सदियों से भारत के लोग गुलाम और गरीब क्यों हैं? इनकी गुलामी और गरीबी का कारण कहां है? इनकी गुलामी और गरीबी की बुनियाद कहां है? “ओशो”

 सदियों से भारत के लोग गुलाम और गरीब क्यों हैं? इनकी गुलामी और गरीबी का कारण कहां है? इनकी गुलामी और गरीबी की बुनियाद कहां है? “ओशो”

प्रश्न: भारत के लोग सदियों से गुलाम और गरीब रहने के कारण भयानक हीनता के भाव से पीड़ित हैं, और इसलिए पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं। क्या यह अंधानुकरण अस्वस्थ नहीं है? और क्या उन्हें अपना मार्ग और गंतव्य स्वयं ही नहीं ढूंढना चाहिए? इस संदर्भ में आप हमें क्या मार्गदर्शन देंगे?
ओशो- मृत्युंजय देसाई, यह प्रश्न तो महत्वपूर्ण है, लेकिन उत्तर शायद तुम्हें चोट पहुंचाए। क्योंकि इस प्रश्न के भीतर और बहुत-से प्रश्न छिपे हैं, शायद तुम्हें उनका बोध भी न हो।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो विचारणीय यह है, जैसा तुम कहते हो कि भारत के लोग सदियों से गुलाम और गरीब रहने के कारण भयानक हीनता के भाव से पीड़ित हैं, पूछना यह चाहिए कि सदियों से भारत के लोग गुलाम और गरीब क्यों हैं? इनकी गुलामी और गरीबी का कारण कहां है? इनकी गुलामी और गरीबी की बुनियाद कहां है? जड़ें कहां हैं? यूं ही तो गुलाम और गरीब नहीं हैं। कोई दिन दो-चार दिन के लिए, माह दो माह के लिए, वर्ष दो वर्ष के लिए जबरदस्ती गुलाम बनाया जा सकता है; लेकिन दो हजार वर्षों तक कोई जबरदस्ती गुलाम बनाया जा सकता है? और जो भी आया उसी ने गुलाम बना लिया! और छोटी-छोटी कौमें–हूण आए, शक आए, तुर्क आए, मुगल आए, अंग्रेज आए, पुर्तगाली आए–जो आया, जिनकी कोई सामर्थ्य न थी, जिनकी कोई संख्या न थी, वे इस विराट देश को गुलाम बनाते चले गए!
जरूर इस देश की आत्मा में गुलाम रहने की कोई छिपी हुई संभावना है। यह देश जैसे निमंत्रण देता है गुलामी को। ये विजेता यूं ही नहीं चले आए; जैसे अनजाने में हमने इन्हें आमंत्रण भेजा था कि आओ। शायद हमें भी पता न हो कि हमने कब आमंत्रण भेजा, मगर दूर-दूर से विजेता आते रहे, तो जरूर हमारे पास कुछ बात होगी। वह बात क्या है? और कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसी को तुम अपना भारत, अपनी भारतीय संस्कृति और अपना भारतीय धर्म कहते हो? अगर ऐसा हुआ तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।
मेरे देखे, वही तुम्हारी संस्कृति है और वही तुम्हारा धर्म है–वही, जिसने तुम्हें गुलाम रखा और जिसने तुम्हें गरीब रखा। गरीब तुम और भी पुराने दिनों से हो। गुलामी तो बाद में आई, गरीबी तो सनातन है। भारत एक ही सनातन धर्म को तो जानता है, वह है गरीबी। जो कहानियां तुमने सुनी हैं कि कभी भारत सोने की चिड़िया था, उन कहानियों में मत भटक जाना। जिनके लिए कभी भारत सोने की चिड़िया था उनके लिए अब भी भारत सोने की चिड़िया है। वे थोड़े-से लोग। लेकिन निन्यानबे प्रतिशत लोगों के लिए कहां का सोना, कैसी सोने की चिड़िया! वे सदा से गरीब रहे हैं, वे सदा से भूखे रहे हैं। असल में वे भूखे रहे हैं, इसीलिए कुछ लोग सोने की चिड़ियां ढाल सके। वे गरीब रहे, इसलिए कुछ लोग सोने के महल खड़े कर सके।
तो तुम जिसे अपने भारत की निजता कहते हो, अगर उस निजता में ही कहीं कोई रोग हो, तब बहुत सोच-समझ कर विचार करना होगा। नहीं तो निजता को बचाने में तुम आत्मघात कर लोगे। और मेरे देखे तुम्हारी निजता में ही रोग है।
भारत गुलाम रहा, क्योंकि भारत ने बाहर के जगत को माया कह कर इनकार कर दिया। तुम्हारे शंकराचार्य, तुम्हारे आदर के जो बड़े पात्र हैं, वे ही जिम्मेवार हैं। तुम्हारे शास्त्र, जिन्होंने कहा बाहर का जगत तो स्वप्नवत है, उन्होंने ही तुम्हें गुलाम बनाया। अब अगर बाहर का जगत स्वप्नवत है तो गुलाम रहे कि मालिक रहे, क्या फर्क पड़ता है! रात सपने में गरीब रहे कि अमीर रहे, सुबह जाग कर तो सब खो जाता है। रात के सपनों का मूल्य ही क्या है?
एक बार जब इस देश ने इस मूढ़तापूर्ण बात को अंगीकार कर लिया कि संसार माया है, तो गुलामी की आधारशिला रख दी गई। तो जो संसार को यथार्थ मानते थे, उनसे तुम कैसे जीतते? तुम संसार को झूठ मानते थे; उनकी टक्कर में तुम्हें हारना पड़ा, जो संसार को यथार्थ मानते थे। क्योंकि उन्होंने यथार्थ के ढंग से युद्ध किए और तुम्हारे लिए तो बात सपने की थी; हार हुई कि जीत, सब बराबर। हारे तो भी सपना है, जीते तो भी सपना है। और सभी को मिट्टी में मिल जाना है–भिखमंगे को भी और सम्राट को भी।
तुम ऐसी-ऐसी अच्छी बातें कहने में कुशल हो गए! तुमने थोथी बातों को ऐसे सुंदर श्र्ृंगार दिए! तुमने अपनी मूढ़ता को ऐसी बातों में ढांका, ऐसा आडंबर पहनाया। उसका तुमने फल भोगा। किसी और ने तुम्हें गुलाम नहीं किया। तुम गुलाम होने को आतुर थे। यह जिम्मेवारी किसी और पर मत छोड़ना। यह जिम्मेवारी तुम्हारी है।
और जब तक यह देश जगत को यथार्थ नहीं मानेगा, तब तक इस देश में सौभाग्य का उदय नहीं हो सकेगा। क्योंकि जो यथार्थ ही न हो जगत, तो विज्ञान कैसे जन्मेगा? और विज्ञान शक्ति है। सपनों का तो क्या विज्ञान बनेगा! कैसी भौतिकी, कैसा रसायनशास्त्र, कैसा गणित? सपनों का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है। तो तुम कैसे न्यूटन पैदा करोगे, कैसे एडीसन पैदा करोगे, कैसे आइंस्टीन पैदा करोगे, कैसे रदरफोर्ड पैदा करोगे? अगर जगत माया है तो इन सबकी कोई जरूरत नहीं।
तुम पैदा करोगे कहीं मुक्तानंद, कहीं अखंडानंद–भोंदुओं की एक जमात, जो उन्हीं-उन्हीं बातों को तोतों की तरह तुम्हें दोहराते रहें और तुम्हारी खोपड़ी में वही गोबर भरते रहें सदियों पुराना और तुम्हें गौमूत्र पिलाते रहें, क्योंकि यह तो पंचामृत है! गोबर मिला लो, गौमूत्र, दूध, घी, दही, पांचों को मिला कर गटक जाओ–पंचामृत हो जाता है! और गऊ की पूजा करो, क्योंकि वैतरणी जब पार करोगे तो यही गऊमाता, इसकी ही पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार कर पाओगे। सो गऊमाता की पूजा करो, संसार माया है ऐसा समझो, हार-जीत में कुछ सार नहीं, धन व्यर्थ है। जब धन व्यर्थ है तो पैदा कैसे करोगे? व्यर्थ को कोई पैदा करने में लगता है?
तुम्हारी गुलामी के बीज शंकराचार्य के इस वक्तव्य में हैं–ब्रह्म सत्य, जगन्मिथ्या। यह तुम्हारी गुलामी का बीज-मंत्र है: जगत मिथ्या है, ब्रह्म सत्य है। तो स्वभावतः जो मिथ्या है, उसमें क्या छीना-झपटी करनी? जो है ही नहीं, उसके लिए क्या लड़ना? आए सिकंदर, आए नादिरशाह, आए चंगेजखान, क्या पड़ी हमें! सपनों को लूट कर ले जाएं, ले जाएं! पागल हैं, अज्ञानी हैं! हम तो ज्ञानी, अपनी धूनी रमाए बैठे रहेंगे! हम तो अपनी माला पर राम-राम जपते रहेंगे! हम तो आंख बंद रखेंगे। ये बाहर के ठीकरे जिनको इकट्ठे करने हों वे कर लें!
और फिर तुम कहते हो कि हम सदियों से गरीब रहे। कौन जिम्मेवार है? चंगेजखान नहीं, तैमूरलंग नहीं, नादिरशाह नहीं, सिकंदर नहीं–शंकराचार्य तुम्हारी गुलामी की आधारशिला रख गए। और एकाध शंकराचार्य होते तो ठीक था, सदियों-सदियों से उसी तरह के लोग, वही बकवास! आज भी वही बकवास जारी है। और मगन भाव से लोग पी रहे हैं इसी कूड़ा-करकट को! इसी को निचोड़-निचोड़ कर, इन्हीं शास्त्रों को दुह-दुह कर अभी भी सत्संग चल रहा है! बीसवीं सदी में भी इस देश में अभी अमावस की रात है, सुबह नहीं हुई।
सुबह उस दिन होगी जिस दिन तुम इस सूत्र को स्वीकार करोगे कि जगत भी सत्य है और ब्रह्म भी सत्य है। मैं तुमसे यही कहना चाहता हूं, दोनों सत्य हैं। और दोनों ही सत्य हों तो ही सत्य हो सकते हैं, एक सत्य नहीं हो सकता। क्योंकि ब्रह्म है भीतर और जगत है बाहर। अगर बाहर का हिस्सा झूठ है तो भीतर का हिस्सा सच नहीं हो सकता। जिस सिक्के का एक पहलू झूठ है, उस सिक्के का दूसरा पहलू सत्य नहीं हो सकता। या तो दोनों पहलू झूठ होंगे, या दोनों पहलू सत्य होंगे। जिस मटकी के बाहर का हिस्सा तो झूठ है, क्या तुम सोचते हो उस मटकी के भीतर का हिस्सा सच होगा? बाहर और भीतर एक ही मटकी को बनाते हैं।
कबीर ने गुरु की परिभाषा में कहा है कि गुरु शिष्य के साथ वही करता है जो कुम्हार मटकी के साथ करता है। जब कुम्हार मटकी बनाता है तो एक हाथ से भीतर सहारा देता है और एक हाथ से बाहर थपकी देता है, तब कहीं मटकी बनती है। भीतर भी सत्य है, उसको भी सहारा देना है; और बाहर भी सत्य है, उसको भी थपकी देनी है। तब कहीं मटकी का आकार आता है। तब कहीं मटकी निर्मित होती है।
हम एक अत्यंत मूर्खतापूर्ण, जड़तापूर्ण दार्शनिकता से परेशान रहे हैं–भीतर तो सत्य है और बाहर मिथ्या! अगर बाहर मिथ्या है तो भीतर यानी क्या? जब बाहर है ही नहीं तो भीतर क्या होगा? भीतर कुछ भी हो सकता है तो बाहर के संदर्भ में ही हो सकता है। हम इस तरह की बकवास कर रहे हैं कि जैसे तख्ता तो झूठ है और तख्ते पर लिखे हुए अक्षर सत्य हैं। जब तख्ता ही झूठ है तो उस पर लिखे अक्षर कैसे सत्य होंगे? जब देह ही झूठ है तो देह के भीतर विराजमान चेतना कैसे सत्य होगी? झूठ के भीतर सत्य कैसे विराजमान हो सकता है? अगर जगत झूठ है तो उसको बनाने वाला कैसे सत्य हो सकता है? उसको चलाने वाला कैसे सत्य हो सकता है?
जगत तो झूठ है, लेकिन ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पूजा चल रही है, जय-जयकार चल रहा है! क्योंकि उन्होंने संसार बनाया–और संसार मिथ्या है! जो है ही नहीं उसको बनाया कैसे? जो है ही नहीं उसको बनाया क्यों? और जो है ही नहीं उसको बनाने वाले कैसे हो सकते हैं? किसको धोखा दे रहे हो?
यह तो यूं हुआ, जैसे स्कूल में एक शिक्षिका ने अपने बच्चों को कहा कि जो भी तुम्हें बात प्यारी हो, उसकी तस्वीर बनाओ। और सारे बच्चों ने तस्वीर बनाने में घंटों लिए। एक छोटा बच्चा, टिल्लू गुरु, चंदूलाल मारवाड़ी का बेटा, एकदम उठ कर खड़ा हो गया और उसने कहा, यह रही तस्वीर!
शिक्षिका भी हैरान हुई। अभी वह कह भी नहीं पाई है पूरी बात और तस्वीर बन भी गई! उसने टिल्लू गुरु की तस्वीर देखी, वहां कुछ भी न था, कोरा कागज था। उसने कहा, यह किस चीज की तस्वीर है?
टिल्लू गुरु ने कहा, यह आधुनिक कला है। जरा गौर से देखिए। गाय खेत में चर रही है।
शिक्षिका ने कहा, यहां तो कोई खेत दिखाई पड़ता नहीं। अरे, खेत हरा होता है और यह तो कोरा सफेद कागज है!
टिल्लू गुरु मुस्कुराए, जैसे ज्ञानियों को मुस्कुराना चाहिए। इसीलिए तो उनका नाम टिल्लू गुरु! मुस्कुराए और बोले कि अब हरी घास कहां से होगी, गाय तो घास चर गई!
शिक्षिका ने पूछा, चलो यह भी ठीक कि गाय घास चर गई, मगर गाय कहां है?
टिल्लू गुरु और भी मुस्कुराए। उन्होंने कहा कि जब गाय घास चर गई तो घर चली गई। अब गाय यहां क्या भाड़ झोंकेगी? अब जब घास ही नहीं बची तो गाय क्यों रुके?
न गाय है, न घास है–और तस्वीर पूरी हो गई! और परमात्मा ने यह विराट सृष्टि रची–और यह सब मिथ्या है! न गाय, न घास! और परमात्मा महान सर्जक है! खूब आधुनिक कला जानता है तुम्हारा परमात्मा!
जिन्होंने तुम्हें समझाया है कि जगत झूठ है, उन्होंने तुम्हारे पैरों के नीचे से जमीन खींच ली। उन्होंने तुम्हें नपुंसक बना दिया। उन्होंने तुम्हें दीन बना दिया, हीन बना दिया। और उन्हीं की तुम अभी भी पूजा किए चले जा रहे हो। अब भी तुम्हें बोध नहीं आया, होश नहीं आया। अब भी तुम्हें अकल नाम की चीज छू भी नहीं गई!
पहली तो बात है कि जगत सत्य है। और जगत सत्य हो तो फिर जगत से ऊर्जा निर्मित होती है, फिर जगत की ऊर्जा को काम में संलग्न किया जा सकता है। फिर जगत की ऊर्जा को संपत्ति में बदला जा सकता है। फिर विज्ञान होगा, तकनीक होगा, उद्योग होंगे।
पश्चिम अगर समृद्ध हो गया है तो यूं ही नहीं हो गया है। कोई परमात्मा खुश नहीं हो गया कि उसने खुश होकर एकदम छप्पर फाड़ दिया और धन बरस गया। आदमी ने मेहनत की है। और आदमी मेहनत कर सका, क्योंकि पश्चिम कभी इस मूर्खतापूर्ण विचार में नहीं पड़ा कि जगत माया है। बहुत और गलतियां की होंगी पश्चिम ने, लेकिन यह बुनियादी गलती नहीं की कि जगत माया है। और इस बुनियादी गलती के न करने के कारण शक्तिशाली हो सका। और शक्ति में ही आ जाती है संपदा।
यहां तो हरेक कोई समझा रहा है कि सुख धन से नहीं पाया जा सकता। चाहे जिस सत्संग में चले जाओ–जैनों का सत्संग हो, कि हिंदुओं का सत्संग हो, कि ईसाइयों का सत्संग हो, कि मुसलमानों का सत्संग हो–इस देश में तो जो भी सत्संग चल रहे हैंवे एक ही बात समझा रहे हैं: सुख धन से नहीं खरीदा जा सकता।
कहा किसने तुमसे कि सुख धन से खरीदा जा सकता है? लेकिन और चीजें खरीदी जा सकती हैं–रोटी खरीदी जा सकती है, कपड़े खरीदे जा सकते हैं, छप्पर खरीदा जा सकता है। और सुख तो बहुत बाद की जरूरत है, पहले रोटी तो चाहिए, कपड़े तो चाहिए, छप्पर तो चाहिए। ये ही न होंगे तो सुख कैसे होगा? माना कि धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता, लेकिन धन से वे चीजें खरीदी जा सकती हैं जिनके बिना सुख कभी नहीं पाया जा सकता।
मैं तुमसे यह दूसरा सत्य भी बहुत स्पष्ट भाषा में कह देना चाहता हूं: धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता, लेकिन धन के बिना भी सुख की संभावना नहीं बचती। जिन्होंने तुमसे कहा है कि धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता, उनसे तुम यह पूछो कि क्या निर्धनता से सुख खरीदा जा सकता है? यह सवाल ही कोई नहीं पूछता। क्या निर्धनता से सुख खरीदा जा सकता है? लेकिन यही छिपी हुई तर्क पद्धति है: धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता, इसका मतलब है कि निर्धन होने में बिलकुल मजा है। क्यों चिंता में पड़ते हो धन की? जब धन से सुख मिलना ही नहीं और न मालूम कितनी अशांति, चिंता, विचार पैदा होंगे; इससे तो निर्धन होना अच्छा।
तो महावीर ने धन छोड़ दिया, इसलिए हम पूजा करते हैं महावीर की। तो फिर दरिद्रता के लिए क्यों रोते हो? बुद्ध ने महल छोड़ दिए, इसलिए हम पूजा करते हैं बुद्ध की। तो फिर दरिद्रता के लिए आंसू क्यों बहाते हो? तो तुम ज्यादा धन्यभागी हो बुद्ध और महावीरों से; उनको तो बेचारों को धन छोड़ना पड़ा। भगवान की तुम पर बड़ी अनुकंपा है, तुम्हें दिया ही नहीं! तुम्हें पहले से ही बुद्ध और महावीर की स्थिति में पैदा किया।
महावीर को तो कपड़े छोड़ने पड़े, इतनी चेष्टा तो करनी ही पड़ी। वह काम भगवान ने तुम्हारे लिए पहले ही कर दिया, बिना ही कपड़ों के भेज दिया। महावीर को तो उपवास करके बड़ी मेहनत से साधना करनी पड़ी; इस देश में आधे देश को तो भगवान उपवास करवा ही रहा है। जिनको उपवास नहीं करवा रहा है, वे भी कम से कम एकासन कर रहे हैं, एक ही बार भोजन लेते हैं। भोजन भी ज्यादातर कचरा है, जिसमें न तो पौष्टिकता है, न वे सूक्ष्म तत्व हैं जिनसे बुद्धि विकसित होती है; जिसमें बुनियादी रूप से कमी है; जिसमें वैज्ञानिक रूप से अभाव है। मगर धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता; इसलिए धन के पीछे क्यों दौड़ना? इसलिए धन को पैदा करने में क्यों लगना? और धन में है ही क्या! अरे, हाथ का मैल है!
क्या-क्या बातें! और अब भी तुम इन बातों को सुन रहे हो। तीन हजार, चार हजार साल से यह बकवास चल रही है, इसका फल भी खूब भोगा। सारी जिंदगी कांटों से छिद गई। जहां फूल की शय्याएं हो सकती थीं, वहां कांटे ही कांटे बिछ गए। और अभी भी तुम्हें खयाल है इस बात का कि भारत को अपनी निजता…।
और तुम्हारी निजता क्या है? तुम निजता को खोजने कहां जाओगे? तुम इसी सड़े-गले अतीत में अपनी निजता को खोजोगे–इन्हीं शास्त्रों में, इन्हीं गुरुओं में, इन्हीं पाखंडियों में, इन्हीं ऊंची-ऊंची बातें करने वालों में, जिन्होंने तुम्हें गड्ढों में गिरा दिया। बातें तो उनकी आकाश की हैं, लेकिन पहुंचा दिया पाताल में। बातें बड़ी प्यारी, लेकिन परिणाम बड़े कष्टपूर्ण। क्या तुम्हारी निजता? तुम्हें थोड़ी अपनी निजता खोनी होगी। यह अतिशय निजता का आग्रह घातक सिद्ध हुआ है, अब और नहीं। बहुत हो चुका।
तुमने पूछा, ‘भारत के लोग सदियों से गुलाम और गरीब रहने के कारण भयानक हीनता के भाव से पीड़ित हैं…।’
मगर कौन इन्हें गरीब कर रहा है? कौन इन्हें दीन कर रहा है? कौन इन्हें दास बना रहा है? तुम्हारी मनोवृत्ति अभी भी पीछा नहीं छोड़ रही।
महात्मा गांधी दरिद्रों को नया नाम दे गए–दरिद्रनारायण। अब जब दरिद्र नारायण हो तो दरिद्र को मिटाना कैसे? नारायण को मिटाओगे क्या? नारायण की तो पूजा होती है। मंदिर में स्थापित करो गरीब को, पूजा करो इसकी! धन्यभागी है, गरीब है! अछूतों को हरिजन कह गए। हम तो शब्दों में बड़े होशियार हो गए हैं। कहां तो हम हरिजन कहते थे उन लोगों को जिन्होंने परमात्मा को पा लिया और कहां महात्मा गांधी भंगी-चमारों को हरिजन कह गए। हरि को तो जाना नहीं और हरिजन हो गए! इससे तो अछूत शब्द अच्छा था। उसमें दंश था, पीड़ा थी। हरिजन शब्द तो बड़ा मिठास भरा हो गया। भीतर जहर है, ऊपर थोड़ी-सी चासनी है। अब गटक जाओ। अब तो हरिजन होने में बड़ा मजा आ गया!
दरिद्रता को मिटाना है कि पूजा करनी है उसकी? दरिद्रनारायण! तो मंदिर बनाओ!

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३