बोधिवृक्ष और आधुनिक टैलीपैथी का विज्ञान, तीर्थ : परम की गुह्म यात्रा “ओशो”

 बोधिवृक्ष और आधुनिक टैलीपैथी का विज्ञान, तीर्थ : परम की गुह्म यात्रा “ओशो”

ओशो- अभी रूस और अमरीका दोनों के वैज्ञानिक इस बात में उत्सुक हैं कि किसी भी तरह बिना किसी माध्यम के विचार संक्रमण के, टेलीपैथी के सूत्र खोज लिए जाएं। क्योंकि जब से लूना खो गया है उसके रेडियो के बंद हो जाने से यह खतरा खड़ा हो गया है कि मशीन पर अंतरिक्ष में भरोसा नहीं किया जा सकता है। अगर रेडियो बंद हो गया तो हमारे यात्री सदा के लिए खो जाएंगे, फिर उनसे हम कभी संबंध ही न बना पाएंगे। हो सकता है, वह कोई ऐसी चीजें भी जान लें जो हमें बताना चाहें लेकिन हमसे कोई संबंध न हो पाएगा। तो आल्टरनेट सिस्टम की जरूरत है कि जब मशीन बंद हो जाए तो भी विचार का संक्रमण हो सके।इसलिए रूस और अमरीका दोनों के वैज्ञानिक टेलीपैथी के लिए भारी रूप से उत्सुक हैं। अमरीका ने एक छोटा सा कमीशन बनाया है जो तीन साल, चार साल सारी दुनिया में घूमा। उस कमीशन ने जो रिपोर्ट दी वह बहुत घबडानेवाली है, लेकिन वह सब रिचुअल मालूम होता है। क्योंकि उसने देखा कि ऐसी घटना घटती है, लेकिन कैसे घटती है यह वह करनेवाले भी नहीं बता सकते।

उसने लिखा है कि अमरीका में एक छोटा सा कबीला बड़ी हैरानी का काम करता है। हर गांव में एक छोटा—सा वृक्ष होता है एक खास जाति का, जिससे मैसेज भेजने का काम लिया जाता है—वृक्ष से। पति गांव गया हुआ है बाजार में सामान लेने, पत्नी को खयाल आ गया कि वह फलां सामान तो भूल ही गये, तो जाकर उस वृक्ष को कह देती है कि देखो,वहां फलां सामान जरूर ले आना। वह मैसेज डिलीवर हो जाता है। वह आदमी सांझ को लौटता है तो वह सामान ले आता है। कमीशन के लोगों ने देखा, वह तो घबरा देने जैसी बात थी।

हम फोन देखकर नहीं घबड़ाते। हम फोन पर बात करते नहीं घबड़ाते? एक आदिवासी देखकर घबरा जाता है कि क्या मामला है, आप किससे बात केर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं, क्योंकि हमें पूरी सिस्टम का खयाल है इसलिए हम नहीं घबड़ाते। वायरलेस से हम बात करते हैं, तो भी हम नहीं घबड़ाते क्योंकि सिस्टम का हमें पता है और वह परिचित है।

पर यह जानकर हैरान होते हैं कि इस वृक्ष से कैसे संवाद हो रहा है? उस कमीशन के लोगों ने दो—चार दिन सब तरह के प्रयोग करके देख लिए। उन स्त्रियों से पूछा, गांव के लोगों से पूछा। उन्होंने कहा, यह तो हमें पता नहीं, लेकिन ऐसा सदा होता है। यह वृक्ष साधारण नहीं है, यह वृक्ष बड़ी पूजा से स्थापित किया गया है। यह वृक्ष को हम कभी मरने नहीं देते,इसी वृक्ष की शाखा को लगाते चले जाते हैं, यही एक सनातन नियम है। इसको हमारे बाप—दादों ने और उनके बाप—दादों ने, सबने इसका उपयोग किया। यह सदा से ही काम दे रहा है,यह क्या होता होगा?

यह वैज्ञानिक की पकड़ के एकदम बाहर की बात है। और जो कर रहा है, उसको भी पता नहीं है। इस वृक्ष की प्राण ऊर्जा का टेलीपैथी के लिए उपयोग किया जा रहा है। वह कैसे किया गया शुरू, और यह वृक्ष कैसे राजी हुआ, कैसे इस वृक्ष ने काम करना शुरू कर दिया, और हजारों साल से कर रहा है काम, यह उस गांव के लोगों को कुछ पता ही नहीं है। वह’कुंजी’ तो खो गयी है, जिसने आविष्कार किया होगा। उसने किया होगा, पर वह काम ले रहे हैं उस वृक्ष से, उस वृक्ष को लगाए चले जा रहे हैं।

अब बुद्ध के बोधि—वृक्ष को बौद्ध नहीं मरने देते। यह इस वृक्ष की बात समझकर आपको खयाल में आ सकेगा कि उसका कुछ उपयोग है। जिस बोधि—वृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान हुआ, उसको मरने नहीं दिया गया। असली सूख गया, तो उसकी शाखा अशोक ने भेज दी थी लंका में, तो वहां वह वृक्ष था। अभी उसकी शाखा को फिर लाकर पुन: आरोपित कर दिया, लेकिन वही वृक्ष कंटीन्यूटी में रखा गया। इस बोध गया के तीर्थ का उपयोग है, वह इस बोधि—वृक्ष पर निर्भर है सब कुछ।

इस वृक्ष के नीचे बैठकर बुद्ध ने ज्ञान पाया। और जब बुद्ध जैसे व्यक्ति के ज्ञान की घटना घटती है तो जिस वृक्ष के नीचे बुद्ध बैठे थे वह वृक्ष बुद्ध के बुद्धत्व को पी गया हो तो बहुत हैरानी नहीं है! यह असाधारण घटना है —युद्ध का बुद्धत्व को प्राप्त होना, अलौकिक हो जाना है इस व्यक्ति का! उस वक्त एक कौंध बिजली पैदा हुई होगी! —अगर आकाश से बिजली चमकती है और वृक्ष सूख जाता है, तो कोई कारण नहीं है कि बुद्ध में चेतना की बिजली चमके, इतना तेज फैले और वृक्ष किन्हीं नए अर्थों में जीवत न हो जाए। वैसा कोई दूसरा वृक्ष नहीं है।

युद्ध के गुप्त संदेश थे तभी इस वृक्ष को कभी नष्ट नहीं होने दिया गया। और बुद्ध ने कहा था, मेरी पूजा मत करना,इस वृक्ष की पूजा से काम चल जाएगा। इसलिए पांच सौ साल तक बुद्ध की मूर्ति नहीं बनायी गयी। इस बोधि—वृक्ष की मूर्ति बनाकर पूजा चलती थी। पांच सौ साल बाद तक बुद्ध के जितने मंदिर थे वह बोधि—वृक्ष की ही पूजा करते रहे हैं। जो चित्र हैं, उनमें बुद्ध नहीं हैं बीच में, सिर्फ ऑरा है। बुद्ध का प्रकाश है, बोधि—वृक्ष है। असल में यह वृक्ष आत्मसात कर गया है, यह पी गया है उस घटना को, यह चार्ज्‍ड हो गया। इस वृक्ष का जो उपयोग जानते हैं, वे आज भी इस वृक्ष के द्वारा बुद्ध से संबंध स्थापित कर सकते हैं।

तो बोधगया नहीं है मूल्यवान, मूल्यवान वह बोधि—वृक्ष है। उस बोधि—वृक्ष के नीचे बरसों तक बुद्ध संक्रमण करते रहे। उनके पैर के पूरे निशान बनाकर रखे हैं। जब वह ध्यान करते—करते थक जाते तो उस वृक्ष के पास घूमने लगते, वह घंटों उस वृक्ष के पास घूमते रहते। बुद्ध किसी के साथ इतने ज्यादा नहीं रहे जितने उस वृक्ष के साथ रहे, उस वृक्ष से ज्यादा बुद्ध के साथ कोई नहीं रहा। और इतनी सरलता से कोई आदमी रह भी नहीं सकता जितनी सरलता से वह वृक्ष रहा। बुद्ध उसके नीचे सोये भी हैं, बुद्ध उसके नीचे उठे भी हैं,बैठे भी हैं, बुद्ध इसके आस—पास चले भी हैं। बुद्ध ने उससे बातें की होंगी, बुद्ध उससे बोले भी होंगे। उस वृक्ष की पूरी जीवन ऊर्जा बुद्ध से आविष्ठ है।

जब अशोक ने भेजा अपने बेटे महेन्द्र को लंका, तो उसके बेटे ने कहा, मैं भेंट क्या ले जाऊं? उन्होंने कहा, और तो कोई भेंट हो भी नहीं सकती इस जगत में, एक ही भेंट हमारे पास में है कि तुम इस बोधि—वृक्ष की एक शाखा ले जाओ। तो उस शाखा को लगाया, आरोपित किया और उस शाखा को भेज दिया। दुनिया में कभी किसी सम्राट ने किसी वृक्ष की शाखा किसी को भेंट नहीं दी होगी। यह कोई भेंट है? लेकिन सारा लंका आंदोलित हुआ उस शाखा की वजह से। और लोग समझते हैं, महेंद्र ने लंका को बौद्ध बनाया, वह गलत समझते हैं। उस शाखा ने बनाया, महेंद्र की कोई हैसियत न थी! महेन्द्र साधारण हैसियत का आदमी था।

अशोक की लड़की भी साथ में थी संघमित्रा, उन दोनों की उतनी बड़ी हैसियत न थी। लंका का कन्वर्शन इस बोधि—वृक्ष की शाखा के द्वारा किया गया कन्वर्शन है। ये बुद्ध के ही सीक्रेट संदेश थे कि लंका में इस वृक्ष की शाखा पहुंचा दी जाए। ठीक समय की प्रतीक्षा की जाए और ठीक व्यक्ति की। और जब ठीक व्यक्ति आ जाए तो इसको पहुंचा दिया गया। क्योंकि इसी से वापस किसी दिन हिंदुस्तान में फिर इस वृक्ष को लाना पड़ेगा। ये सारी की सारी अंतर्कथाएं हैं, जिसको कहना चाहिए गुप्त इतिहास है, जो इतिहास के पीछे चलता है। इनके लिए ठीक व्यक्तियों का उपयोग करना पड़ता है।

संघमित्रा और महेन्द्र दोनों बौद्ध भिक्षु थे, बुद्ध के जीवन में थे। हर किसी के साथ नहीं भेजी जा सकती थी वह शाखा। जो बुद्ध के पास जिया हो, जिसने जाना हो, और जो इस शाखा को वृक्ष की शाखा मानकर न ले जाए, जीवंत बुद्ध मानकर ले जाए, उसके ही हाथ में दी जा सकती थी। फिर लौटने की भी प्रतीक्षा करनी जरूरी है। उस वृक्ष को ठीक लोगों के हाथ से वापस आना चाहिए। ठीक लोगों के द्वारा वापस आना चाहिए।

इस इतिहास के पीछे जो इतिहास है वह बात करने जैसा है। असली इतिहास वही है, जहां घटनाओं के मूल स्रोत घटित होते हैं, जहां जड़ें होती हैं, फिर तो घटनाओं का एक जाल है, जो ऊपर चलता है। वह असली इतिहास नहीं है। जो अखबार में छपता है और किताब में लिखा जाता है, वह असली इतिहास नहीं है। कभी असली इतिहास पर हमारी दृष्टि हो जाए तो फिर इन सारी चीजों का राज समझ में आता है।

ओशो
मै कहता आंखन देखी-6