अगर आप कमजोर हैं, संकल्पहीन हैं, तो कोई प्रेत धक्का देकर आपके भीतर प्रवेश कर सकता है, न तो किसी दुष्टता के कारण, न उसको सताने के कारण “ओशो”

 अगर आप कमजोर हैं, संकल्पहीन हैं, तो कोई प्रेत धक्का देकर आपके भीतर प्रवेश कर सकता है, न तो किसी दुष्टता के कारण, न उसको सताने के कारण “ओशो”

ओशो- जब भी कभी कोई आदमी इतना कमजोर होता है कि उसकी आत्मा अपने शरीर में सिकुड़ जाती है, तब कोई प्रेत उसमें प्रवेश कर जाता है; न तो किसी दुष्टता के कारण, न उसको सताने के कारण, बल्कि उसके शरीर के द्वारा अपनी वासना को तृप्त करने के लिए।अगर आप कमजोर हैं, संकल्पहीन हैं, तो कोई प्रेत धक्का देकर आपके भीतर प्रवेश कर सकता है। उसको जन्म नहीं मिल रहा है, और वासना उसके पास पूरी है। वह किसी स्त्री को आपके हाथ से छू लेगा। वह किसी भोजन को आपकी जीभ से चख लेगा। वह किसी रूप को आपकी आंख से देख लेगा। वह किसी संगीत को आपके कान से सुन लेगा। इसके लिए प्रेत प्रवेश करता है, किसी को सताने का कोई सवाल नहीं है। आप सताए जाते हैं, वह गौण है, वह बाइ-प्रॉडक्ट है; वह प्रयोजन नहीं है किसी प्रेत का आपको सताने का।

लेकिन निश्चित ही, जब कोई दो आत्माएं एक शरीर में घुस जाएं, तो पीड़ा और परेशानी होगी। वह परेशानी वैसी ही है, जैसे कोई मेहमान घर में आ जाता है और फिर टिक जाता है, और जाने का नाम ही नहीं लेता! बस वह वैसी ही परेशानी है। और फिर वह मेहमान फैलाव करता जाए, और घर का मालिक सिकुड़ता जाए एक कोने में, और धीरे-धीरे ऐसा लगने लगे, कि यही तय न रहे कि कौन मेहमान है और कौन घर का मालिक है! और मेहमान, अकड़ बढ़ती जाए उसकी, क्योंकि मालिक उसकी सेवा करे मेहमान समझ कर, अतिथि देवता है! उसकी सेवा करे! धीरे-धीरे मेहमान को भ्रम होने लगे कि मैं मालिक हूं। और एक दिन वह अपने मेजबान को कह दे कि क्षमा करो, अब जाओ भी! बहुत दिन हो गए! ठीक वैसी ही स्थिति पीड़ा की पैदा हो जाती है।

मन शरीर की मांग करता है–तत्काल, मरते ही। इसलिए दूसरा जन्म हो जाता है। आत्मा मन से जुड़ी है, मन से शरीर जुड़ा है।

दो तरह की साधनाएं हैं। एक तो साधना है कि शरीर को मन से तोड़ो; जिसको अक्सर हम तपश्चर्या कहते हैं। वह साधना है, शरीर को मन से तोड़ो। वह तपश्चर्या है। लंबी यात्रा है, और बहुत कठिन; और परिणाम संदिग्ध हैं।

दूसरी साधना है, मन को चेतना से तोड़ो। जिसको हम वेदांत कहते हैं; ज्ञान कहते हैं। अगर नाम ठीक देने हों तो नाम ऐसे दे सकते हैं, शरीर से मन को तोड़ो–इसका नाम योग। और मन को आत्मा से तोड़ो–इसका नाम सांख्य। बस ये दो निष्ठाएं हैं।

सांख्य का अर्थ है, मात्र ज्ञान पर्याप्त है, और कुछ करना नहीं है। और योग का अर्थ है, बहुत कुछ करना पड़ेगा, तभी कुछ हो सकेगा।

यह सूत्र सांख्य का है। यह सूत्र शान का है। यह कहता है अपनी आत्मा में ही सब वस्तुओं का आभास केवल आरोपित है, ऐसा जान लेने से स्वयं ही पूर्ण अद्वैत, परम ब्रह्म व्यक्ति बन जाता है। कुछ और करना नहीं है। ‘एक आत्मा एक वस्तु में यह जगतरूप जो विकल्प जान पड़ता है, वह लगभग झूठा है।

                       ओशो; अध्यात्म उपनिषद–प्रवचन–07