ओशो- इस देश में जो स्त्रियों को हम चार दिन के लिए बिलकुल छुट्टी दे देते थे, उसका कारण यह नहीं था–कारण तुमने गलत समझा है–कि स्त्रियां अपवित्र हो जाती हैं। वह कारण नहीं है। अपवित्र क्या होंगी! खून भीतर है, तब अपवित्र नहीं हैं! बाहर जा रहा है, तब तो पवित्र हो रही हैं, अपवित्र कैसे होंगी? और खून अगर अपवित्र है, तो सारा शरीर ही अपवित्र है। अब इसमें और क्या अपवित्रता हो सकती है!नहीं; उसका कारण मनोवैज्ञानिक था। चार दिन के लिए, जब स्त्री का मासिक-धर्म चलता है, तब वह खिन्न होती, उदास होती, नकारात्मक होती। अगर वह खाना भी बनाएगी, तो उसकी नकारात्मकता उस खाने में विष घोल देगी।मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि किसी ने क्रोध से खाना बनाया हो, तो मत खाना। क्योंकि हाथों से प्रतिपल तरंगें जा रही हैं। हाथों से विद्युत-प्रवाह जा रहा है। इसलिए तो जो तुम्हें प्रेम करता है, गहन प्रेम करता है, उसके हाथ की बनी रूखी-सूखी रोटी भी अदभुत होती है।होटल में कितना ही अच्छा खाना हो, कुछ कमी होती है। कुछ चूका-चूका होता है। खाना लाश जैसा होता है; उसमें आत्मा नहीं होती। लाश कितनी ही सुंदर हो, और लिपस्टिक लगा हो, और पावडर लगा हो और सब तरह की सुगंध छिड़की हो, मगर लाश आखिर लाश है। तुम्हें इस लाश में से शायद शरीर के लिए तो भोजन मिल जाएगा, लेकिन आत्मा का भोजन चूक जाएगा।
और जैसे तुम्हारे भीतर शरीर और आत्मा है, ऐसे ही भोजन के भीतर भी शरीर और आत्मा है। आत्मा प्रेम से पड़ती है।तो जब स्त्री उद्विग्न हो, उदास हो, खिन्न हो, नाराज हो, नकार से भरी हो, तब उसका खाना बनाना उचित नहीं है। तब उसके हाथ से जहर जाएगा। और तब अच्छा है कि वह एकांत में, एक कमरे में बैठ जाए। चार दिन बिलकुल विश्राम कर ले। ये चार दिन ऐसी हो जाए, जैसे मर ही गयी। दुनिया से उसका कोई नाता न रहे।
यह बड़ी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया थी। लेकिन चूंकि हमने इसको भी गलत ढंग दे दिया था…। हालांकि हम गलत ढंग इसलिए दे देते हैं कि शब्दों को समझ नहीं पाते।
जब स्त्री मासिक-धर्म में होती है, तो पुराने शास्त्र कहते हैं: वह शूद्र हो गयी। मगर शूद्र होने का मतलब ही यह होता है कि नकार हो गया। उसको छूना मत; शूद्र हो गयी। मगर पुरुष भी इसी तरह शूद्र होते हैं। शास्त्र चूंकि पुरुषों ने लिखे हैं, इसलिए पुरुषों के चार दिन नहीं लिखे गए।लेकिन अब विज्ञान की खोजों ने यह साफ कर दिया है कि पुरुष भी चार दिन इसी तरह शूद्र हो जाते हैं। और तुम अपने वे चार दिन भी खोज ले सकते हो। और तुम चकित होओगे: हर महीने ठीक वर्तुल में वे चार दिन आते हैं। उनकी तारीखें तय हैं। उन चार दिनों में तुमसे हमेशा बुराई होती है। झगड़ा हो जाता है। मार-पीट हो जाती है। उन चार दिनों में तुमसे चूकें होती हैं। कार चलाओगे, एक्सीडेंट हो जाएगा। उन चार दिनों में हाथ से चीजें छूट जाएंगी, गिर जाएंगी, टूट जाएंगी। उन चार दिनों में तुमसे ऐसे वचन निकल जाएंगे, जो तुम नहीं कहना चाहते थे; और फिर पीछे पछताओगे। उन चार दिनों में तुम अपने में नहीं हो। उन चार दिनों में तुम्हारा शूद्र पूरी तरह तुम्हारे ऊपर हावी हो गया है।
और जैसे चार दिन शूद्र के होते हैं, ऐसे ही चार दिन ब्राह्मण के भी होते हैं, क्योंकि आदमी अतियों में डोलता है। एक अति से दूसरी अति–जैसे घड़ी का पेंडुलम डोलता है।