ओशो- लाओत्से कहता है, “सर्वश्रेष्ठ शासक कौन है? जिसके होने की भी खबर प्रजा को न हो।”
पता ही न चले कि वह भी है, क्योंकि होने की खबर भी हिंसा है। अगर बेटे को पता चलता है कि घर में बाप है, तो बाप की तरफ से कोई न कोई हिंसा जारी है। अगर पति को पता चलता है कि घर में पत्नी है और दरवाजे पर सम्हल कर, टाई वगैरह ठीक करके भीतर प्रवेश करना पड़ता है, तो समझना कि हिंसा है। अगर पति के आने से पत्नी वैसी ही नहीं रह जाती, जैसी अकेले में थी, तो समझना कि पति की तरफ से हिंसा है। होने का पता ही नहीं चलना चाहिए। प्रेम की परम अभिव्यक्ति वह है, जिसमें प्रेमी का पता ही न चले, उसकी मौजूदगी कहीं भी चोट न करे।
ध्यान रखें, चोट से ही पता चलता है। संस्कृत में बड़े कीमती शब्द हैं। एक शब्द है वेदना। वेदना के दो अर्थ होते हैं, दुख भी और ज्ञान भी। वेद का अर्थ होता है ज्ञान। उसी विद से बनता है विद्वान, जानने वाला; और उसी से बनता है दुख। एक ही शब्द के दो अर्थ और बड़े अजीब! अगर वेदना का अर्थ दुख और ज्ञान भी हो, तो समझ में नहीं पड़ता, दुख और ज्ञान में क्या संबंध है? अगर दुख की जगह सुख और ज्ञान होता, तो संबंध बन भी सकता था।
लेकिन संबंध है। आपको दुख का ही ज्ञान होता है, सुख का नहीं। इसलिए जिन क्षणों को आप कहते हैं कि बड़े सुख में बीते; वे वे क्षण हैं, जिनके बीतते वक्त आपको उनका पता भी नहीं चला। दुख का बोध होता है। पैर में कांटा गड़ जाए, तो पैर का पता चलता है; नहीं तो पैर का पता नहीं चलता। सिर में दर्द हो, तो सिर का पता चलता है; नहीं तो सिर का पता नहीं चलता।
तो जिस आदमी को सिर का पता चलता हो, उसे जानना चाहिए कि उसे सिर की कोई बीमारी है। जिस आदमी को शरीर का पता चलता हो, उसका अर्थ है कि वह बीमार है, रुग्ण है। स्वास्थ्य की एक ही परिभाषा है कि शरीर का पता न चले। स्वस्थ आदमी विदेह हो जाएगा, उसे पता ही नहीं चलेगा कि देह भी है। सिर्फ बीमार आदमी के पास शरीर होता है, स्वस्थ आदमी के पास नही, क्योंकि बीमारी से शरीर का बोध होता है।
दुख, बोध एक ही बात है। जिसकी मौजूदगी पता चले, उससे आपको कोई दुख मिल रहा है। जिसकी मौजूदगी पता न चले, उससे ही आनंद मिलता है। अगर दो प्रेमी एक कमरे में बैठे हैं, तो वहां दो व्यक्ति नहीं बैठे। वहां एक-दूसरे से एक-दूसरे को कोई बोध नहीं है। वहां एक ही चेतना रह गई है।
लाओत्से कहता है, सर्वश्रेष्ठ शासक वह है, जिसके होने का पता ही शासितों को न चले।
शायद परमात्मा के अतिरिक्त ऐसा और कोई शासक नहीं है। पर उसका हमें पता नहीं चलता। खोजें, तो भी पता नहीं चलता। अगर पता लगाने जाएं हिमालय में या काशी, मक्का, मदीना भटकें, तो भी पता नहीं चलता।
थोड़ा खयाल करें। आपके मन की एक इच्छा होती है कि आप जहां भी जाएं, वहां लोगों को पता चले कि आप आए हैं। कितना उपाय नहीं करते हैं हम इसका कि लोगों को पता चले कि आप आ गए। आप इस भवन में आएं और किसी को पता न चले, तो आप बड़े पीड़ित हो जाएंगे।
आसपेंस्की पहली दफा जब गुरजिएफ को मिलने गया, तो बीस लोग बैठे थे। आसपेंस्की बड़ा बुद्धिमान, गणितज्ञ और वैज्ञानिक चिंतक था–अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध। गुरजिएफ को कोई जानता भी नहीं था। किसी अचेतन मन में आसपेंस्की ने सोचा होगा: गुरजिएफ उठ कर मिलेगा, तो जो लोग बैठे होंगे, चमत्कृत होंगे कि आसपेंस्की जैसा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का व्यक्ति अनजान गुरजिएफ से मिलने आया है! वहां गुरजिएफ के सिवा बीस लोग और बैठे थे। आसपेंस्की जब भीतर गया, तो हैरान हुआ क्योंकि ऐसा मरा हुआ कमरा उसने कभी देखा ही नहीं था। उन बीस में से कोई भी नहीं हिला, किसी ने आंख भी उसकी तरफ न की। उन बीस ने जैसे जाना ही नहीं कि कोई आया। गुरजिएफ भी वैसा ही बैठा रहा, जैसा बैठा था।
आसपेंस्की जाकर खड़ा हो गया। बड़ा अजीब परिचय का क्षण था। यह भी न पूछा–कैसे आए? यह भी न पूछा–कौन हैं? यह भी न कहा–बैठें, कृपा करें। सर्द रात थी। आसपेंस्की ने लिखा है कि माथे पर मेरे एक क्षण में पसीना झलकने लगा। यह मैं कहां आ गया हूं? वहां से वापस लौटने की हिम्मत भी न रही। वहां मैं जड़ की तरह खड़ा रह गया। कोई कहे कि बैठो, तो बैठ भी जाऊं। लेकिन वहां कोई देखता ही नहीं है। मिनट, दो मिनट…! आसपेंस्की ने लिखा कि पहली दफे मुझे समय का बोध हुआ कि समय कितनी भारी चीज है। मेरे सिर पर जैसे पहाड़ गुजरने लगा। क्या होगा अंत? जो आदमी दरवाजे पर छोड़ कर गया था, वह दरवाजा बंद करके लौट गया।क्या रात ऐसे ही बीतेगी? यह तो नरक हो गया। वे लोग इतने चुप और मूर्तिवत बैठे है कि अपनी तरफ से उस मौन को भंग करना भी अशिष्टता मालूम पड़ती है।आसपेंस्की ने लिखा कि मैं बिलकुल नाचीज मालूम पड़ने लगा, जैसे मैं कुछ भी नहीं हूं।
कोई पंद्रह मिनट यह हालत रही। तब गुरजिएफ ने चेहरा ऊपर उठा कर देखा और कहा, पसीना पोंछ लो, रात ऐसे ही बहुत सर्द है; बैठ जाओ। हमने जान कर ही यह किया। हम जानना चाहते थे कि तुम कैसे व्यक्ति हो। क्या तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारी उपस्थिति अनुभव करें। क्योंकि हम इसे हिंसा मानते हैं। तुम पंद्रह मिनट भी बर्दाश्त न कर सके। तुम पंद्रह मिनट भी ऐसे न हो सके, जैसे मौजूद ही न हो! अगर तुम ऐसे हो सकते, तो फिर मेरे पास तुम्हें सिखाने को कुछ भी नहीं था। लेकिन तुम ऐसे नहीं हो सके, तो मुझे तुम्हें सिखाने को बहुत कुछ है। तुम हिंसक हो।
हम हिंसा बहुत तरह से करते हैं। प्रकार अनेक हो सकते हैं। एक आदमी ऐसे वस्त्र पहन कर या ऐसी चाल-ढाल से आ जाता है कि आपको देखना ही पड़े। हर आदमी शोरगुल करता आता है, चाहे कितना ही चुप आ रहा हो। हर आदमी धक्का देता आता है, चाहे कितना ही धक्कों से बचता आ रहा हो। हर आदमी खबर लाता है कि मैं आ गया हूं।
सिर्फ परमात्मा ऐसी कोई खबर नहीं करता। नास्तिक कहते हैं, वह दिखाई पड़े, तो हम मान लें। नास्तिक कहते हैं कि वह भी हमारी ही तरह सूचना दे अपनी मौजूदगी की, तो हम मान लें।
नास्तिकों को पता नहीं कि परमात्मा के होने का गहरा गुण यही है कि वह न होने जैसा हो, उसका कोई पता न चले। जिस दिन परमात्मा का पता चल जाए, उस दिन वह भी परमात्मा न रहा। जिस दिन वह स्वयं अपनी घोषणा करने लगे, उस दिन वह भो परमात्मा न रहा। जिस दिन वह आकर आपकी गर्दन हिला कर आपको कहने लगे कि मैं यहां हूं, देखो, मैं यहीं हूं, तुम बिना देखे ही चले जा रहे हो,।उस दिन वह परमात्मा न रहा।
परमात्मा का अर्थ है कि जिसकी उपस्थिति-अनुपस्थिति में रंच मात्र का फर्क नहीं है। जिसके लिए एब्सेंस और प्रेजेंस, दोनों शब्द पर्यायवाची हैं, जिसके उपस्थित होने का ढंग ही अनुपस्थिति है।
तो लाओत्से कहता है, श्रेष्ठतम शासक वहीं है, जिसके होने की खबर भी प्रजा को न हो।
ईश्वर के सिवाय ऐसा कोई शासक नहीं है। इसलिए पुराने दिनों में, कम से कम लाओत्से के समय के, कोई दो-ढाई हजार वर्ष पहले, ईश्वर का अवतार सम्राट को मानते थे। अब तो ऐसा लगता है कि वह चालबाजी थी। अब दो-तीन सौ वर्षों में जो चिंतन चला है, उसने समझाया है कि यह सब शरारत थी, यह पुरोहितों और राजाओं का षडयंत्र था। बहुत दूर तक यह सही भी है; लेकिन पूरे रूप से सही नहीं है। कभी-कभी कोई राजा ऐसा भी हुआ है, जिसकी उपस्थिति का प्रजा को न के बराबर पता चला। तब उस राजा को लाओत्से जैसे लोगों ने ईश्वरीय कहा है; जिसके होने का पता ही न चला हो या कम से कम पता चला हो। इतना ही पता चला हो कि वह है, और कोई खबर न मिली हो।