ओशो- जब हम कहते है विकास तो उससे सा भ्रम पैदा होता है किस भी दिशाओं में विकास हो गया होगा, इवोल्यूशन हो गया होगा। आदमी की जिंदगी इतनी बड़ी चीज है, अगर आप एकाध चीज में विकास कर लेते हैं तो आपको पता ही नहीं चलता कि आप किसी दूसरी चीज में पीछे छूट जाते हैं।
अगर आज विज्ञान पूरी तरह विकसित है, तो धर्म के मामले में हम बहुत पीछे छूट गए हैं। कभी धर्म विकसित होता है, तो विज्ञान के मामले में पीछे छूट जाते हैं। कभी ऐसा होता है कि एक आयाम में हम कुछ जान लेते हैं, तो दूसरे आयाम को भूल जाते हैं।
अट्ठारह सौ अस्सी में यूरोप में अलामीरा की गुफाएं मिलीं। उन गुफाओं में बीस हजार साल पुराने चित्र थे और रंग ऐसा कि जैसे कल सांझ को चित्रकार ने किया हो। डॉन मार्सिलानो, जिसने वह गुफाएं खोजी, उस पर सारे यूरोप में बदनामी हुई उसकी। लोगों ने यह शक किया कि अभी इसने पुतवाकर रंग तैयार करवा लिए हैं, अभी गुफा में रंग पोते गए हैं। और जो भी चित्रकार देखने गया उसी ने कहा कि यह मार्सिलानो की धोखाधड़ी है, इतने ताजे रंग पुराने तो हो ही नहीं सकते।
उन चित्रकारों का कहना भी ठीक ही था, क्योंकि वान गॉग के चित्र सौ साल पुराने नहीं हैं, लेकिन वे सब फीके पड़ गए हैं। और पिकासो ने अपनी जवानी में जो चित्र रंगे थे, उसके बूढ़े होने के साथ वे चित्र भी बूढ़े हो गए। आज सारी दुनिया के किसी भी कोने में, चित्रकार जिन रंगों का प्रयोग करते हैं, उनकी उम्र सौ साल से ज्यादा नहीं है। सौ साल में वे फीके हो ही जानेवाले है।लेकिन जब मार्सिलानो की खोज पूरी तरह सिद्ध हुई, और उन गुफाओं का निर्णायक रूप से निष्कर्ष निकल गया कि वे बीस हजार साल से पुरानी हैं, तो बड़ी मुश्किल हो गई। क्योंकि जिन लोगों ने वे रंग बनाए होंगे, रंग बनाने के संबंध में वे हम से बहुत विकसित रहे होंगे। हम आज चांद पर पहुंच सकते हैं, लेकिन सौ साल से ज्यादा चलनेवाला रंग बनाने में हम अभी समर्थ नहीं हैं। यह थोड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है। और बीस हजार साल पहले जिन लोगों ने वे रंग बनाए होंगे, वे कुछ कीमिया जानते थे, जिसका हमें आज बिलकुल पता नहीं है।
इजिप्ट की ममीज हैं, कोई दस हजार साल पुरानी! वह आदमी के शरीर हैं, वह जरा भी नहीं खराब हुए है, वह ऐसे ही रखे हैं, जैसे कल रखे गए हों। और आज तक भी राज नहीं खोला जा सका है कि किन रासायनिक द्रव्यों का उपयोग किया गया था जिससे कि लाशें इतनी सुरक्षित, दस हजार साल तक रह सकीं।
वैज्ञानिक कहते है, वह ठीक वैसी ही है, जैसे कल आदमी मरा हो। किसी तरह का डिटीरिओरेशन, किसी तरह का उनमें हास नहीं हुआ है। पर हम साफ नहीं कर पाए अभी तक, कि कौन से द्रव्यों का उपयोग हुआ है। इजिप्त के पिरामिडों पर जो पत्थर चढ़ाए गए हैं, अभी भी हमारे पास कोई क्रेन नहीं है जिनसे हम उन्हें चढ़ा सकें। आदमी के तो वश की बात ही नहीं है, लेकिन जिन लोगों ने वे पत्थर चढ़ाए थे उनके पास क्रेन रही होगी, इसकी संभावना कम मालूम होती है। तो जरूर उनके पास कोई और टेकनीक, कोई तरकीबें रही होंगी, जिनसे वह पत्थर चढ़ाए गए हैं और जिनका हमें कोई अंदाज नहीं है।
और जीवन के सत्य बहु—आयामी हैं। एक ही काम बहुत तरह से किया जा सकता है। और एक ही काम तक पहुंचने की बहुत सी टेकनीक और बहुत सी विधियां हो सकती है। और फिर जीवन इतना बड़ा है कि जब हम एक दिशा में लग जाते हैं तब हम दूसरी दिशाओं को भूल जाते है।
मूर्ति बहुत विकसित लोगों ने पैदा की थी, यह सोचने जैसा है। क्योंकि मूर्ति का संबंध है, वह जो काज्मिक फोर्स है, हमारे चारों तरफ, जो ब्रह्म शक्ति है, उससे संबंधित होने का सेतु है। जिन लोगों ने भी निर्मित विकसित। ही होगी, उन लोगों ने जीवन के परम रहस्य के प्रति सेतु बनाया था।
हम कहते हैं कि हमने बिजली खोज ली है। निश्चित ही हम उन कौमों से ज्यादा सभ्य हैं जो बिजली नहीं खोज सकीं। निश्चित ही हमने रेडियो वेब्ज खोज लिए हैं और हम क्षणों में एक खबर को दूसरे मुल्क में पहुंचा पाते हैं। निश्चित ही जो लोग सिर्फ अपनी आवाज पर निर्भर करते हैं और चिल्लाकर फर्लांग दो फर्लांग तक आवाज पहुंचा पाते हैं, उनसे हम ज्यादा विकसित हैं।
लेकिन जिन लोगों ने जीवन की परम सत्ता के साथ संबंध जोड़ने का सेतु खोज लिया था, उनके सामने हम बहुत बच्चे हैं। हमारी बिजली, और हमारा रेडियो और हमारे अन्य आविष्कार सब खिलौने हैं। जीवन के परम रहस्य से जुड्ने की जो कला है, उसकी खोज, किसी एक दिशा में जिन लोगों ने बहुत मेहनत की थी, उसका परिणाम थी।
मूर्ति का प्रयोजन है हमारी तरफ, मनुष्य की तरफ आकार हो उसमें, और उस आकार में से कहीं एक द्वार खुलता हो जो निराकार में ले जाता हो। जैसे मेरे घर की खिड़की है, घर की खिड़की तो आकारवाली ही होगी। जब घर ही आकारवाला है, तब खिड़की निराकार नहीं हो सकती। लेकिन खिडकी खोलकर जब आकाश में झांकने कोई जाए तो निराकार में प्रवेश हो जाता है। और अगर मैं किसी को कहूं कि मैं अपने घर की खिड़की को खोलकर निराकार के दर्शन कर लेता हूं और अगर उस आदमी ने कभी खिड़की से झांककर आकाश को न देखा हो तो वह कहेगा, कैसी पागलपन की बात है! इतनी छोटी—सी खिड़की से निराकार का दर्शन कैसे होता होगा? इतनी छोटी—सी खिड़की से जिसका दर्शन होता होगा वह ज्यादा से ज्यादा खिड़की के बराबर ही हो सकता है, उससे बड़ा कैसे होगा? उसकी बात तर्कयुक्त है। अगर उसने खिडकी से झांककर कभी आकाश नहीं देखा है तो उसको राजी करना कठिन होगा। हम उसे समझा न पायेंगे कि छोटी—सी खिडकी भी निराकार आकाश में खुल सकती है। खिड़की का कोई बंधन उस पर नहीं लगता, जिस पर वह खुलती है।
मूर्ति का कोई बंधन अमूर्ति के ऊपर नहीं है, मूर्ति तो सिर्फ द्वार बन जाती है अमूर्त के लिए। इसलिए जिन लोगों ने भी समझा कि मूर्ति, अमूर्त के लिए बाधा है उन्होंने दुनिया में बड़ी नासमझी पैदा करवाई। और जिन्होंने यह सोचा कि हम खिड़की को तोड़कर आकाश को तोड़ देंगे, वह तो फिर निपट ही पागल हैं। मूर्ति को तोड़कर हम अमूर्त को तोड़ देंगे, तो फिर उनके पागलपन का कोई हिसाब ही नहीं! लेकिन मूर्ति को तोड्ने का खयाल उठेगा, अगर पूजा की कला और कीमिया का पता न हो।
दूसरी बात, पूजा कुछ ऐसी चीज है, सब्जेक्टिव, आंतरिक, निजी कि उसकी कोई अभिव्यक्ति और कोई प्रदर्शन नहीं हो सकता। जो भी निजी है इस जगत में, और आंतरिक है, उसका कोई प्रदर्शन संभव नहीं है। मेरे हृदय को काटकर ,.,.. जा सकता है तो प्रेम उसमें नहीं मिलेगा, क्रोध भी नहीं मिलेगा, घृणा भी नहीं मिलेगी क्षमा भी नहीं ”करुणा भी नहीं मिलेगी। फेफड़ा मिलेगा, सिर्फ फुफुस मिलेगा, जो हवा को पंप करने का काम करता है।
और अगर आपरेशन की टेबल पर रखकर मेरे हृदय की सब जांच पड़ताल करके डाक्टर यह सर्टिफिकेट दे दें कि इस आदमी ने कभी प्रेम का अनुभव नहीं किया, घृणा का अनुभव नहीं किया, क्योंकि हमने आपरेशन की टेबल पर सब जांच पड़ताल कर ली है, सिवाय हवा को फेंकने के पंप के और कुछ भी नहीं है भीतर, तो क्या मेरे पास कोई उपाय होगा कि मैं सिद्ध कर सकूं कि मैंने प्रेम किया? या मेरी बात यह टेबल के आस—पास खड़े हुए डाक्टर मानने को राजी होंगे? कठिन है मामला!
डाक्टर इतना ही कह सकते हैं कि आपको भ्रम पैदा हुआ होगा। मैं उनसे यह जरूर पूछ सकता हूं कि आपको कभी प्रेम और घृणा का अनुभव हुआ है? अगर वे तर्कयुक्त है तो वे कहेंगे कि हमें भी इस तरह के भ्रम हुए है, श्रम, इल्यूजंस हुए हैं। बाकी टेबल पर जो रखा है वह वास्तविक तथ्य है। यहां सिर्फ हवा को फेंकने का फुफुस है भीतर, हृदय जैसी कोई भी चीज नहीं है।
आंख का आपरेशन करके सारा उपाय कर लिया जाए तो भी इसका कोई पता नहीं चलता कि भीतर सपने देखे गए होंगे। अगर हम एक आदमी की आंख का पूरा यंत्र खोलकर टेबल पर रख लें, तो भी हमें अनंतकाल तक खोज करने पर भी इसका पता नहीं चलेगा कि इस आंख ने रात को बंद हालत में कोई सपने भी देखे होंगे। लेकिन हम सबने सपने देखे हैं। उन सपनों का अस्तित्व कहां है? या तो हमने झूठे सपने देखे, लेकिन झूठे सपने कहने का क्या मतलब होता है? झूठे हैं, तो भी देखे तो हैं ही। वह घटे तो हैं ही, कितने ही असत्य रहे हों, तो भी वह घटना तो हमारे भीतर हुई है। और कितना ही झूठा सपना रहा हो, अगर जोर से घबराहट पैदा हो गई है, और जागकर पाया है तो हृदय धड़कता हुआ पाया है। और कितना ही झूठा सपना द,—रर हो, अगर उसमें रोये हैं और आंख खोलकर देखी है तो आंख में आंसू पाए हैं। कुछ भीतर घटा तो है ही।” आंख के कण—कण को भी तोड़कर देख लेने पर इसका कोई पता नहीं चलता कि भीतर सपने जैसी कोई घटना घटती है। सब सब्जेक्टिव है, आंतरिक है, कोई बाह्य प्रदर्शन संभव नहीं है।
मूर्ति तो दिखायी पडती है, उसका बाह्य प्रदर्शन हो सकता है, वह आंख की तरह है, वह फेफ्ले की तरह है। पूजा दिखाई नहीं पड़ सकती वह प्रेम की तरह है, वह भीतर देखे गए स्वप्न की तरह है। इसलिए जब आप मंदिर के पास से जाते है तो आपको मूर्ति दिखाई पडती है, पूजा तो कभी दिखाई नहीं पडती। इसलिए अगर मीरा को आपने किसी मूर्ति के आगे नाचते देखा है तो सोचा होगा, पागल है। स्वभावत:, क्योंकि पूजा तो दिखाई नहीं पड़ती है उसकी, इसलिए किसी श्रम में है वह, पत्थर के सामने नाचती है, पागल है!
रामकृष्ण को पहली दफा जब दक्षिणेश्वर के मंदिर में पुजारी की तरह रखा गया तो दो—चार—आठ दिन में ही बड़ी—बड़ी चर्चाएं कलकत्ते में फैलनी शुरू हो गईं। कमेटी के पास लोग गए, ट्रस्टियों के पास लोग गए और कहा कि इस आदमी को अलग कर दो। क्योंकि हमने बड़ी गलत बातें सुनी है। हमने सुना है कि वह फूल को पहले सूंघ लेता है, फिर मूर्ति को चढ़ाता है। और हमने यह भी सुना है कि प्रसाद को पहले चख लेता है, और फिर प्रसाद को चढ़ाता है। यह तो पूजा भ्रष्ट हो गई!
रामकृष्ण को कमेटी ने बुलाया और कहा कि यह क्या कर रहे हैं आप? हमने सुना है कि फूल आप पहले सूंघ लेते हैं, फिर परमात्मा को चढ़ाते हैं, और भोग आप पहले खुद लगा लेते हैं, फिर परमात्मा को चढाते है? रामकृष्ण ने कहा, ही, क्योंकि मैंने मेरी मां को देखा है, वह खाना बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी फिर मुझे देती थी। क्योंकि वह कहती थी कि पता नहीं, तुझे देने योग्य बना भी कि नहीं! तो मैं बिना चखे नहीं चढ़ा सकूंगा, और फूल जब तक मैं न सूंघ लूं तो मैं कैसे चढ़ाऊं? पता नहीं, सुगंधित है भी या नहीं।
पर उन्होंने कहा, तब तो सारी पूजा का विधान टूट जाएगा? रामकृष्ण ने कहा, कैसी बात करते हैं, पूजा का कोई विधान होता है, प्रेम का कोई विधान होता है? कोई कास्टीट्यूशन होता है? कोई विधि होती है? जहां विधि होती है पूजा मर जाती है। जहां विधान हो जाता है, वहीं प्रेम मर जाता है। यह तो आंतरिक उदभाव है, अत्यंत निजी, अत्यंत वैयक्तिक! और फिर भी उसमें एक यूनिवर्सल, एक सार्वभौम तथ्य है जो पहचाना जा सकता है।
इस देश में हजारों साल तक हमने मूर्तियां बनायीं और विसर्जित कीं। अब भी हम मूर्तियां बनाते और विसर्जित करते है। कई दफा तो मन को बडी हैरानी होती है। न मालूम कितने लोगो ने मुझे आकर कहा होगा इतनी सुंदर काली की प्रतिमा बनाते हैं और फिर इसको पानी में डाल आते हैं। गणेश को बिठाते है, बनाते हैं सजाते हैं, इतना प्रेम प्रगट करते है और एक दिन उठाकर तालाब में डुबा देते हैं। पागलपन ही हुआ न निपट? पर इस विसर्जन के पीछे एक बड़ा खयाल है।
असल में पूजा का रहस्य ही यह है कि बनाओ और विसर्जित करो। इधर बनाओ मूर्ति आकार में, और मिटाओ निराकार में। यह तो प्रतीक है सिर्फ। काली को बनाया है, पूजा है, फिर नदी में डाल आते हैं, आज हमें तकलीफ होती है डाल आने में। क्योंकि हमें पता ही नहीं है इस बात का कि बनाकर अगर हमने पूजा की होती, तो हमने एक और गहरे अर्थों में पहले ही विसर्जन कर दिया होता। लेकिन वह तो हमने किया नहीं। मूर्ति बनाकर रखी, सजायी, बहुत सुंदर बनाई, फिर जब पीडा होती है उसको डुबाने जब जाते हैं; क्योंकि बीच में जो असली काम था वह तो हुआ नहीं।
नहीं, अगर बीच में पूजा की घटना घट जाती तो मूर्ति बनी रहती और हमारे हृदय ने उसे विसर्जित कर दिया होता—परमात्मा में! और तब, जब हम उसे डुबाने जाते नदी में तो वह चली हुई कारतूस की तरह होती उसके भीतर कुछ न होता। काम तो उसका हो चुका होता। लेकिन आज जब आप मूर्ति को डुबाने जाते हैं तो वह चली हुई कारतूस नहीं होती है, भरी हुई कारतूस होती है। कुछ नहीं चला। सिर्फ भरकर रख ली थी कारतूस, और डुबाने जा रहे हैं, तो पीड़ा होनी स्वाभाविक है।
जो लोग उसको डुबा आए थे इक्कीस दिन के बाद उन्होंने इक्कीस दिन में कारतूस चला ली थी। वह इक्कीस दिन में उसको विसर्जित कर चुके थे। पूजा है विसर्जन। मूर्ति का छोर तो हमारी तरफ है, जहां से हम यात्रा शुरू करेंगे और पूजा वह विधि है, जहां से हम आगे बढ़ेंगे। मूर्ति पीछे छूट जाएगी फिर शेष पूजा ही रह जाएगी। मूर्ति पर जो रुक गया उसने पूजा नहीं जानी; पूजा पर जो चला गया, उसने मूर्ति को पहचाना। इस मूर्ति के पीछे, इस मूर्ति के प्रयोग में, इस पूजा में क्या मूल आधार सूत्र है?
एक, जिस परम सत्य की आप खोज में चले हैं, या परम शक्ति की खोज में चले हैं, उसमें छलांग लगाने के लिए कोई जंपिंग बोर्ड, कोई जगह जहां से आप छलांग लगाएंगे! उस परम के लिए कोई जगह की जरूरत नहीं है, पर आपको तो खड़े होने के लिए जगह की जरूरत पड़ेगी, जहां से आप छलांग लगाएंगे। माना कि सागर में कूदने चले है, सागर है अनंत, पर आप तो तट के किसी किनारे पर खड़े होकर ही छलांग लेंगे न? छलांग लेने तक तो तट पर ही होंगे न! छलांग लेते ही तट के बाहर हो जाएंगे। लेकिन पीछे लौटकर तट को इतना धन्यवाद तो देंगे न, कि तुझसे ही हमने अनंत में छलांग ली थी। उल्टा दीखता है।
साकार से निराकार में छलांग हो सकती है? अगर तर्क में सोचने जाएंगे, तो गलत है बात। साकार से निराकार में छलांग कैसे होगी? साकार तो और साकार में ही ले जाएगा।
हम कहां है? हम मूर्त में जी रहे हैं। हमारी सारी अनुभव की संपदा मूर्त की संपदा है। हमने कुछ भी ऐसा नहीं जाना जो .मूर्त न हो, आकारवाला न हो। हमने सब आकार में जाना है। प्रेम किया है तो आकार को, और घृणा की है तो आकार को; आसक्त हुए है तो आकार में और अनासक्ति साधी है तो आकार में। मित्र बने हैं तो आकार में और शत्रु बनाए है तो आकार में। हमने जो भी किया है वह आकार है। मूर्ति इस सत्य को स्वीकार करती है। और इसलिए अगर हमें निराकार की यात्रा पर निकलना है तो हमें निराकार के लिए भी आकार देना पड़ेगा। निश्चित ही ये आकार अपनी—अपनी प्रतिमा के आकार होंगे। किसी ने महावीर में निराकार को अनुभव किया है, किसी ने कृष्ण में निराकार को अनुभव किया है, किसी ने जीसस में निराकार के दर्शन किए हैं। जिसने जीसस में निराकार के दर्शन किए हैं, जिसने जीसस की आंखों में झांका, और वह दरवाजा मिल गया उसे, जिससे खुला आकाश दिखाई पड़ता है।
जिसने जीसस का हाथ पकड़ा, थोड़ी देर में वह हाथ मिट गया और अनंत का हाथ, हाथ में आ गया। जिसने जीसस की वाणी सुनी, और शब्द नहीं शब्द के जो पार है, उसकी प्रतिध्वनि हृदय में गज गयी, वह अगर जीसस की मूर्ति बनाकर पूजा में लग सके तो निराकार में छलांग के लिए उसे इससे ज्यादा आसान कोई और बात न हो सकेगी।
किसी को कृष्ण में दिखाई पड़ा है, किसी को बुद्ध में, किसी को महावीर में। जहां से भी, और सबसे पहले हमें ‘किसी’ में ही दिखाई पड़ेगा, यह स्मरण रखें। सबसे पहले हमें सीधा, शुद्ध निराकार दिखाई नहीं पड़ जाएगा। शुद्ध निराकार को देखने की हमारी क्षमता और पात्रता नहीं है। निराकार भी बंधकर ही आएगा कहीं तभी हमें दिखाई पड़ेगा। अवतार का यही अर्थ है, निराकार का बंधा हुआ रूप, निराकार की सीमा। उल्टा लगता है, पर यही अर्थ है अवतार का। एक झरोखा, जहां से बड़ा आकाश दिखाई पड़ जाता है—एक झलक! निराकार से सीधी मुलाकात नहीं होगी। पहले तो कहीं आकार में ही उसकी प्रतीति होगी। फिर जिस आकार में उसकी प्रतीति हो जाए, उस आकार से बार—बार उसी प्रतीति में उतरना आसान हो जाएगा।
मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–08)
मूर्ति—पूजा : से अमूर्त की ओर