एक शिक्षक राष्ट्रपति हो जाए तो इसमें शिक्षक का सम्मान क्या है? हां, एक राष्ट्रपति अपना पद छोड़ शिक्षक हो तब शायद शिक्षक के लिए सम्मान की बात हो भी सकती है “ओशो”

ओशो- एक अध्यापक राष्ट्रपति होने से बड़ा नहीं हो जाता है। जीवन एक सहयोग है। उसमें सबका अपना-अपना स्थान है और सबकी आवश्यकता है और अनिवार्यता है। कार्यों के साथ पद और प्रतिष्ठा जोड़ने से सारी दुनिया जिस महत्वाकांक्षा की विक्षिप्तता में पड़ गई है, क्या यह आपको दिखाई नहीं पड़ रही है?
यह मूर्खतापूर्ण है कि गुलाब को जुही होने का उपदेश दिया जाए या कि घास के फूल को कमल होने के लिए उकसाया जाए। अर्थपूर्ण बात इतनी ही है कि गुलाब पूरा विकसित हो और घास का फूल भी पूरा विकसित हो। उनकी पंखुड़ियां अविकसित न रह जाएं और उनकी सुवास उनमें ही बंद न रह जाए। स्वयं की संभावनाएं पूरी विकसित हों, इसके अतिरिक्त जीवन का और कोई आनंद नहीं है। और शिक्षा के कार्य की सम्यक दिशा यही है।
आदर्श सिखाने की आवश्यकता नहीं है और न ही किसी का अनुसरण सिखाने की जरूरत है। व्यक्ति का निज व्यक्तित्व पूर्णता को कैसे प्राप्त हो, इस ओर ही सारे प्रयास केंद्रित होने चाहिए। और तब ही महत्वाकांक्षा से मुक्ति होगी और ईर्ष्या के ज्वर से छुटकारा होगा। और एक ऐसा समाज निर्मित हो सकेगा जो कि समता और शांति को उपलब्ध हो सके। महत्वाकांक्षा से मुक्त समाज ही वर्गहीन और शोषण-शून्य हो सकता है।
क्या ऐसी शिक्षा नहीं हो सकती है जो कि महत्वाकांक्षा पर आधारित न हो? क्या गणित या संगीत इसलिए सीखा जा सकता है कि उन्हें सीखने वाले दूसरे साथियों से आगे निकलना है? क्या गणित के प्रेम से ही गणित और संगीत के आनंद से ही संगीत नहीं सीखा जा सकता है? मैं तो देखता हूं कि वस्तुतः संगीत तभी सीखा जा सकता है और उसकी गहराइयां तभी स्पर्श की जा सकती हैं, जब संगीत से ही प्रेम हो और किसी अन्य से प्रतिस्पर्धा नहीं।
प्रतिस्पर्धापूर्ण मन क्या संगीत को जानेगा? प्रतिस्पर्धा तो विसंगीत ही है। उन्होंने ही संगीत को जाना है जो संगीत में डूबे हैं, प्रतिस्पर्धा में दौड़े नहीं। दौड़ने और डूबने में विरोध है। दौड़ना तनाव है, डूबना विश्रांति है। दौड़ ज्वर है, वह स्वयं के बाहर ले जाती है। डूबना स्वास्थ्य है, क्योंकि डूब कर व्यक्ति स्वयं की ही आत्यंतिक गहराइयों में प्रतिष्ठा पाता है। विद्या तो डूबने की कला है। और जो दौड़ना ही सिखाती है, उसे मैं अविद्या कहता हूं।
एक दिन शिक्षकों की सभा में गया था। शिक्षक-दिवस का समारोह था। वहां मैंने उनसे कहा—एक शिक्षक राष्ट्रपति हो जाए तो इसमें शिक्षक का सम्मान क्या है? क्या शिक्षक नीचे और राष्ट्रपति ऊपर है? यदि ऐसा है तब तो यह शिक्षक या शिक्षा की प्रतिष्ठा नहीं, राजपद और राजनीति की ही प्रतिष्ठा है। हां, एक राष्ट्रपति अपना पद छोड़ शिक्षक हो तब शायद शिक्षक के लिए सम्मान की बात हो भी सकती है।
राजपदों को हम जब तक ऊपर रखते हैं, तब तक हम बच्चों को जाने-अनजाने राजनीति ही सिखाते हैं। हालांकि राजनीतिज्ञ कहते हैं कि शिक्षकों और विद्यार्थियों को राजनीति से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिए। राजपदों की प्रतिष्ठा दूसरों में भी आकांक्षा को जगाती है। और यदि दूसरे शिक्षक होना छोड़ शिक्षामंत्री और उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति होने के सपने देखते हों, उन स्वप्नों को पूरा करने के लिए दौड़-धूप करते हों, तो आश्चर्य कैसा? यह तो स्वाभाविक ही है। और अन्य शिक्षक भी यदि शिक्षक-जाति को सम्मानित कराने में लगे हों तो कुछ बुरा तो नहीं है!
शिक्षा को महत्वाकांक्षा से मुक्त होना ही चाहिए। महत्वाकांक्षा ही तो राजनीति है। महत्वाकांक्षा के कारण ही तो राजनीति सबके ऊपर, सिंहासन पर विराजमान हो गई है। सम्मान वहां है, जहां पद है। पद वहां है, जहां शक्ति है। शक्ति वहां है, जहां राज्य है।
इस दौड़ से जीवन में हिंसा पैदा होती है। महत्वाकांक्षी चित्त हिंसक चित्त है। अहिंसा के पाठ पढ़ाए जाते हैं। साथ ही महत्वाकांक्षा भी सिखाई जाती है। इससे ज्यादा मूढ़ता और क्या हो सकती है?
अहिंसा प्रेम है। महत्वाकांक्षा प्रतिस्पर्धा है। प्रेम सदा पीछे रहना चाहता है। प्रतिस्पर्धा आगे होना चाहती है। क्राइस्ट ने कहा है: ‘धन्य हैं वे जो पीछे होने में समर्थ हैं।’ मैं जिसे प्रेम करूंगा, उसे आगे देखना चाहूंगा और यदि मैं सभी को प्रेम करूंगा तो स्वयं को सबसे पीछे खड़ा कर आनंदित हो उठूंगा। लेकिन प्रतिस्पर्धा प्रेम से बिलकुल उलटी है। वह तो ईर्ष्या है। वह तो घृणा है। वह तो हिंसा है। वह तो सब भांति सबसे आगे होना चाहती है।
इस आगे होने की होड़ की शुरुआत शिक्षालयों में ही होती है अ
ौर फिर कब्रिस्तान तक चलती है। व्यक्तियों में यही दौड़ है। राष्ट्रों में भी यही दौड़ है। युद्ध इस दौड़ के ही तो अंतिम फल हैं। यह दौड़ क्यों है? इस दौड़ के मूल में क्या है? मूल में है—अहंकार! अहंकार सिखाया जाता है, अहंकार का पोषण किया जाता है।
छोटे-छोटे बच्चों में अहंकार को जगाया और जलाया जाता है। उनके निर्दोष और सरल चित्त अहंकार से विषाक्त किए जाते हैं। उन्हें भी प्रथम होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। स्वर्ण-पदक और सम्मान और पुरस्कार बांटे जाते हैं। फिर यही अहंकार जीवनभर प्रेत की भांति उनका पीछा करता है और उन्हें मरते दम तक चैन नहीं लेने देता।
विनय के उपदेश दिए जाते हैं और सिखाया अहंकार जाता है। क्या वह दिन मनुष्य-जाति के इतिहास में सबसे बड़े सौभाग्य का दिन नहीं होगा जिस दिन हम बच्चों को अहंकार सिखाना बंद कर देंगे? अहंकार नहीं, प्रेम सिखाना है। और प्रेम वहीं होता है, जहां अहंकार नहीं है।
इसके लिए शिक्षण की आमूल पद्धति ही बदलनी होगी। प्रथम और अंतिम की कोटियां तोड़नी होंगी। परीक्षाओं को समाप्त करना होगा। और इन सबकी जगह जीवन के उन मूल्यों की स्थापना करनी होगी जो कि अहंशून्य और प्रेमपूर्ण जीवन को सर्वोच्च जीवन-दर्शन मानने से पैदा होते हैं।
प्रेम जब प्रतिस्पर्धा की जगह लेता है तब सहज ही सफलता की जगह सत्य की प्रतिष्ठा हो जाती है। सफलता ही जिस जीवन-व्यवस्था में एकमात्र मूल्य है, वहां सत्य नहीं हो सकता है। सफलता की केंद्रीय महत्ता ने सफलता के प्राण ही ले लिए हैं। नहीं, सफल हो जाना ही सब कुछ नहीं हैं। मात्र सफलता कोई मूल्य ही नहीं है। एक बुरे काम में सफल होने की बजाय एक शुभ कार्य में असफल होना भी ज्यादा मूल्य की और गौरव की बात है। प्रतिस्पर्धा में सफल होने की बजाय प्रेम में असफल होना ही कहीं ज्यादा शुभ है। धन में सफल होने की बजाय धर्म में असफल होना भी क्या ज्यादा मूल्यवान नहीं है?
मैं जीवन का मूल्य, मात्र सफलता में ही नहीं देखता हूं। मैं उसे देखता हूं सत्य में, शिवत्व में, सौंदर्य में; लेकिन सफलता ही जब तक हर बात का मापदंड है तब तक सत्य की, शिव की और सौंदर्य की और मनुष्य की आत्मा गतिमान नहीं हो सकती है। सत्य के लिए, शिवत्व के लिए, सौंदर्य के लिए, असफलता को भी सीखा जाना चाहिए। उस दिशा में असफलता भी गौरव है, यही दृष्टि पैदा होनी चाहिए। सत्य के लिए हार जाना भी जीत है। क्योंकि उसके लिए हारने के साहस में ही आत्मा सबल होती है और उन शिखरों को छू पाती है, जो कि परमात्मा के प्रकाश से आलोकित हैं।
विजय और पराजय अर्थहीन हैं। अर्थ है मोर्चे का, किस मोर्चे पर विजय या पराजय—सत्य के या असत्य के, प्रेम के या घृणा के, मनुष्य के या दानवता के?
और मैं कहता हूं कि धन्य हैं वे लोग जो कि असत्य की विजय को छोड़ते हैं और सत्य के साथ पराजय को आलिंगन करते हैं, क्योंकि इस भांति हार कर भी वे जीत जाते हैं और मिट कर भी उसे पा लेते हैं जो कि अमृत है। लेकिन यह सब तभी संभव है जब शिक्षा में आमूल क्रांति हो और मात्र सफलता और विजय के वे मूल्य अपदस्थ हों जिन्होंने कि सदियों से मनुष्य को पीड़ित कर रखा है।
सत्य की दिशा में सबसे बड़ा अपराध तो तब हो जाता है, जब हम सत्य के संबंध में रूढ़ धारणाओं को बच्चों के ऊपर थोपने का आग्रह करते हैं। यह आग्रह अत्यंत घातक दुराग्रह है।
परमात्मा और आत्मा के संबंध में विश्वास या अविश्वास बच्चों पर थोपे जाते हैं। गीता, कुरान, कृष्ण, महावीर उन पर थोपे जाते हैं। इस भांति सत्य के संबंध में उनकी जिज्ञासा पैदा ही नहीं हो पाती है। वे स्वयं के प्रश्नों को ही उपलब्ध नहीं हो पाते हैं, और तब स्वयं के समाधानों को खोज लेने का तो सवाल ही नहीं है।
बने-बनाए तैयार समाधानों को ही वे फिर जीवन भर दोहराते रहते हैं। उनकी स्थिति तोतों के जैसी हो जाती है। पुनरुक्ति चिंतन नहीं है। पुनरुक्ति तो जड़ता है। सत्य किसी और से नहीं पाया जा सकता है, उसे तो स्वयं ही खोजना और पाना होता है।
क्या यह उचित नहीं है कि बच्चों की जिज्ञासा जगाई जाए लेकिन उन्हें समाधानों से न जकड़ा जाए? उनमें प्रश्न पैदा किए जाएं, लेकिन उन्हें उधार उत्तरों से न भरा जाए? शिक्षा यदि उन्हें जीवन सत्य के अनुसंधान की महत यात्रा पर ही भेज सके तो उसका कार्य पूरा हो जाता है।
मेरी दृष्टि में शिक्षक वही है जो प्रसुप्त समस्याओं को जगा देता है, और जिज्ञासा को जाग्रत कर देता है, और बच्चों को उनके स्वयं के अनुसंधान के लिए साहस और अभय से भर देता है। लेकिन कोई भी व्यक्ति इस अर्थ में शिक्षक तभी हो सकता है, जब वह स्वयं आग्रहों और पक्षपातों से मुक्त हो।
इसलिए शिक्षक होना बड़ी साधना है। शिक्षक होने के लिए अत्यंत विद्रोही, सजग और सचेत आत्मा चाहिए। जिस शिक्षक में विद्रोह की अग्नि नहीं है, वह जाने या अनजाने किसी स्वार्थ, किसी नीति, किसी धर्म, या किसी राजनीति का दलाल हो ही जाएगा। क्योंकि तब वह उन पक्षपातों को और उन धारणाओं को बच्चों पर आरोपित करेगा जिनमें कि वह स्वयं ही कैद है।
शिक्षक स्वयं स्वतंत्र हो तभी वह विद्यार्थी के लिए भी स्वतंत्रता का संदेशवाहक हो सकता है। इसलिए मैंने कहा कि शिक्षक होना बड़ी साधना है। वह बड़ा विद्रोह है। शिक्षक के भीतर-भीतर एक ज्वलंत अग्नि होनी चाहिए—चिंतन की, विचार की, विद्रोह की। उसे बहुत कुछ विध्वंस भी करना है ताकि वह सृजन कर सके। उसे बहुत कुछ मिटाना है ताकि वह कुछ बना सके। उसे परंपराओं से छोड़ा गया बहुत सा कूड़ा-करकट जलाना है और व्यर्थ के घासपात से मनुष्य के मन की भूमि को साफ करना है, ताकि उस पर प्रेम के और सौंदर्य के फूलों की खेती हो सके।
यह बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। यदि शिक्षक इसे पूरा कर सकेगा तो ही एक नये मनुष्य का और एक नई मनुष्यता का जन्म हो सकता है।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३