भगवान शिव द्वारा माता पार्वती को आत्म साक्षात्कार के लिए दी गई 112 विधियों में से एक विधी (विज्ञान भैरव तंत्र, विधि 57)

 भगवान शिव द्वारा माता पार्वती को आत्म साक्षात्कार के लिए दी गई 112 विधियों में से एक विधी (विज्ञान भैरव तंत्र, विधि 57)

साक्षित्व की पहली विधी 

‘’तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्‍न रहो।‘’

ओशो- जब तुम्‍हें कामना घेरती है, चाह पकड़ती है, तो तुम उत्‍तेजित हो जाते हो, उद्विग्न हो जाते हो। यह स्‍वाभाविक है। जब चाह पकड़ती है तो मन डोलने लगता है। उसकी सतह पर लहरें उठने लगती है। कामना तुम्‍हें खींचकर कहीं भविष्‍य में ले जाती है; अतीत तुम्‍हें कहीं भविष्‍य में धकाता है। तुम उद्विग्‍न हो जाते हो, बेचैन हो जाते हो। अब तुम चैन में न रहे। चाह बेचैनी है, रूग्‍णता है।

यह सूत्र कहता है: ‘’तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्‍न रहो।‘’

लेकिन अनुद्विग्‍न कैसे रहा जाए? कामना का अर्थ ही उद्वेग है। अशांति है; फिर अनुद्विग्‍न कैसे रहा जाए? शांत कैसे रहा जाए? और वह भी कामना के तीव्रतम क्षणों में।तुम्‍हें कुछ प्रयोगों से गुजरना होगा। तो ही तुम इस विधि का अभिप्राय समझ सकते हो। तुम क्रोध में हो; क्रोध ने तुम्‍हें पकड़ लिया है। तुम अस्‍थायी रूप से पागल हो, आविष्‍ट हो, अवश हो। तुम होश में नहीं हो। इस अवस्‍था में अचानक स्‍मरण करो कि अनुद्विग्‍न रहना है—मानों तुम कपड़े उतार रहे हो। नग्‍न हो रहे हो। भीतर नग्‍न हो जाओ, क्रोध से निर्वस्‍त्र हो जाओ। क्रोध तो रहेगा, लेकिन अब तुम्‍हारे भीतर एक बिंदु है जो अनुद्विग्‍न है, शांत है। तुम्‍हें पता होगा कि क्रोध परिधि पर है; बुखार की तरह वह वहां है। परिधि कांप रही है। परिधि अशांत है। लेकिन तुम उसके दृष्‍टा हो। और यदि तुम उसके द्रष्‍टा हो सके तो तुम अनुद्विग्‍न रहोगे। तुम उसके साक्षी हो जाओ, और तुम शांत हो जाओगे। वहा शांत बिंदु ही तुम्‍हारा मूलभूत मन है.. मूलभूत मन अशांत नहीं हो सकता। वह कभी अशांत नहीं होता है। लेकिन तुमने उसे कभी देखा नहीं है। जब क्रोध होता है तो तुम्‍हारा उससे तादात्‍म्‍य हो जाता है। तुम भूल जाते हो कि क्रोध तुमसे भिन्‍न है, पृथक है। तुम उससे एक हो जाते हो; और तुम उसके द्वारा सक्रिय हो जाते हो, कुछ करने लगते हो। और तब दो चीजें संभव है।तुम क्रोध में किसी के प्रति, क्रोध के विषय के प्रति हिंसात्‍मक हो सकते हो; लेकिन तब तुम दूसरे की और गति कर गए। क्रोध ने तुम्‍हारे और दूसरे के बीच जगह ले ली। यहां मैं हूं जिसे क्रोध हुआ है, फिर क्रोध है और वहां तुम हो, मेरे क्रोध का विषय। क्रोध से मैं दो आयामों में यात्रा कर सकता हूं। या तो मैं तुम्‍हारी तरफ जा सकता हूं, अपने क्रोध के विषय की तरफ। तब तुम जिसने मेरा अपमान किया, मेरी चेतना के केंद्र बन गए; तब मेरा मन तुम पर केंद्रित हो गया। यह ढंग है क्रोध से यात्रा करने का।दूसरा ढंग है कि तुम अपनी ओर, स्‍वयं की ओर यात्रा करो। तुम उस व्‍यक्‍ति की ओर नहीं गति करते जिसने तुम्‍हें क्रोध करवाया। बल्‍कि उस व्‍यक्‍ति की तरफ जाते हो जो क्रोध अनुभव करता है। तुम विषय की ओर न जाकर विषयी की ओर गति करते हो।

साधारणत: हम विषय की ओर ही बढ़ते है। और विषय की ओर बढ़ने से मन का धूल-भरा हिस्‍सा उत्‍तेजित और अशांत हो जाता है। और तुम्‍हें अनुभव होता है की मैं अशांत हूं। अगर तुम भीतर की ओर मुड़ो, अपने केंद्र की ओर मुड़ो, तो तुम धूल वाले हिस्‍से के साक्षी हो जाओगे। तब तुम देख सकोगे। कि धूल वाला हिस्‍सा तो अशांत है, लेकिन मैं अशांत नहीं हूं। और तुम किसी भी इच्‍छा के साथ, किसी भी अशांति के साथ यह प्रयोग कर सकते हो।तुम्‍हारे मन में कामवासना उठती है; तुम्‍हारा सारा शरीर उससे अभिभूत हो जाता है। अब तुम काम विषय की ओर, अपनी वासना के विषय की ओर जा सकते हो। चाहे वह वास्‍तव में वहां हो या न हो। तुम कल्‍पना में भी उसकी तरफ यात्रा कर सकते हो। लेकिन तब तुम और ज्‍यादा अशांत होते जाओगे। तुम अपने केंद्र से जितनी दूर निकल जाओगे उतने ही अधिक अशांत होते जाओगे और केंद्र के जितनी करीब होगे उतने कम अशांत होगे। और अगर तुम ठीक केंद्र पर हो तो कोई अशांति नहीं है।

हर तूफान के बीचोबीच एक केंद्र होता है जो बिलकुल शांत रहता है; वैसे ही क्रोध के तूफान के केंद्र पर, काम के तूफान के केंद्र पर, किसी भी वासना के तूफान के केंद्र पर —ठीक केंद्र पर कोई तूफान नहीं होता। और कोई भी तूफान शांत केंद्र के बिना नहीं हो सकता; वैसे ही क्रोध भी तुम्‍हारे उस अंतरस्‍थ केंद्र के बिना नहीं हो सकता जो क्रोध के पार है।

यह स्‍मरण रहे, कोई भी चीज अपने विपरीत तत्‍व के बिना नहीं हो सकती। विपरीत जरूरी है; उसके बिना किसी भी चीज के होने की संभावना नहीं है। यदि तुम्‍हारे भीतर कोई स्‍थिर केंद्र न हो तो गति असंभव है। यदि तुम्‍हारे भीतर शांत केंद्र न हो तो अशांति असंभव है।

इस बात का विश्‍लेषण करो, इसका निरीक्षण करो। अगर तुम्‍हारे भीतर परम शांति का कोई केंद्र न होता तो तुम कैसे जानते कि मैं अशांत हूं? तुम्‍हें तुलना करनी चाहिए, तुलना के लिए दो बिंदू चाहिए।मान लो कि कोई व्‍यक्‍ति बीमार है। वह व्‍यक्‍ति बीमारी अनुभव करता है; क्‍योंकि उसके भीतर कहीं कोई बिंदू है, जहां परम स्वास्थ विराजमान है। इससे ही वह तुलना कर सकता है। तुम कहते हो कि मुझे सिरदर्द है; लेकिन तुम कैसे जानते हो कि यह दर्द है, सिरदर्द है? अगर तुम ही सिरदर्द होते तो तुम इसे कैसे जान सकते थे। अवश्‍य ही तुम कुछ और हो। कोई और हो। तुम द्रष्‍टा हो। साक्षी हो, जो कहता है कि मुझे सिरदर्द है। इस दर्द को वही अनुभव कर सकता है जो खुद दर्द नहीं है। अगर तुम बीमार हो, ज्वरग्रस्त हो तो तुम उसे अनुभव कर सकते हो। क्‍योंकि तुम ज्‍वर नहीं हो। ज्वर खुद ज्‍वर को नहीं अनुभव कर सकता है; कोई चाहिए जो उसके पार हो। विपरीत जरूरी है।

जब तुम क्रोध में हो और अगर तुम महसूस करते हो कि मैं क्रोध में हूं तो उसका अर्थ है कि तुम्‍हारे भीतर कोई बिंदू है जो अब भी शांत है और जो साक्षी हो सकता है। यह बात दूसरी है कि तुम इस बिंदू को नहीं देखते हो। तुम इस बिंदू पर अपने को कभी नहीं देखते हो। यह एक अलग बात है। लेकिन वह सदा अपनी मौलिक शुद्धता में वहां मौजूद है।

यह सूत्र कहता है: ‘’तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्‍न रहो।‘’

तुम क्‍या करते हो? अक्सर दमन करते हो. यह विधि दमन के पक्ष में नहीं है। यह विधि यह नहीं कहती है कि जब क्रोध आए तो उसे दबा दो और शांत हो जाओ। नहीं, अगर दमन करोगे तो तुम ज्‍यादा अशांति निर्मित करोगे। अगर क्रोध हो और उसे दबाने का प्रयत्‍न भी साथ-साथ हो तो उससे अशांति दुगुनी हो जाएगी। नहीं; जब क्रोध आए तो द्वार दरवाजे बंद कर लो और क्रोध पर ध्‍यान करो। क्रोध को होने दो; तुम अनुद्विग्‍न रहो और क्रोध का दमन मत करो।दमन करना आसान है; प्रकट करना भी आसान है। और हम दोनों करते है। अगर स्‍थिति अनुकूल हो तो हम क्रोध को प्रकट कर देते है। अगर उसकी सुविधा हो, अगर तुम्‍हें खुद कोई खतरा नहीं हो तो तुम क्रोध को अभिव्‍यक्‍त कर दोगे। अगर तुम दूसरे को चोट पहुंचा सकते हो और दूसरा बदले में तुम पर चोट नहीं कर सकता है, तो तुम अपने क्रोध को खुली छूट दे दोगे। और अगर क्रोध को प्रकट करना खतरनाक हो, अगर दूसरा तुम्‍हें ज्‍यादा चोट कर सकने में समर्थ हो, अगर वह तुम्‍हारा मालिक हो या तुमसे ज्‍यादा बलवान हो, तो तुम क्रोध को दबा दोगे।

अभिव्‍यक्‍ति और दमन सरल है; साक्षी कठिन है। साक्षी न अभिव्‍यक्‍ति है और न दमन; वह दोनों में कोई नहीं है। वह अभिव्‍यक्‍ति नहीं है। क्‍योंकि तुम उसे दूसरे पर नहीं प्रकट कर रहे हो। तुम उसका दमन भी नहीं करते। तुम उसे शून्‍य में विसर्जित कर रहे हो। तुम उस पर ध्‍यान कर रहे हो।

इसीलिए तंत्र वासना के विरोध में नहीं है। वह कहता है: वासना में उतरो, लेकिन उस केंद्र को स्‍मरण रखो, जो शांत है। तंत्र कहता है कि इस प्रयोग के लिए कामवासना का भी उपयोग किया जा सकता है। काम-कृत्‍य में उतरो लेकिन अनुद्विग्‍न रहो, शांत रहो और साक्षी रहो। गहरे में दृष्‍टा बने रहो। जो भी हो रहा है वह परिधि पर हो रहा है और तुम केवल देखने वाले हो, दर्शक हो।

एक बार तुम अपने केंद्र को परिधि से पूरी तरह पृथक करने की विधि का अनुभव कर लो। दोनों अतियां वहां है—विपरीत अतियां। एक बार तुम्‍हें इन अतियों को बोध हो जाए तो पहली दफा तुम अपने मालिक हुए। अन्‍यथा दूसरे मालिक है। तुम खुद गुलाम हो। तुम्‍हारी पत्‍नी जानती है, तुम्‍हारा बाप जानता है, तुम्‍हारे बेटे जानते है, तुम्‍हारे दोस्‍त जानते है कि तुम्‍हें कब हिलाया जा सकता है। तुम्‍हें कैसे अशांत किया जा सकता है, तुम्‍हें कैसे खुश किया जा सकता है।और जब दूसरा तुम्‍हें सुखी और दुःखी कर सकता है तो तुम मालिक नहीं हो सकते। तुम गुलाम ही हो। कुंजी दूसरे के हाथ में है; बस उसकी एक भाव भंगिमा तुम्‍हें दुःखी बना सकती है; उसकी एक मुस्‍कुराहट तुम्‍हें सुख से भर सकती है। तो तुम दूसरे की मर्जी पर हो; दूसरा तुम्‍हारे साथ कुछ भी कर सकता है।

और अगर यही स्‍थिति है तो तुम्‍हारी सब प्रतिक्रियाएँ बस प्रतिक्रियाएँ है। उन्‍हें क्रियाएं नहीं कहा जा सकता है। तुम सिर्फ प्रतिक्रियाँ करते हो, क्रिया नहीं। कोई तुम्‍हारा अपमान करता है और तुम क्रोधित हो जाते हो। कोई तुम्‍हारी प्रशंसा करता है और तुम मुस्‍कुराने लगते हो। फुलकर कुप्‍पा हो जाते हो। तो यह प्रतिक्रिया है, क्रिया नहीं।

केंद्र का यह ज्ञान या केंद्र में प्रतिष्‍ठित होना तुम्‍हें अपना मालिक बना देता है। अन्‍यथा तुम गुलाम हो। एक ही मालिक के नहीं, अनेक मालिकों के गुलाम। तब हर कोई तुम्‍हारा मालिक है, और तुम सारे जगत के गुलाम हो। निश्‍चित ही तुम पीड़ा में रहोगे, दुःख में रहोगे। इतने मालिक और वे इतनी दिशाओं में तुम्‍हें खिंचेंगे, इतना कि तुम अखंड न रह सकोगे। एक न रह सकोगे। और इतने आयामों में खींचे जाने के कारण तुम संताप में रहोगे। वही व्‍यक्‍ति संताप का अतिक्रमण कर सकता है जो अपना स्‍वामी है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 

विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन

प्रवचन-37