प्रत्येक व्यक्ति कुरुक्षेत्र में ही खड़ा है, महाभारत कभी हुआ और समाप्त हो गया, ऐसा नहीं, जारी है “ओशो”
सूत्र
द्वेषप्रतिपक्षभावाद्रसशब्दाच्च रागः।। 6।।
नक्रियाकृत्यनपेक्षणाज्ज्ञानवत् ।। 7।।
अत एव फलानन्त्यम्।। 8।।
तद्वतःप्रपत्तिशब्दाच्च
नज्ञानमितरप्रपत्तिवत्।। १।।
सा मुख्येतरापेक्षितत्वात्।। 10।।
ओशो- मनुष्य है एक द्वंद्व — प्रकाश और अंधकार का, प्रेम और घृणा का। यह द्वंद्व अनेक सतहों पर प्रकट होता है। यह द्वंद्व मनुष्य के कण-कण में छिपा है। राम और रावण प्रतिपल संघर्ष में रत हैं। प्रत्येक व्यक्ति कुरुक्षेत्र में ही खड़ा है। महाभारत कभी हुआ और समाप्त हो गया, ऐसा नहीं, जारी है। हर नये बच्चे के साथ फिर पैदा होता है। इसलिए कुरुक्षेत्र को गीता में धर्मक्षेत्र कहा है, क्योंकि वहां निर्णय होना है धर्म और अधर्म का ।
प्रत्येक व्यक्ति के भीतर निर्णय होना है धर्म और अधर्म का । प्रत्येक व्यक्ति के भीतर निर्णायक घटना घटने को है। इसीलिए तो इतनी चिंता है। इसीलिए तो आदमी बेचैन है। इसलिए आदमी को कहीं राहत नहीं। कुछ भी करे, राहत नहीं। क्योंकि भीतर कुछ उबल रहा है। भीतर सेनाएं बंटी खड़ी हैं। क्या होगा परिणाम, क्या होगी निष्पत्ति, इससे चिंता होती है।
और चिंता के बड़े कारण हैं। क्योंकि घृणा के पक्ष में बड़ी फौजें हैं। घृणा के पक्ष में बड़ी शक्तियां हैं। महाभारत में भी कृष्ण की सारी फौजें कौरवों के साथ थीं। केवल कृष्ण, निहत्थे कृष्ण पांडवों के साथ थे। वह बात बड़ी सूचक है। ऐसी ही हालत है। संसार की सारी शक्तियां अंधेरे के पक्ष में हैं। संसार की शक्तियां यानी परमात्मा की फौजें । परमात्मा भर तुम्हारे पक्ष में है, निहत्था। भरोसा नहीं आता कि जीत अपनी हो सकेगी। विश्वास नहीं बैठता कि निहत्थे परमात्मा के साथ विजय हो सकेगी।
कृष्ण ही अर्जुन के सारथी थे, ऐसा नहीं, तुम्हारे रथ पर भी जो सारथी बन कर बैठा है वह कृष्ण ही है। प्रत्येक के भीतर परमात्मा ही रथ को सम्हाल रहा है। लेकिन सामने विरोध में दिखाई पड़ती हैं बड़ी सेनाएं, बड़ा विराट आयोजन। अर्जुन घबड़ा गया था। हाथ-पैर थरथरा गए थे। गांडीव छूट गया था।पसीना-पसीना हो गया था। अगर तुम भी जीवन के युद्ध में पसीना-पसीना हो जाते हो, तो आश्चर्य नहीं। हार निश्चित मालूम पड़ती है, जीत असंभव आशा के इस द्वंद्व में ठीक-ठीक पहचान लेना जरूरी है–कौन तुम्हारा मित्र है और कौन तुम्हारा शत्रु है । यही महाभारत की प्रथम घड़ी में अर्जुन ने कृष्ण से कहा था: मेरे रथ को युद्ध बीच में ले चलो; ताकि मैं देख लूं–कौन मेरे साथ लड़ने आया है, कौन मेरे विपरीत लड़ने को खड़ा है? किससे मुझे लड़ना है?
साफ-साफ समझ लूं कि कौन साथी-संगी है, कौन शत्रु है? और युद्ध के मैदान पर जितनी आसान बात थी यह जान लेना, जीवन के मैदान पर इतनी आसान नहीं। वहां शत्रु-मित्र सम्मिलित खड़े हैं। वहां जहां प्रेम है, वहीं घृणा भी दबी हुई पड़ी है। जहां करुणा है, उसी के साथ क्रोध भी खड़ा है। सब मिश्रित है। कुरुक्षेत्र के उस युद्ध में तो चीजें साफ थीं, सेनाएं बंट गई थीं, बीच में रेखा थी – एक तरफ अपने लोग थे, दूसरी तरफ विरोधी
लोग थे, बात साफ थी कि किसको मारना है, किसको बचाना है। लेकिन जीवन के युद्ध में बात इतनी साफ नहीं है, ज्यादा उलझन की है। तुम जिसको प्रेम करते हो, उसी को घृणा भी करते हो। जिसको चाहते हो और सोचते हो कि जरूरत पड़े तो जान दे दूं, किसी दिन उसी की जान लेने का मन भी होने लगता है। जिस पर करुणा बरसाते हो, कभी उसी पर क्रोध भी उबल पड़ता है।
सब उलझा है। धागे एक-दूसरे में गुंथ गए हैं। जन्मों-जन्मों की गुत्थियां हैं। इस बात को ठीक से समझ कर आज के सूत्र समझे जा सकेंगे।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३