ओशो- टाल्सटाय की प्रसिद्ध कहानी है कि एक आदमी के घर एक संन्यासी मेहमान हुआ—एक परिव्राजक।
रात गपशप होने लगी, उस परिव्राजक ने कहा कि तुम यहां क्या ये छोटी—मोटी खेती में लगे हो! साइबेरिया में मैं यात्रा पर था तो वहां जमीन इतनी सस्ती है—मुफ्त ही मिलती है।
तुम यह जमीन छोड़—छाड़ कर, बेच—बाच कर साइबेरिया चले जाओ। वहां हजारों एकड़ जमीन मिल जाएगी इतनी जमीन में। वहां करो फसलें; और बड़ी उपयोगी जमीन है। और लोग वहां के इतने सीधे—सादे हैं कि करीब—करीब मुफ्त ही जमीन दे देते हैं।उस आदमी को वासना जगी। उसने दूसरे दिन ही सब बेच—बाच कर साइबेरिया की राह पकड़ी। जब पहुंचा तो उसे बात सच्ची मालूम पड़ी। उसने पूछा कि मैं जमीन खरीदना चाहता हूं। तो उन्होंने कहा, जमीन खरीदने का तुम जितना पैसा लाए हो, रख दो;
और जमीन का हमारे पास यही उपाय है बेचने का कि कल सुबह सूरज के ऊगते तुम निकल पड़ना और सांझ सूरज के डूबते तक जितनी जमीन तुम घेर सको घेर लेना। बस चलते जाना…जितनी जमीन तुम घेर लो। सांझ सूरज के डूबते—डूबते उसी जगह पर लौट आना जहां से चले थे—बस यह शर्त है। जितनी जमीन तुम चल लोगे, उतनी जमीन तुम्हारी हो जाएगी।रात—भर तो सो न सका वह आदमी। तुम भी होते तो न सो सकते; ऐसे क्षणों में कोई सोता है? रात—भर योजनाएं बनाता रहा कि कितनी जमीन घेर लूं। सुबह ही भागा। गांव इकट्ठा हो गया था। सुबह का सूरज ऊगा, वह भागा।
उसने साथ अपनी रोटी भी ले ली थी, पानी का भी इंतजाम कर लिया था। रास्ते में भूख लगे, प्यास लगे, तो सोचा था चलते ही चलते खाना भी खा लूंगा, पानी भी पी लूंगा। रुकना नहीं है; चलना क्या है, दौड़ना है।दौड़ना शुरू किया; क्योंकि चलने से तो आधी ही जमीन कर पाऊंगा, दौड़ने से दुगनी हो सकेगी—भागा…भागा…।
सोचा था कि ठीक बारह बजे लौट पडूंगा, ताकि सूरज डूबते—डूबते पहुंच जाऊं। बारह बज गए, मीलों चल चुका है, मगर वासना का कोई अंत है?उसने सोचा कि बारह तो बज गए, लौटना चाहिए; लेकिन सामने और उपजाऊ जमीन, और उपजाऊ जमीन…थोड़ी सी और घेर लूं। जरा तेजी से दौड़ना पड़ेगा लौटते समय—इतनी ही बात है, एक ही दिन की तो बात है, और जरा तेजी से दौड़ लूंगा।
उसने पानी भी न पीया, क्योंकि रुकना पड़ेगा उतनी देर—एक दिन की ही तो बात है, फिर कल पी लेंगे पानी, फिर जीवन—भर पीते रहेंगे। उस दिन उसने खाना भी न खाया। रास्ते में उसने खाना भी फेंक दिया, पानी भी फेंक दिया, क्योंकि उनका वजन भी ढोना पड़ रहा है, इसलिए दौड़ ठीक से नहीं हो पा रही। उसने अपना कोट भी उतार दिया, अपनी टोपी भी उतार दी—जितना निर्भार हो सकता था हो गया।
एक बज गया, लेकिन लौटने का मन नहीं होता, क्योंकि आगे और—और सुंदर भूमि आती चली जाती है। मगर फिर लौटना ही पड़ा; दो बजे तक तो लौटा। अब घबड़ाया। सारी ताकत लगाई; लेकिन ताकत तो चुकने के करीब आ गई थी।
सुबह से दौड़ रहा था, हांफ रहा था, घबड़ा रहा था कि पहुंच पाऊंगा सूरज डूबते तक कि नहीं। सारी ताकत लगा दी। पागल होकर दौड़ा। सब दांव पर लगा दिया। और सूरज डूबने लगा…। ज्यादा दूरी भी नहीं रह गई है, लोग दिखाई पड़ने लगे।
गांव के लोग खड़े हैं और आवाज दे रहे हैं कि आ जाओ, आ जाओ! उत्साह दे रहे हैं, भागे आओ! अजीब सीधे—सादे लोग हैं—सोचने लगा मन में; इनको तो सोचना चाहिए कि मैं मर ही जाऊं, तो इनको धन भी मिल जाए और जमीन भी न जाए। मगर वे बड़ा उत्साह दे रहे हैं कि भागे आओ!उसने आखिरी दम लगा दी—भागा, भागा, भागा…। सूरज डूबने लगा; इधर सूरज डूब रहा है, उधर भाग रहा है…। सूरज डूबते—डूबते बस जाकर गिर पड़ा। कुछ पांच—सात गज की दूरी रह गई है; घिसटने लगा।
अभी सूरज की आखिरी कोर क्षितिज पर रह गई—घिसटने लगा। और जब उसका हाथ उस जमीन के टुकड़े पर पहुंचा जहां से भागा था, उस खूंटी पर, सूरज डूब गया। वहां सूरज डूबा, यहां यह आदमी भी मर गया।
इतनी मेहनत कर ली! शायद हृदय का दौरा पड़ गया। और सारे गांव के सीधे—सादे लोग जिनको वह समझता था, हंसने लगे और एक—दूसरे से बात करने लगे—ये पागल आदमी आते ही जाते हैं! इस तरह के पागल लोग आते ही रहते हैं!
यह कोई नई घटना न थी, अक्सर लोग आ जाते थे खबरें सुन कर, और इसी तरह मरते थे। यह कोई अपवाद नहीं था, यही नियम था। अब तक ऐसा एक भी आदमी नहीं आया था, जो घेरकर जमीन का मालिक बन पाया हो।
यह कहानी तुम्हारी कहानी है, तुम्हारी जिंदगी की कहानी है, सबकी जिंदगी की कहानी है। यही तो तुम कर रहे हो—दौड़ रहे हो कि कितनी जमीन घेर लें! बारह भी बज जाते हैं, दोपहर भी आ जाती है, लौटने का भी समय होने लगता है—मगर थोड़ा और दौड़ लें! न भूख की फिक्र है, न प्यास की फिक्र है। जीने का समय कहां है?
पहले जमीन घेर लें, पहले तिजोड़ी भर लें, पहले बैंक में रुपया इकट्ठा हो जाए; फिर जी लेंगे, फिर बाद में जी लेंगे, एक ही दिन का तो मामला है। और कभी कोई नहीं जी पाता।
गरीब मर जाते हैं भूखे, अमीर मर जाते हैं भूखे, कभी कोई नहीं जी पाता। जीने के लिए थोड़ी विश्रांति चाहिए। जीने के लिए थोड़ी समझ चाहिए। जीवन मुफ्त नहीं मिलता—बोध चाहिए।
सिर्फ बुद्धपुरुष जी पाते हैं। उनके जीवन में एक प्रसाद होता है, एक लयबद्धता होती है, एक छंद होता है। वे जी पाते हैं, क्योंकि वे दौड़ते नहीं। वे जी पाते हैं,
क्योंकि वे ठहर गए हैं। वे जी पाते हैं, क्योंकि उनका चित्त अब चंचल नहीं है। इस संसार में जमीन घेरकर करेंगे क्या? इस संसार का सब यहीं पड़ा रह जाएगा; न हम कुछ लेकर आते हैं, न हम कुछ लेकर जाएंगे।