शास्त्रीय सत्यों में उलझा हुआ आदमी कभी भी सनातन सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता “ओशो”

 शास्त्रीय सत्यों में उलझा हुआ आदमी कभी भी सनातन सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता “ओशो”

ओशो- सनातन का अर्थ ही यह है, शाश्वत का अर्थ ही है यह कि हम उसे जान सकते हैं लेकिन कह नहीं सकते। कहना शामिल हो जाता है। सब भाषा समय की भाषा है। सब प्रतीक समय के प्रतीक हैं। सब कहना समय का कहना है।

सनातन सत्य कहीं भी नहीं है, जिनको आप पकड़ कर बैठ जाएं। सनातन सत्य जरूर है जिसे अगर पाना हो तो शब्दों की पकड़ छोड़ देनी पड़ती है। जिसे भी सनातन सत्य तक जाना हो उसे और सभी सत्यों से, शास्त्रीय सत्यों से छुटकारा पाना होगा। शास्त्रीय सत्यों में उलझा हुआ आदमी कभी भी सनातन सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। शब्दों और सिद्धांतों में उलझा हुआ चित्त इतना निर्विकार नहीं हो पाता जो उस निराकार को जान ले। शब्दों का भी अपना आकार है, हर शब्द का अपना आकार है, और जो चित्त शब्दों से भरा है वह कभी आकार से ऊपर नहीं उठ पाता।

शायद आपको पता न हो कि हर शब्द की अपनी एक छवि है। अगर आप एक पतले से कागज पर रेत के बहुत बारीक कण बिछा दें, और नीचे से शब्द करें, नीचे से कहें राम, तो उस पतले कागज पर एक खास तरह की पैटर्न लहरों की, एक खास तरह की जाली उस रेत में बन जाएगी। आप नीचे से कहें अल्लाह तो दूसरे तरह की जाली बनेगी। आप नीचेे से कहें ओम तो दूसरी तरह की जाली बनेगी। वे जो रेत के कण हैं तत्काल एक पैटर्न एक ढांचे में बन जाएंगे। हर शब्द की अपनी ध्वनि है, हर शब्द का अपना रूप है, हर शब्द का अपना आकार है, हर शब्द का अपना रंग भी है। और हर शब्द हमारे भीतर जगह को घेरता है। जितने ज्यादा शब्द भीतर हों, चाहे वे कितने ही पुनीत शास्त्रों से आए हुए हों।

और चाहे कितने ही पवित्र ग्रंथों से लिए गए हों उनके कारण भीतर निराकार का दर्शन नहीं हो पाता। और वह जो सनातन है, वह निराकार है। सब शब्द छोड़ कर जो शून्य में प्रवेश करता है, वह ही केवल सनातन सत्य को जान पाता है लेकिन जिसे हम शून्य में जानते हैं उसे अगर हम शब्द में कहने जाएंगे तो विकृति होनी अनिवार्य है। यह ऐसा ही है, जैसे कि समझें-आप मेरे घर आएं और, मैं वीणा पर कुछ बजाऊं और आप सुन कर लौटें, और आप ऐसे लोगों के पास पहुंच जाएं जो बहरे हों, और आप उनसे कहें कि वीणा बहुत आनंदपूर्ण थी, बहुत रस आया, संगीत था, बहुत ध्वनि थी, बहुत सुंदर, प्राण खिल गए।

बहुत सुंदर फूल खिल गए वह कुछ भी न सुनें। वे आपसे कहें कि आप चित्र बना कर बता दो तो थोड़ा हम समझ पाएं। बहरे लोग उनके पास आंखें हैं, मैंने जो आपसे संगीत में बजाया अगर आप कागज पर चित्र बना कर बताएं तो जो हालत हो जाए वही हालत जिसे हम शून्य में जानते हैं, उसे शब्द में कहने में निरर्थक हो जाती है। माध्यम बदल जाते हैं

यह कोई भी सनातन सत्य आज तक नहीं कहा गया कहने की बहुत बार कोशिश की गई है। कम्युनिकेट करने के बहुत प्रयास किए गए हैं लेकिन सनातन सत्य नहीं कहा गया, और जिन्होंने भी कहा है उन्होंने भी यह साफ से कहा है कि जो कहना था वह शब्दों में नहीं कहा जा रहा है। जो कहना था वह प्रवचन से उपलब्ध नहीं हो सकता है। न प्रवचन में लब्ध। वह नहीं मिलेगा उपदेश से, नहीं मिलेगा शब्द से।

लाओत्सु ने जिंदगी भर कोई किताब नहीं लिखी। क्योंकि जब भी लोगों ने कहा कि जो तुमने जाना है वह लिख दो तो उसने कहा कि जो मैंने जाना है उसे जब लिखने जाता हूं तो नहीं लिखा जाता। और जो लिखा जाता है वह मैंने जाना नहीं है। इस झंझट में मैं न पडूंगा। उस समय के लोग नहीं माने।

लाओत्सु देश छोड़ कर पहाड़ की तरफ जा रहा था, तो देश के सम्राट ने लाओत्सु को चुंगी नाके से पकड़वा लिया और उसने कहा कि जब तक लिख कर न जाओगे तब तक हम जाने नहीं देंगे। मजबूरी में लाओत्सु ने एक छोटी सी किताब लिखी, किताब का नाम है : ताओतेह किंग। उस छोटी सी किताब में थोड़ी सी बातें लिखी हैं, और उन थोड़ी सी बातों में भी सर्वाधिक बार-बार जो बात लिखी है वह यह है कि जो मैं कह रहा हूं उस पर विश्वास मत कर लेना। क्योंकि जो मैंने जाना वह कुछ और है। जो पहली बात उस किताब में लिखी है वह यह लिखी है कि सत्य कहा नहीं जाता और जो कहा जा सकता है वह कहने के साथ ही सत्य नहीं रह जाता। सनातन सत्य अगर आपके हाथ में होते तब तो उन्हें छोड़ने की कोई जरूरत ही न थी।

आपके हाथ में सनातन सत्यों के नाम पर केवल सामयिक सत्य हैं, वे हो सकते हैं कि कोई दो हजार साल पहले के समय के हों। कोई पांच हजार साल पहले के समय के हों। कोई और दस हजार साल समय के पहले के हों इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता लेकिन किसी समय की धारा में प्रकट हुए शब्दों का हमारे पास संग्रह है।

चाहे उसका नाम हम कुछ भी देते हों, चाहे हम वेद कहें चाहे हम बाइबिल कहें, चाहे गीता, चाहे कुरान हम कोई भी नाम दें हमारे पास समय शून्य से उतरी हुई, समय की धारा में जो शब्दों की भाषा में झलक आई है, आकृति आई है वही हमारे पास है। यह ऐसा ही है जैसे कि मैं किसी नदी के किनारे खड़ा हो जाऊं और पानी की झलक, पानी के दर्पण में मेरा चित्र बने और उस चित्र को, पानी में बने हुए प्रतिबिंब को समझ लूं कि मैं हूं और उसी को पकड़ कर बैठ जाए।

समय के बाहर, बियांड टाइम जो सत्य हैं उनका समय की धारा में प्रतिबिंब बनता है। हम उन्हीं प्रतिबिंबों को पकड़ लेते हैं। उन प्रतिबिंबों को पकड़ कर हजारों वर्षों तक बैठे रह जाते हैं। हाथ में कुछ नहीं रह जाता सिर्फ, पानी की लहरें होती हैं, कोई भी प्रतिबिंब नहीं होता। उन्हीं प्रतिबिंबों को पकड़ कर यदि कोई सोचता हो कि हमारे पास तो पुराने सत्य हैं हम नये की खोज क्यों करें तो उससे ज्यादा गहरी भ्रांति में और कोई न पड़ेगा। उससे ज्यादा गहरे असत्य में कोई न पड़ेगा। असत्य में पड़ने की सबसे सरल तरकीब एक है, और वह है कि यह मान लेना कि सत्य हमारे पास सनातन और परंपरा से चले आ रहे हैं हम उन्हीं को पकड़ कर जी लेंगे। खोज की कोई भी जरूरत नहीं। ध्यान रहे, प्रत्येक व्यक्ति को जिसने सत्य को जाना है उसे पुनः-पुनः खोजना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति को सत्य निजी तौर से खोजना पड़ता है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

मैं कौन हूं–प्रवचन-09