत रोटी-रोजी से ज्यादा नहीं है!

और तुम्हारे धर्म ने दिया क्या उन्हें? अगर दिया होता तो क्यों बदलते?

अगर चाहते हो कि न बदलें, तो कुछ दो। अस्पताल खोलो, स्कूल खोलो। भेजो अपने संन्यासियों को कि उनकी सेवा करें। तुम्हारे पास संन्यासी कुछ कम नहीं हैं। पांच लाख हिंदू संन्यासी हैं! इनको भेजो, सेवा करें, स्कूल चलाएं, अस्पताल खोलें। मगर हिंदू संन्यासी तो सेवा लेता है–करता नहीं। उसने तो सदियों से सेवा ली है। उसके पैर दबाओ, उसके चरणों पर सिर रखो।

लोग थक गए मूढ़ों के चरणों पर सिर रखते-रखते। और लोग भूखे हैं। और लोग अप्रतिष्ठित हैं, अपमानित हैं। तुम्हारे साथ हैं, यही आश्चर्य है! शूद्रों का कभी का तुमसे संबंध छूट जाना चाहिए था। कैसे शूद्र तुम्हारे साथ रहे आ रहे हैं, यह चमत्कार है! जहर तुमने हजारों साल तक पिलाया है कि उनमें अब स्वतंत्रता का बोध भी नहीं रह गया है। उनमें इतनी भी क्षमता नहीं रह गई है कि कह दें कि नमस्कार! अब बहुत हो गया! तुमने हमें बहुत सता लिया। अब कम से कम इतनी तो हमें आज्ञा दो कि हम इस घेरे के बाहर जाएं।

इस भय से कि शूद्र और आदिवासी ईसाई न होते चले जाएं, यह विधेयक लाया जा रहा है। इस विधेयक के पीछे मंशा कुल केवल इतनी है कि धर्म-परिवर्तन की स्वतंत्रता शेष न रह जाए।

यह कोई अच्छा लक्षण नहीं है; न लोकतांत्रिक है। और एक ऐसे राष्ट्र के लिए जो अपने को धर्म-निरपेक्ष कहता है, इस तरह का विधेयक तो बिलकुल अपमानजनक है।

तो पहली तो बात मैं यह कहना चाहता हूं: यह धर्म-परतंत्रता का विधेयक है–स्वतंत्रता का नहीं। मैं ईसाई नहीं हूं, मैं हिंदू भी नहीं हूं। मैं किसी धर्म का अनुयायी नहीं हूं। लेकिन फिर भी मैं यह मानता हूं कि अगर कोई व्यक्ति अपना धर्म बदलना चाहता है तो यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। और अगर वह रोटी-रोजी के लिए भी धर्म बदलना चाहता है, तो भी उसका यह जन्मसिद्ध अधिकार है। वह किस कारण से धर्म बदलना चाहता है, यह बात विचारणीय नहीं है। कारण भी उसको ही तय करना है। और अगर वह रोटी-रोजी के लिए अपना धर्म बदल लेता है, तो उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि जिस धर्म में वह था, वह रोटी-रोजी भी नहीं दे सका–और तो क्या देगा!

थोथी बकवास, थोथे सिद्धांत पेट नहीं भरते। भूखे भजन न होहिं गोपाला! वह बहुत दिन सुन चुका भूखे भजन करते-करते; न आत्मा तृप्त होती है, न शरीर तृप्त होता है। परलोक की तो बात छोड़ो, यह लोक ही कष्ट में और नरक में बीत रहा है। तो अगर कोई इसे बदल लेना चाहे तो मैं उसे उसका जन्मसिद्ध अधिकार मानता हूं। और कोई भी राष्ट्र इस जन्मसिद्ध अधिकार को छीने, वह राष्ट्र लोकतांत्रिक नहीं रह जाता। यह तो पहली बात।

दूसरी बात, ईसाई उसका विरोध कर रहे हैं। मैं इस बात के बहुत पक्ष में नहीं हूं कि ईसाई उसका विरोध करें। सिर्फ ईसाई ही क्यों विरोध कर रहे हैं? क्या इस देश में और कोई सोच-विचार करने वाले लोग नहीं हैं? हिंदू चुप, जैन चुप, बौद्ध चुप, सिक्ख चुप। सिर्फ ईसाई ही क्यों विरोध कर रहे हैं? क्योंकि चोट सिर्फ ईसाइयों पर पड़ रही है।

और यह मैं जरूर कहना चाहूंगा कि ईसाइयों के लोगों के धर्म-परिवर्तित करने के जो ढंग हैं, वे ढंग धार्मिक नहीं हैं। वे ढंग रिश्वत जैसे हैं। वे ढंग शोभा योग्य नहीं हैं। वे ढंग किसी धर्म को आदृत नहीं करते। वे ढंग चालबाजियों के हैं।

इसलिए मैं भी विरोध कर रहा हूं इस विधेयक का, लेकिन उस कारण से नहीं जिस कारण से ईसाई विरोध कर रहे हैं। ईसाइयों का विरोध और हिंदुओं का पक्ष तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

हिंदू कह रहे हैं कि हम लोगों को चाहते हैं कि उनके धर्म को कोई सस्ते में न खरीद सके, इसलिए विधेयक बना रहे हैं। ईसाई कहते हैं कि हम मानते हैं कि धर्म-परिवर्तन का अधिकार मनुष्य की स्वतंत्रता है, इसलिए हम विधेयक का विरोध कर रहे हैं। दोनों बातें झूठ कह रहे हैं।

ईसाइयों को मतलब नहीं है धर्म की स्वतंत्रता से। क्योंकि अमरीका में ईसाई विरोध करते हैं ईसाइयों का परिवर्तन। जो ईसाई हरे-कृष्ण आंदोलन में सम्मिलित हो जाते हैं, अमरीका में ईसाई उनका विरोध करते हैं कि यह नहीं होना चाहिए; कि हमारे बच्चों को भड़काया जा रहा है; कि हमारे बच्चों को उलटी-सीधी बातें समझाई जा रही हैं; कि हमारे बच्चों की बुद्धि परिपक्व नहीं है; कि हमारे बच्चों को सम्मोहित किया जा रहा है।

अमरीका में बड़े जोर से चर्चों ने गुहार मचा रखी है कि हमारे बच्चे हरे-कृष्ण आंदोलन में सम्मिलित न हो जाएं, क्योंकि वह हिंदू हो जाना है। यह तो दूर, महर्षि महेश योगी की ध्यान की प्रक्रिया भी कोई ईसाई न करे, इसका चर्च गुहार मचा रहे हैं। क्यों? क्योंकि ध्यान की प्रक्रिया तो कोई धर्म का ऐसा अनिवार्य अंग नहीं है।
महर्षि महेश योगी की ध्यान की प्रक्रिया तो बड़ी सीधी है, मंत्र-जाप है। और उनका कोई ऐसा विरोध भी नहीं कि तुम ईसा-ईसा मत जपो। तुम्हें जो जपना हो, वह जपा जा सकता है। तुम्हें अगर अवेमारिया-अवेमारिया जपना है, तो अवेमारिया जपो। उससे भी वही फल होगा जो राम-राम जपने से होता है।
महर्षि महेश योगी का ध्यान का आंदोलन कोई हिंदू धर्म का प्रचार नहीं है। क्योंकि ध्यान का हिंदू धर्म से क्या लेना-देना! ध्यान तो जैनों का भी है, बौद्धों का भी है। ध्यान तो एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। मैं महर्षि महेश योगी के ध्यान से सहमत नहीं हूं। मैं नहीं मानता कि वह ध्यान कोई बहुत गहरा ध्यान है कि उसे भावातीत-ध्यान कहा जा सके। लेकिन इस संबंध में मैं जरूर उनका समर्थन करता हूं कि जो ईसाई विरोध कर रहे हैं वह विरोध बेईमानी का है।

अब कोशिश की जा रही है कि कोई भावातीत-ध्यान न करे। क्योंकि जो भावातीत-ध्यान करेगा, वह हिंदू हो रहा है–और ईसाई धर्म को खतरा पैदा हो रहा है। अमरीका में विरोध किया जा रहा है कि भावातीत-ध्यान न कोई करे। स्कूलों में पाबंदी लगाई जा रही है, कालेजों में पाबंदी लगाई जा रही है, युनिवर्सिटियों पर दबाव डाला जा रहा है। राज्यों में ऐसे नियम बनाने की कोशिश की जा रही है–बड़े जोर से–कि कोई व्यक्ति ईसाई धर्म छोड़ कर किसी दूसरे धर्म में सम्मिलित न हो जाए।

और इतना ही नहीं, जो बच्चे, जो युवक सोच-विचारपूर्वक…और निश्चित समझना कि युवकों के पास ज्यादा सोच-विचार की क्षमता है, वे ज्यादा सुशिक्षित हैं, उनके पास ज्यादा विस्तीर्ण परिप्रेक्ष्य है। उन्होंने बाइबिल भी पढ़ी है और उन्होंने गीता भी पढ़ी है और उन्होंने उपनिषद भी देखे हैं और ताओ तेह किंग भी देखा है। अब उनके सामने चुनाव है। उन्हें चुनाव करना है। और उन्हें पूरब की बातों में ज्यादा गहराई मालूम पड़ रही है। गहराई है। और अगर वे पूरब की बातें को चुन रहे हैं, तो बड़ी घबड़ाहट फैल रही है। वहां ईसाई विरोध कर रहे हैं कि कोई हिंदू न हो जाए, कि कोई बौद्ध न हो जाए.।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
प्रेम पंथ ऐसो कठिन-3