ओशो- बौद्ध कथा है, एक बौद्ध भिक्षु गांव से गुजरता है। एक वेश्या ने देखा; मोहित हो गई। संन्यासी और वेश्या दो छोर हैं विपरीत, और विपरीत छोरों में बड़ा आकर्षण होता है। वेश्या को साधारण सांसारिक व्यक्ति बहुत आकर्षित नहीं करता; क्योंकि वह तो उसके पैर दबाता रहता है, वह तो सदा दरवाजे पर खड़ा रहता है कि कब बुला लो। वेश्या को अगर आकर्षण मालूम होता है तो संन्यासी में, जो कि ऐसे चलता है रास्ते पर जैसे उसने उसे देखा ही नहीं। जहां उसका सौंदर्य ठुकरा दिया जाता है, जहां उसके सौंदर्य की उपेक्षा होती है, वहीं प्रबल आकर्षण होता है, वहीं पुकार उठती है–चुनौती! वेश्या बड़ी सुंदरी थी। और उसका बड़ा सम्मान था, बड़ा आदर था। क्योंकि सम्राट भी उसके द्वार पर आते थे। वह नगरवधू थी। आम्रपाली का तुमने नाम सुना, वैसी ही नगरवधू वह भी थी।भिक्षु वहां से गुजर गया। वह द्वार पर खड़ी थी। भिक्षु की आंख भी न उठी; वह कहीं और लीन था, किसी और आयाम में था, किसी और जगत में था। वह भागी, भिक्षु को रोका। रोक लिया तो भिक्षु रुक गया, लेकिन उसके चेहरे पर कोई हवा का झोंका भी न आया, आंख में कोई वासना की दीप्ति न आई। वह वैसे ही खड़ा रहा। उस वेश्या ने कहा, क्या मेरा निमंत्रण स्वीकार करोगे कि एक रात मेरे घर रुक जाओ? उस भिक्षु ने कहा, आऊंगा जरूर, लेकिन तब जब जरूरत होगी। वेश्या तो कुछ समझी नहीं, वह समझी कि शायद भिक्षु को अभी जरूरत नहीं है। भिक्षु कुछ और ही बात कह रहा था। और ठीक ही है, भिक्षु और वेश्या की भाषा इतनी अलग कि समझ मुश्किल। दुखी, पराजित, क्योंकि यह पहला पुरुष था जिसने निमंत्रण ठुकराया था, वह लौट गई। लेकिन जीवन भर यह याद कसकती रही, घाव की तरह पीड़ा बनी रही।
उम्र ढल गई। कितनी देर लगती है उम्र के ढलने में? सूरज जब उग आता है तो डूबने में देर कितनी? जवानी आ जाती है तो कितनी देर रुकेगी? वह बुढ़ापे का पहला चरण है। बुढ़ापे ने द्वार पर दस्तक दे दी जवानी के साथ ही। जल्दी ही शरीर चुक गया; वह स्त्री कोढ़ग्रस्त हो गई। उसका सारा शरीर भयानक रोग से भर गया। उसके शरीर से बदबू आने लगी। जिन्होंने उसके द्वार पर नाक रगड़ी थी, जो उसके द्वार पर खड़े प्रतीक्षा करते थे क्यू लगा कर, उन्होंने ही उसे निकाल गांव के बाहर फेंक दिया। दुर्गंध से भरी स्त्री की कौन फिकर करता है? सौंदर्य भयानक कुरूपता में बदल गया। जिस शरीर में स्वर्ण काया मालूम होती थी, वह काया देखने योग्य न रही, वीभत्स हो गई। आंख पड़ जाए तो दो-चार दिन ग्लानि होती रहे, वमन की इच्छा हो। गांव के बाहर फेंकने के सिवाय कोई उपाय न रहा। अमावस की रात; वह प्यासी गांव के बाहर मर रही है। वह पानी के लिए पुकारती है। किसी का हाथ बढ़ता है अंधेरे में और उसे पानी पिलाता है। और वह पूछती है, तुम कौन हो?
बीस साल पहले की बात, उस भिक्षु ने कहा, मैं वही भिक्षु हूं। मैंने कहा था, जब जरूरत होगी तब मैं आ जाऊंगा। और मुझे पता था कि यह जरूरत जल्दी ही आएगी। क्योंकि कितने दिन तक शरीर को भोगा जा सकता है? और कितने दिन तक शरीर को बेचा जा सकता है? आज तुझे जरूरत है, मैं हाजिर हूं।
आज वेश्या को समझ में आया कि जरूरत का मतलब भिक्षु की जरूरत न थी। भिक्षु तो वही है जिसकी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन इस क्षण में ही, उस भिक्षु ने कहा, अब तू पहचान सकेगी कि तुझे कौन प्रेम करता है। वे जो तेरे द्वार पर इकट्ठे होते रहे थे उनका तुझसे कोई भी प्रयोजन न था; वे अपने को ही प्रेम करते थे। तुझे भोगते थे पदार्थ की तरह, वस्तु की तरह। उन्होंने तेरी आत्मा को कभी कोई सम्मान न दिया था। और प्रेम तो तभी पैदा होता है जब तुम किसी की आत्मा को सम्मान देते हो।
लेकिन वैसा प्रेम तो पैदा कैसे होगा? तुमने अभी अपनी ही आत्मा को सम्मान नहीं दिया तो तुम दूसरे की आत्मा को तो पहचानोगे कैसे? सम्मान कैसे दोगे? तो प्रेम तो इस जगत में कभी-कभी घटता है जब दो आत्माएं एक-दूसरे को पहचानती हैं। यहां तो अपनी ही आत्मा को पहचानना इतना दूभर है, इतना मुश्किल है, कि कठिन है यह संयोग कि दो आत्माएं एक-दूसरे को पहचान लें।
मनुष्य जान ही नहीं पाता सफलता में कि कभी जरूरत भी पड़ेगी। जब सब ठीक चल रहा होता है, सब तार-धुन बंधी होती है, जीवन की सीढ़ियों पर तुम रोज आगे बढ़ते जाते हो, तब तुम्हें खयाल भी नहीं होता कि ह्रास भी होता है जीवन में। विकास ही नहीं, ह्रास भी। इवोल्यूशन ही नहीं होती दुनिया में, इनवोल्यूशन भी होती है। और तभी तो वर्तुल पूरा होता है। बढ़ते जाते हो, बढ़ते जाते हो। सदा नहीं बढ़ते जाओगे। बढ़ने में से ही घटना शुरू हो जाता है। एक दिन अचानक तुम पाते हो कि घटना हो गया शुरू। वहीं पहुंच जाते हो जहां से शुरू हुए थे। शून्य से शून्य तक पहुंच जाना है। जो व्यक्ति इसको पहचान लेगा वह आक्रांत होना पसंद करेगा, आक्रमण करना नहीं। क्योंकि शून्य होना नियति है।