ओशो- अगर बहुत ठीक से समझें, तो दुख सुख की ही छाया है। और भी गहरे में समझें, तो जो ऊपर से सुख दिखाई पड़ता है, वह भीतर से दुख सिद्ध होता है। कहें कि सुख केवल दिखावा है, दुख स्थिति है।जैसे एक आदमी मछली मार रहा है नदी के किनारे बैठकर, तो कांटे में आटा लगा लेता है। आटे को लटका देता है पानी में। कोई मछली कांटे को पकड़ने को न आएगी। कोई मछली क्यों कांटे को पकड़ेगी? लेकिन आटे को तो कोई भी मछली पकड़ना चाहती है। मछली सदा आटा ही पकड़ती है, लेकिन आटे के पकड़े जाने में मछली कांटे में पकड़ी जाती है। आटा धोखा सिद्ध होता है, आवरण सिद्ध होता है; कांटा भीतर का सत्य सिद्ध होता है।सुख आटे से ज्यादा नहीं है। हर सुख के आटे में दुख का कांटा है। और सुख भी तभी तक मालूम पड़ता है, जब तक आटा दूर है और मछली के मुंह में नहीं है–तभी तक! मुंह में आते ही तो कांटा मालूम पड़ना शुरू हो जाता है।
तो सुख सिर्फ दिखाई पड़ता है, मिलता सदा दुख है। और जिसने सुख चाहा हो, उसे दुख मिल जाए, वह उद्विग्न न हो! तो फिर उद्विग्न और कौन होगा? जिसने सुख मांगा हो और दुख आ जाए, जिसने जीवन मांगा हो और मृत्यु आ जाए, जिसने सिंहासन मांगे हों और सूली आ जाए–वह उद्विग्न नहीं होगा? उद्विग्न होगा ही। अपेक्षा के प्रतिकूल उद्विग्नता निर्मित होती है।और भी एक बात समझ लेने जैसी है कि असल में जो सुख मांग रहा है, वह भी उद्विग्नता मांग रहा है। शायद इसका कभी खयाल न किया हो। खयाल तो हम जीवन में किसी चीज का नहीं करते। आंख बंद करके जीते हैं। अन्यथा कृष्ण को कहने की जरूरत न रह जाए। हमें ही दिखाई पड़ सकता है।सुख भी एक उद्विग्नता है। सुख भी एक उत्तेजना है। हां, प्रीतिकर उत्तेजना है। है तो आंदोलन ही, मन थिर नहीं होता सुख में भी, कंपता है। इसलिए कभी अगर बड़ा सुख मिल जाए, तो दुख से भी बदतर सिद्ध हो सकता है। कभी आटा भी बहुत आ जाए मछली के मुंह में, तो कांटे तक नहीं पहुंचती; आटा ही मार डालता है, कांटे तक पहुंचने की जरूरत नहीं रह जाती।एक आदमी को लाटरी मिल जाती है और हृदय की गति एकदम से बंद हो जाती है। लाख रुपया! हृदय चले भी तो कैसे चले! इतने जोर से चल नहीं सकता, जितने जोर से लाख रुपये के सुख में चलना चाहिए। इतने जोर से नहीं चल सकता है, इसलिए बंद हो जाता है। बड़ी उत्तेजना की जरूरत थी। हृदय नहीं चाहिए था, लोहे का फेफड़ा चाहिए था, तो लाख रुपये की उत्तेजना में भी धड?कता रहता। लाख रुपये अचानक मिल जाएं, तो सुख भी भारी पड़ जाता है।खयाल में ले लेना जरूरी है कि सुख भी उत्तेजना है; उसकी भी मात्राएं हैं। कुछ मात्राओं को हम सह पाते हैं। आमतौर से सुख की मात्रा किसी को मारती नहीं, क्योंकि मात्रा से ज्यादा सुख आमतौर से उतरता नहीं।
यह बहुत मजे की बात है कि मात्रा से ज्यादा दुख आदमी को नहीं मार पाता, लेकिन मात्रा से ज्यादा सुख मार डालता है। दुख को सहना बहुत आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। सुख मिलता नहीं है, इसलिए हमें पता नहीं है। दुख को सहना बहुत आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। क्यों? क्योंकि दुख के बाहर सुख की सदा आशा बनी रहती है। उस उत्तेजना के बाहर निकलने की आशा बनी रहती है। उसे सहा जा सकता है।
सुख के बाहर कोई आशा नहीं रह जाती; मिला कि आप ठप्पहुए, बंद हुए। मिलता नहीं है, यह बात दूसरी है। आप जो चाहते हैं, वह तत्काल मिल जाए, तो आपके हृदय की गति वहीं बंद हो जाएगी। क्योंकि सुख में ओपनिंग नहीं है, दुख में ओपनिंग है। दुख में द्वार है, आगे सुख की आशा है, जिससे जी सकते हैं। सुख अगर पूरा मिल जाए, तो आगे फिर कोई आशा नहीं है, जीने का उपाय नहीं रह जाता। सुख भी एक गहरी उत्तेजना है।