जीवन में रस बिलकुल स्वाभाविक है क्योंकि यह परमात्मा का ही दिया हुआ है “ओशो”

 जीवन में रस बिलकुल स्वाभाविक है क्योंकि यह परमात्मा का ही दिया हुआ है “ओशो”

ओशो- जीवन जैसा है वैसी ही मृत्यु होगी। जो उस पार है वैसा ही इस पार होना पड़ेगा। जैसे तुम यहां हो वैसे ही वहां हो सकोगे। क्योंकि तुम एक सिलसिला हो, एक तारतम्य हो। ऐसा मत सोचना कि मृत्यु के इस पार तो अंधेरे में जीयोगे और मृत्यु के उस पार प्रकाश में। जो यहां नहीं हो सका, वह केवल शरीर छूट जाने से नहीं हो जायेगा। तुम तुम ही रहोगे। मौत से कुछ भेद नहीं पड़ता है। तुम आनंदित थे जीवन में, तो मृत्यु के पार भी आनंदित रहोगे; मृत्यु के मध्य भी आनंदित रहोगे। तुम दुखी थे तो मृत्यु तुम्हें सुख न दे पायेगी। अगर तुम जीवन में नर्क में हो तो जीवन के पार भी नर्क ही तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा। इसे तुम ठीक से समझ लो।
आदमी बहुत बेईमान है। टालने की बड़ी इच्छा होती है। वह सोचता है: कर लेंगे। मुक्त भी होना है तो मृत्यु के बाद, अभी तो कुछ जल्दी नहीं है। प्रभु स्मरण भी करना है तो कर लेंगे मरते समय, कर लेंगे तीर्थ-यात्रा, मरते समय सुन लेंगे पाठ। बुढ़ापे में संन्यास।
कल पर हम छोड़ते हैं; आज तो जी लें उसी ढांचे में, जिसमें हम जीते रहे हैं। आज तो कर लें बुरा, कल अच्छा कर लेंगे। अच्छे को हम टालते हैं, बुरे को हम कभी नहीं टालते। तो बंधन तो आज, मुक्ति कल–ऐसा हमारा गणित है। इस गणित को तोड़ने का उपाय है जीवनमुक्त सत्य में।
जीवन में ही मुक्ति हो, तो ही मुक्ति होगी। जीते-जी जागोगे, तो ही जागोगे। सोचो, जीते-जी जो न जाग सका, वह मरने में कैसे जागेगा? मृत्यु तो जीवन का चरम निष्कर्ष है। मृत्यु तो कसौटी है। तुम्हारे जीवन भर का सारा सार-संचित मृत्यु के क्षण में तुम्हारी आंखों के सामने प्रगट हो जायेगा। मृत्यु तो निर्णायक है। वह तो सारे जीवन की कथा का सार-निचोड़ है।
मृत्यु में जीवन समाप्त नहीं होता, तुम सारे जीवन को इकट्ठा करके नई यात्रा पर निकल जाते हो। अगर तुम क्रोधित थे तो तुम्हारी मृत्यु में भी क्रोध होगा। अगर तुम दुखी थे तो दुख की घनी अमावस होगी। अगर तुम्हारे जीवन का प्रत्येक पल प्रफुल्ल था, आनंदमग्न थे, नृत्य था, गीत था, संगीत था, सुगंध थी–तो मृत्यु महोत्सव हो जायेगी।
व्यक्ति जैसा जीता वैसा ही मरता। हम अलग-अलग जीते ही नहीं, हम अलग-अलग मरते भी हैं। हमारी जीवन-शैली ही भिन्न नहीं होती, हमारी मृत्यु-शैली भी भिन्न होती है। तुम न तो ठीक से जीते न तुम ठीक से मरते। तुम अंधे की तरह जीते हो, अंधे की तरह मरते हो। इसलिए मृत्यु का पूरा दर्शन नहीं हो पाता।
जर्मनी का महाकवि गेटे मरण-शय्या पर पड़ा था। उसने आंख खोली, उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट फैल गई। और उसने कहा: ये दीये बुझा दो। उसके आसपास दीये जल रहे थे। उसने कहा: ये दीये बुझा दो, क्योंकि अब मुझे महाप्रकाश दिखाई पड़ने लगा है। आंख बंद कर ली और मर गया। अब इन दीयों की कोई जरूरत नहीं है। अब मिट्टी के दीये आवश्यक नहीं। अब चैतन्य का दीया जल उठा है।
ऐसी प्रतीति तो तभी हो सकती है जब तुमने जीवन की रत्ती-रत्ती स्वर्णमय बना ली हो। जब प्रकाश तुम्हारे जीवन के कण-कण से झरा हो, तो ही मृत्यु के क्षण में महासूर्य प्रगट होगा।
इसलिए मृत्यु का अनुभव सभी का अलग-अलग है। और जब तक मृत्यु तुम्हें मुक्ति जैसी अनुभव न हो, समझना जीवन व्यर्थ गया। जब तक मृत्यु तुम्हें प्रभु के द्वार पर खड़ा न कर दे, मृत्यु में तुम्हें प्रभु की भुजायें स्वागत करती हुई न मिलें, उसकी बांहें फैली हुई तुम्हारे आलिंगन को तत्पर न हों–तब तक समझ लेना कि जीवन व्यर्थ गया। मृत्यु ने प्रमाण-पत्र नहीं दिया। तुम्हें फिर आना पड़ेगा।
मुक्त का अर्थ होता है: जो फिर न आयेगा, जो दुबारा न आयेगा। बुद्ध ने उसके लिए शब्द दिया है: ‘अनागामिन’, जो फिर नहीं आयेगा, जो दुबारा नहीं लौटेगा। मुक्त का अर्थ है, जिसने जीवन का पाठ सीख लिया; अब इस पाठशाला में दुबारा आने की जरूरत नहीं होगी।
मृत्यु में अगर तुम्हें मुक्ति अनुभव हो जाये तो बस फिर कोई जन्म नहीं है। लेकिन मृत्यु में मुक्ति अनुभव कैसे होगी? जीवन में ही अनुभव नहीं हुई तो मृत्यु में कैसे अनुभव होगी? जब सब सुविधा थी, जब आंखें साबित थीं, हाथ-पैर स्वस्थ थे, मन में बल था, भीतर ऊर्जा थी; जब तरंग थी मौजूद; जब तुम चढ़ सकते थे लहर पर और दूर के किनारों तक यात्रा कर सकते थे; जब पाल भर खोल देने की जरूरत थी और जीवन की हवायें तुम्हें दूर की यात्रा पर ले जातीं–तब तुम इंच भर न हिले। तो मृत्यु के क्षण में जब सब शिथिल हो जायेगा, पाल फट जायेगा, हवायें सो जायेंगी, ऊर्जा खो जायेगी, सब तरफ गहन सन्नाटा होने लगेगा, तुम थके-हारे गिरने लगोगे कब्र में–तब! तब तुम कैसे कर पाओगे? तब बहुत मुश्किल हो जायेगा।
टालो मत। जो करना है उसे आज कर लो। कल पर भी मत टालो; क्योंकि कल मृत्यु है, जीवन आज है। जीवन सदा आज है। मृत्यु सदा कल है। अभी तक तुम मरे नहीं। आज तो जीवन है। अभी तो जीवन है। क्षण भर के बाद की कौन कहे! क्षण भर बाद तुम हो या न हो, इस जीवन का उपयोग कर लो।
इस जीवन का उपयोग तुम करते हो क्षुद्र में, व्यर्थ में; और सोचते हो: कल, जब सब काम चुक जायेगा, जीवन की दूकान बंद करने का समय आ जायेगा, तब फिर याद कर लेंगे परमात्मा को। तुम धोखा दे रहे हो, अपने को धोखा दे रहे हो।
हो गये। साधारणतः जीवन और परमात्मा के बीच एक विरोध खड़ा कर दिया, एक द्वंद्व खड़ा कर दिया है। और बड़े आश्चर्य की बात है, यह उन्हीं लोगों ने जो अद्वैत की बात करते हैं; उन्हीं लोगों ने जो कहते हैं निर्द्वंद्व हो जाओ, जिनकी सारी शिक्षा निर्द्वंद्व की है, उन्हीं ने यह भेद खड़ा कर दिया है। तो तुम्हें बड़ी फांसी लग गई है, तुम्हारे गले में। ऐसा लगता है जीवन में रस लिया तो अपराध हो गया और जीवन में रस न लो, तभी परमात्मा मिलेगा।
अब जीवन में रस बिलकुल स्वाभाविक है–परमात्मा का ही दिया हुआ है। वह रसधार उसी ने बहाई है। तुम्हारा हाथ नहीं है जीवन के रस में। तुम्हारा हाथ होता तो तुम अलग भी कर लेते। तुम्हारे हाथ में परमात्मा का ही हाथ पिरोया हुआ है। तुम अलग न कर पाओगे। यह कोई तुम्हारी मर्जी थोड़े ही है कि जीवन में रस है, कि फूल सुंदर लगते हैं, कि संगीत मस्ती से भर देता है, कि नीले आकाश को देख कर मन शांत होता है, कि सौंदर्य को देख कर मन पुलकित होता है। यह रस बहता है; यह तुम्हारा कुछ अपना निर्णय थोड़े ही है। ऐसा तुमने पाया है। ऐसी प्रभु की मर्जी है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 

अष्टावक्र महागीता