अहंकार का फैलाव ही राजनीति है, और अहंकार का विसर्जन ही धर्म है “ओशो”

 अहंकार का फैलाव ही राजनीति है, और अहंकार का विसर्जन ही धर्म है “ओशो”

ओशो- मैं जब छोटा था तो मेरे गांव में बहुत मदारी आते थे। फिर पता नहीं मदारी कहां चले गए! फिर मैं पूछने लगा कि मदारियों का क्या हुआ? मेरे गांव के बीच में ही बाजार है। उस बाजार में एक ही काम होता था: सुबह-शाम डमरू बज जाता। मदारी आते ही रहते, भीड़ इकट्ठी होती रहती। वही बकवास–कि जमूरे, नाचेगा? और जमूरा कहता–नहीं। और मदारी कहता–लड्डू खिलाएंगे, नाचेगा? वह कहता–नहीं।
बर्फी खिलाएंगे, नाचेगा?
वह कहता–नहीं!

ऐसा मदारी कहता ही चला जाता। आखिर में वह उसको राजी कर लेता कि नाचेगा। बस इसी बीच डमरू बजता रहता, और जमूरे से पूछताछ चलती रहती और भीड़ इकट्ठी होती रहती। उस भीड़ में मैंने पढ़े-लिखे लोग देखे, दुकानदार देखे, डाक्टर देखे, वैद्य देखे, पंडित देखे, पुरोहित देखे। बच्चे इकट्ठे होते थे, यह तो ठीक था; मैंने बड़ों को भी इकट्ठे देखा।

फिर धीरे-धीरे मदारी नदारद हो गए। उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद मदारियों का पता ही नहीं। सब बंदर, सब मदारी, सब डमरू दिल्ली चले गए। आते हैं पांच साल में, जब चुनाव का वक्त आता है, तब वे डमरू बजाते हैं–कि जमूरे, नाचेगा? जमूरा कहता है कि नहीं। नाचने का मतलब–वोट देगा? कि जमूरे, वोट देगा? जमूरा कहता है–नहीं। कि लड्डू खिलाएंगे, वोट देगा? नहीं। नगद रुपये लेगा। नगद नोट देख कर लेगा कि असली है कि नकली।

–इसी तरह बंदरों का नचाना और डमरू का बजाना! और सब मदारी दिल्ली में इकट्ठे हो गए हैं। इसलिए तो आजकल जगह-जगह मदारी नहीं दिखाई पड़ते। फिर पांच साल के लिए सब मदारी नदारद हो जाते हैं।

प्रेम सदा से चुप है। अहंकार खूब ढोल बजाता है, डुंडी पीटता है, बड़ा शोरगुल करता है। भीड़ जो इकट्ठी करनी है। तुम देखते हो, कोई मदारी खड़ा हो जाए बाजार में आकर। इधर डमरू बजाया उसने, इधर बंदर नचाया उसने, कि बस लोग आने लगे। दिशाओं-दिशाओं से लोग इकट्ठे होने लगते हैं। कोई हो मदारी, कोई हो बंदर, कोई डमरू बजाए, लोग इकट्ठे होने लगते हैं। शोरगुल भर करो, उछल-कूद भर मचाओ…।राजनीति इसी तरह का शोरगुल है; अहंकार की बड़ी राजनीति है। असल में, अहंकार का फैलाव ही राजनीति है। और अहंकार का विसर्जन ही धर्म है।

ओशो, आपुई गई हिराय–प्रवचन-09