ओशो- मंसूर निकल रहा है एक गली से, एक सूफी फकीर। फूल खिला है। खड़ा हो गया मंसूर। हाथ जोड़े, आकाश की तरफ देखा। उसके साधकों ने पूछा, यहां किसको हाथ जोड़ रहे हैं? कोई मस्जिद नजर नहीं आती! मैसूर ने कहा, फूल खिला हैं, प्रभु की कृपा! अन्यथा फूल कैसे खिल सकते हैं!
यह कीर्तन है।
सूरज निकला है, मैसूर हाथ जोड़े खड़ा है। साथी कहते हैं, क्या कर रहे हैं? क्या मूर्तिपूजक हो गए! मंसूर कहता है, सूरज निकल रहा है। इतना प्रकाश, इतना प्रकाश, प्रभु की कृपा है!
यह स्तुति है।
मंसूर मर रहा है, उसके हाथ—पैर काट दिए गए हैं। वह आकाश की तरफ आंखें उठाकर मुस्कुरा देता है। भीड़ पूछती है, यह तुम क्या कर रहै हो? दुश्मन इकट्ठे हैं, वे उसको मार रहे हैं। मैसूर कहता है, प्रभु की कृपा है! क्योंकि इधर तुम मुझे मार रहे हो, उधर वह मुझे मिलने को बिलकुल तत्पर खड़ा है। इधर तुम मुझे गिराओगे, उधर मैं उसमें डूब जाऊंगा। प्रभु की बड़ी कृपा है। और शायद तुम सहायता न करते मुझे मारने में, तो मुझे पहुंचने में थोड़ी देर भी हो जाती।
यह स्तुति है।
जीसस को सूली लग रही है। और सूली पर आखिरी क्षण वे कहते हैं, हे परमात्मा, इन सबको माफ कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं, ये क्या कर रहे हैं!
यह उसका गुणगान है। यह उसका कीर्तन है। यहां भी अनुकंपा ही जीसस को खयाल में आती है।जीवन में कोई भी अवसर न जाए जब हम उसकी अनुकंपा को अनुभव न करें। दुख हो कि सुख, शाति हो कि अशांति, सफलता मिले कि असफलता, रात हो कि दिन, सूरज उगता हो कि ढलता हो—उसकी अनुकंपा हमें प्रतीत होती रहे, उसके गुणों का एक सरगम हमारे भीतर बजता रहे, तो स्तुति है, तो कीर्तन है। हम जीएं कैसे ही, लेकिन भीतर एक सतत स्मरण उसका बना रहे। उसके स्मरण से हम न चूके,
तो उसका स्मरण है।
कृष्ण कहते हैं, ऐसे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरा कीर्तन करते हुए मुझे बार—बार नमस्कार करते हुए.।
बार—बार कैसे नमस्कार करिएगा? जहां भी आपको उसकी अनुकंपा अनुभव हो—और कहा उसकी अनुकंपा नहीं अनुभव होगी? अनुभव करने की दृष्टि हो, तो सब जगह उसकी अनुकंपा अनुभव होगी।
मंसूर जा रहा है एक रास्ते से। पैर में पत्थर लग गया है, लहूलुहान हो गया। वहीं बैठकर, हाथ जोड़कर घुटने टेक दिए हैं। साथियों ने कहा, क्या करते हो? पागल हो गए हो! पैर से लहू बह रहा है। मंसूर ने कहा, जहां तक मैं जानता हूं जैसा मे आदमी हूं मुझे फांसी होती तो भी कम था। उसकी कृपा है। फांसी बची, सिर्फ पैर में जरा—सा पत्थर लगा है। जैसा मैं आदमी हूं उसे तो फांसी भी हो, तो कम है। उसकी कृपा है कि फांसी बच गई और पैर में सिर्फ पत्थर लगा है।
अगर आपके पैर में पत्थर लगता, तो मालूम है आपके मुंह से क्या निकलता? आपके मुंह से गाली निकलती। सारी दुनिया उस क्षण में बिलकुल बेकार हो जाती। सारा जीवन असार हो जाता। अगर आपका वश चले, तो आप उस वक्त पूरी दुनिया में आग लगा दें, सब नष्ट— भ्रष्ट कर दें। नहीं चलता वश, बात अलग है। लेकिन भीतर तो सोच लेते हैं। जरा—सा दात में दर्द हो जाए तो जगत में ईश्वर दिखाई नहीं पड़ता। जरा—सी सिर में पीड़ा हो जाए तो जगत एकदम नास्तिकता से भर जाता है, सब अंधेरा हो जाता है।
यह उसको बार—बार नमन है। और ऐसे भाव में जो जीएगा सतत, अगर उसकी जिंदगी क्रमश: उस परमात्मा की तरफ बहने लगे, तो कुछ फिक्र न करिए। कोई मंसूर के प्रेमी आ गए हैं। उन पर नाराज मत हो जाइए। उन पर नाराज हो गए, तो आंसुरी प्रवृत्ति की। तरफ बहना शुरू हो जाता है। उन पर खुश हो जाइए। एक मौका आपको दिया नाराज होने का, अगर नहीं हों, तो यात्रा दूसरी तरफ शुरू हो जाती है।
जीवन प्रतिपल एक चुनाव है। परमात्मा की तरफ, हर जगह से हम खोज लें। अब ये सज्जन आ गए, उनमें भी हम शैतान को देख सकते हैं, उनमें भी हम पागल को देख सकते हैं; उनमें भी हम परमात्मा को देख सकते हैं। हम पर निर्भर करेगा, उन पर निर्भर नहीं है। वे पागल हैं कि नहीं हैं, यह उनकी बात है। लेकिन हम यह देख सकते हैं, उनकी इस वृत्ति में भी हमें एक मौका है, अगर हम उनमें भी उसकी ही अनुकंपा अनुभव करें। उन्होंने सिर्फ कहा, आकर पत्थर ही मार सकते थे। उन्होंने सिर्फ कहा, कुछ और तो किया नहीं। जैसे हम आदमी हैं, इनके साथ कुछ भी किया जाए, तो थोड़ा है।
जीवन में हर घड़ी चुनते रहें, जहां से उसकी स्तुति और उसका स्मरण हो सके, तो एक दिन भीतर वह सघन भाव उपस्थित हो जाता है भक्त का, जो कि द्वार है भगवान के अनुभव के लिए।
☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-3☘️☘️
गीता-दर्शन – भाग 4
दैवी या आंसुरी धारा
(अध्याय—9) प्रवचन—पाँचवाँ