ओशो- मैंने सुना, एक आदमी बड़ा क्रोधी था। मगर सोचता था, पत्नी क्रोध दिला देती है। ग्राहक क्रोध दिला देते हैं। बच्चे क्रोध दिला देते हैं, पड़ोसी क्रोध दिला देते हैं। छोड़ दिया संसार–जो सामान्य साधु की प्रक्रिया है; सच्चे साधु की नहीं–छोड़ दिया संसार, चला गया जंगल में, बैठ गया वृक्ष के नीचे, सोचा अब कोई झंझट नहीं उठेगी। एक कौवा आया और उसने बीट कर दी! उठा लिया पत्थर उसने, दौड़ने लगा कौवे के पीछे कि तूने समझा क्या है? बकने लगा गालियां। क्रोध से लाल हो गया चेहरा उसका। और तब उसे याद आया, यह मैं क्या कर रहा हूं?क्रोध का सूत्र भीतर है। कोई भी निमित्त बन जाएगा। कोई भी कारण बन जाएगा।
लोग मुर्दा चीजों तक पर क्रोध करते हैं। तुमने भी कभी देखा, फाउंटेन पेन लिखते-लिखते स्याही नहीं चलती, पटक दिया! जरा अक्ल है कुछ? क्या कर रहे हो कभी सोचा? नाराज हो गए। फाउंटेन पेन कुछ जानकर तुम्हें सता नहीं रहा था। तुम्हारा ही फाउंटेन पेन है! लेकिन क्रोधी आदमी तो किसी भी चीज पर क्रोध कर लेता है। दरवाजा ऐसे लगाता है जैसे दरवाजे में कोई प्राण हैं! जूता ऐसा फेंक देता है जैसे जूते में कुछ प्राण हों। चीजों से भी क्रोध हो जाता है। छोटे-छोटे बच्चे ही नहीं, बड़े-बड़े बूढ़े भी। छोटे बच्चे को चलने में टेबल लग गई जोर से, नाराज हो जाता है, एक घूंसा मारता है टेबल को। यह छोटे बच्चे पर तुम हंसते हो, लेकिन तुम बड़े हो पाए हो? तुम में प्रौढ़ता आई है। भागकर क्या करोगे, जागो! युक्ति सीखो! यह रही युक्ति-
ऐसा इस छोटी-सी घटना से जो समझदार हैं समझ लेते हैं, जगत में ही रह जाते हैं। जगत ही तो है। जंगल में भी जगत है। हिमालय पर भी जगत है। जगत ही है, जहां भी हो जगत है। लेकिन इसमें इस ढंग से रहा जा सकता है कि देह ही यहां हो, प्राण परमात्मा में हों। प्राणों का परमात्मा में होने का नाम प्रार्थना है।
देह तो संसार की है और संसार में ही होगी। तुम बाजार में मरोगे तो भी मिट्टी में गिरेगी देह और मिट्टी में मिलेगी, और तुम हिमालय पर मरोगे तो भी मिट्टी में गिरेगी देह और मिट्टी में मिलेगी। देह तो मिट्टी है, सो कहीं भी गिरेगी मिट्टी में गिरेगी और मिट्टी में मिलेगी। सवाल तुम्हारे भीतर उसको पहचान लेने का है जो मिट्टी नहीं है, और उसका संबंध जोड़ लेने का है जो अमृत है। तुम्हारे भीतर अमृत की बूंद है। परमात्मा अमृत का सागर है, यह बूंद सागर की याद से भर जाए, बस क्रांति घट गई! फिर तुम्हारे जीवन में दुख नहीं। फिर तुम्हारे जीवन में संताप नहीं, चिंता नहीं, क्योंकि फिर तुम रहे ही नहीं अलग।
दुख, चिंता, संताप अलग होने की उप-उत्पत्तियां हैं। तुमने अपने को अलग समझा है परमात्मा से, इसलिए चिंता है, इसलिए परेशानी है, इसलिए उलझन है। जैसे ही तुमने जाना मैं उससे जुड़ा हूं, सब चिंता गई! फिर चिंता क्या है? परमात्मा से जुड़े हो तो परमात्मा चिंता कर रहा है, तुम्हें चिंता की क्या जरूरत है? जैसे छोटे बच्चे ने अपना हाथ बाप के हाथ में दे दिया। अब छोटे बच्चे को कोई चिंता नहीं है। हो सकता है कि बाप-बेटे दोनों जंगल में भटक गए हों, सिंह दहाड़ रहा हो, मगर छोटा बच्चा अब जरा भी चिंतित नहीं है, बाप के हाथ में हाथ है! बाप चाहे चिंतित हो, परेशान हो कि अब क्या करना, जान खतरे में है! मगर छोटा बच्चा मस्त है! उड़ती तितलियों को पकड़ने की कोशिश कर रहा है, राह के किनारे फूलों को तोड़ रहा है, रंगीन पत्थरों को बीन रहा है–उसे कोई चिंता नहीं है। हां, जरा पिता छूट जाए, खो जाए, देखेगा चारों तरफ, पिता को नहीं पाएगा–अभी कोई दुख नहीं टूट पड़ा है उस पर–लेकिन पिता को न पाते ही भयंकर चिंता और भय पकड़ लेगा। ऐसी ही तुम्हारी दशा है।
तुमने हाथ छोड़ दिया है उसका; जिसके हाथ में हाथ हो तो कोई चिंता नहीं होती, मनुष्य निर्भार जीता है। उस निर्भारता का नाम ही साधुता है।