दुनिया में अधर्म तब तक बढ़ता ही चला जाएगा, जब तक हम धर्म की भी वासना करते रहेंगे

 दुनिया में अधर्म तब तक बढ़ता ही चला जाएगा, जब तक हम धर्म की भी वासना करते रहेंगे

ओशो- स्थितप्रज्ञ बड़ा मीठा शब्द है। अर्थ है उसका जिसकी प्रज्ञा अपने में ठहर गई, जिसका बोध अपने में रुक गया, जिसकी चेतना स्वयं को छोड़ कर कहीं भी नहीं जाती। ठहर गई चेतना जिसकी, ऐसा यति, ऐसा साधक, ऐसा संन्यासी, सदा आनंद को पाता रहता है।
मन के तल पर है सुख और दुख, द्वंद्व; शांति—अशांति, द्वंद्व; अच्छा—बुरा, द्वंद्व, जन्म—मृत्यु, द्वंद्व; मन के पीछे हटते ही निर्द्वंद्व है, आनंद है। आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है, वह द्वंद्व के बाहर है। और जो द्वंद्व के बाहर है, ऐसा यति सदा आनंद को पाता रहता है।
हमारी बड़ी तकलीफ है! हमारी तकलीफ यह है कि आनंद तो हम भी पाना चाहते हैं। और इस तरह की बातें सुन कर हमारा लोभ जगता है कि अगर आनंद सदा मिले, तो फिर हम भी पाना चाहते हैं। कोई रास्ता बता दे, तो सदा आनंद को हम भी पा लें।
लेकिन ध्यान रखना, यह जो परिभाषा है, यह केवल स्थिति—सूचक है। अगर इससे वासना का जन्म होता है तो आप इस स्थिति को कभी न पाएंगे। इसका फर्क ठीक से समझ लें।
एक मित्र मेरे पास आए. जल्दी से मुक्ति हो जाए; ध्यान लग जाए; समाधि आ जाए—जल्दी से! तो मैंने उनको कहा कि जितनी जल्दी करिएगा, उतनी देर हो जाएगी। क्योंकि जल्दी करने वाला मन शांत हो ही नहीं सकता। जल्दी ही तो अशांति है।
और हम सब अनुभव करते हैं कि कभी—कभी जल्दी में कैसी मुश्किल हो जाती है। ट्रेन पकड़नी है और जल्दी में हैं। तो जो काम दो मिनट में हो सकता था वह पांच मिनट लेता है! कोट के बटन उलटे लग जाते हैं! फिर खोलो, फिर लगाओ। चश्मा हाथ में उठाते हैं, छूट जाता है, टूट जाता है! चाबी बंद कर रहे हैं सूटकेस की, चाबी ताले में ही नहीं जाती! जल्दी! जल्दी में तो निरंतर ही देर हो जाती है। क्योंकि जल्दी का मतलब यह है कि चित्त बहुत अस्तव्यस्त है, और भूल—चूक हो जाएगी। तो जब छोटी—छोटी चीजों में जल्दी देर करवा देती है, तो इस विराट की यात्रा पर तो जल्दी बहुत देर करवा देगी।
तो उन मित्र से मैंने कहा कि जल्दी मत करो, नहीं तो देर हो जाएगी। यहां तो तैयारी रखो कि अनंत काल में कभी भी हो जाएगा तो हम राजी हैं, कोई जल्दी नहीं, तो शायद जल्दी भी हो जाए। तो उन्होंने कहा, ऐसा! अगर हम अनंत काल के लिए तैयारी रखें, तो जल्दी हो जाएगी न?
यहां मन दिक्कत देता है। वे तैयार हैं इसके लिए भी! लेकिन जल्दी के लिए ही। यह भी उपयोग कर रहे हैं वे। अब इनको कैसे समझाया जाए? वे कहते हैं, हम प्रतीक्षा करने को भी राजी हैं, मगर आप भरोसा दिलाते हैं कि इससे जल्दी हो जाएगी न? तब यह प्रतीक्षा झूठी हो जाएगी। और जल्दी का क्या मतलब रहा फिर?
प्रतीक्षा अगर आप अनंत करेंगे, तो जल्दी परिणाम है, आप जल्दी की वासना नहीं बना सकते। इस फर्क को समझ लें। अगर आप प्रतीक्षा करने को तैयार हैं तो जल्दी होगी, लेकिन वह प्रतीक्षा करने वाले चित्त का परिणाम है। अगर आप कहते हैं कि इसीलिए हम प्रतीक्षा करेंगे कि जल्दी हो जाए, तो आप प्रतीक्षा कर ही नहीं रहे, और जल्दी कभी नहीं होगी। जल्दी की वासना से प्रतीक्षा कैसे निकल सकती है? यही तकलीफ रोज—रोज की है। हम सबको लगता है कि आनंद तो हमें भी चाहिए। तो हम कैसे आनंद को पा लें! कैसे आनंद को पा लेने का जो विचार और वासना है, वह तो बाधा है आनंद के लिए। आनंद परिणाम है। उसको आप वासना मत बनाएं। वह घटेगा। आप मौन चुपचाप यात्रा करते जाएं, वह घटेगा।
इसलिए बड़ी कठिनाई घटती है, और वह यह, कि इन सूत्रों को पढ़ कर अनेक लोग वासनाग्रस्त हो जाते हैं आनंद की। न मालूम कितने लोग सदियों से इस तरह के सूत्रों को पढ़ कर वासना से भर जाते हैं! और ये सूत्र जो हैं वासनामुक्ति के लिए हैं। और नई वासना पकड़ लेती है कि कैसे मिले आनंद? कैसे हो जाएं स्थितप्रज्ञ? कैसे आ जाए उपरति? कैसे आ जाए वैराग्य? इस वासना से भर जाते हैं। और तब वे दौड़ते रहते हैं जन्मों—जन्मों, और कभी यह घटना नहीं घटती उनके जीवन में। तब उन्हें संदेह होने लगता है। तब उन्हें संदेह होने लगता है कि कहीं ये सब बातें झूठी तो नहीं हैं, क्योंकि कहा तो था कि आनंद आ जाएगा, वह अभी तक नहीं आया!
इस संदर्भ में आपको एक बात बता दूं। रोज हम दुनिया को अधार्मिक होते हुए देखते हैं, रोज। लोग ज्यादा से ज्यादा अधार्मिक होते चले जाते हैं और उनकी निष्ठा धर्म पर कम होती चली जाती है। कारण आपको पता है? कारण इस सूत्र में है। आप में से हर एक ने आनंद की, मोक्ष की, परमात्मा की कई जन्मों में वासना कर ली है—और आनंद नहीं मिला, मोक्ष नहीं मिला, परमात्मा नहीं मिला। उसका जो परिणाम होना था, वह हो गया है। वह परिणाम यह हुआ है कि अब आपको लगता है कि ये कोई मिलने वाली चीजें ही नहीं हैं। आपकी वासना निष्फल चली गई। इन सूत्रों पर से भरोसा उठ गया है।
दस हजार साल से ये सूत्र आदमी को पता हैं। इस दस हजार साल में सभी लोगों ने करीब—करीब, कोई बुद्ध के पास, कोई कृष्ण के पास, कोई क्राइस्ट के पास, कोई मोहम्मद के पास—सभी लोगों ने करीब—करीब इस पृथ्वी पर, यह आनंद की वासना कर ली है, इसके लिए प्रयास कर लिए हैं; कभी ध्यान किया, कभी योग किया, कभी तंत्र साधा, कभी मंत्र साधा, सब कर चुके हैं। जब मैं लोगों को उनके भीतरी तल पर देखता हूं, तो मुझे ऐसा आदमी अब तक नहीं मिला, जो किसी न किसी जन्म में कुछ न कुछ न कर चुका हो। हर आदमी किसी न किसी जन्म में साधना के पथ पर चल चुका है—लेकिन वासनाग्रस्त होकर। उस वासना के कारण ही साधना निष्फल चली गई है, और भीतर गहरी चेतना में वह असफलता बैठ गई है। उसका कारण है कि सारी दुनिया में अधर्म बढ़ता हुआ दिखाई पड़ता है। क्योंकि धर्म अधिक लोगों के लिए असफल हो गया है।
आपको याद भी नहीं है, लेकिन आप धर्म को असफल कर चुके हैं अपने भीतर। और कारण आप हैं। क्योंकि आपने, जिसकी वासना नहीं की जा सकती, उसकी वासना करके भूल कर ली है। ये परिणाम हैं। आप साधना से गुजरेंगे तो ये परिणाम घटते हैं। इनकी आपको चिंता नहीं करनी है, न इनका विचार करना है, और न इनकी आकांक्षा करनी है, और न जल्दी करनी है कि ये घट जाएं। उस जल्दी से ही सब विपरीत हो जाता है।
दुनिया में अधर्म तब तक बढ़ता ही चला जाएगा, जब तक हम धर्म की भी वासना करते हैं। और आप कोई नए नहीं हैं। इस जमीन पर कोई भी नया नहीं है। सब इतने पुराने और प्राचीन हैं, जिसका हिसाब नहीं। और सब इतने—इतने रास्तों पर, इतने—इतने मार्गों पर चल चुके हैं, जिसका हिसाब नहीं। और उन सबमें असफलता पाकर आप निराश और हताश हो गए हैं। वह हताशा प्राणों में गहरे बैठ गई है। उस हताशा को तोड़ना ही आज सबसे बड़ी कठिनाई की बात हो गई है। और अगर कोई तोड़ना चाहे, तो एक ही उपाय दिखता है कि फिर आपकी वासना को कोई जोर से जगाए, और कहे कि इससे यह हो जाएगा, तभी आप थोड़ा हिम्मत जुटाते हैं। लेकिन वही, वासना का जगाना ही तो सारे उपद्रव की जड़ है।
बुद्ध ने एक अनूठा प्रयोग किया था। और बुद्ध के समय में भी हालत यही थी, जो आज हो गई है। यह हमेशा हो जाती है। और जब भी दुनिया में बुद्ध या महावीर जैसे लोग पैदा होते हैं तो उनके पीछे हजारों साल तक एक छाया का काल व्यतीत होता है। होगा ही। जब बुद्ध या कृष्ण जैसा कोई व्यक्ति पैदा होता है, तो उसको देख कर, उसके अहसास में, उसके संपर्क में, उसकी हवा में हजारों लोग वासना से भर जाते हैं धर्म की। और उनको लगता है कि हो सकता है। भरोसा जगता है देख कर, कि जब बुद्ध को हो सकता है, तो हमें भी हो सकता है। और अगर इन्होंने भूल कर ली और इस होने को वासना बना लिया, तो बुद्ध के बाद ये व्यक्ति हजारों साल तक उस वासना के कारण धीरे—धीरे परेशान होकर अधार्मिक हो जाएंगे।
शर्त समझ लें! आनंद उपलब्ध हो सकता है, लेकिन आप उसको लक्ष्य न बनाएं। वह लक्ष्य नहीं है। परम शांति हो सकती है, लेकिन लक्ष्य न बनाएं। वह लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तो बनाएं आप ज्ञान को, समझ को; लक्ष्य तो बनाएं आप ध्यान को, लक्ष्य तो बनाएं आप अपने भीतर थिरता को, लक्ष्य बनाएं रुक जाने को, अपने भीतर आ जाने कों—परिणाम में आनंद चला आएगा। वह उसके पीछे आ ही जाता है। उलटा न करें; आनंद को लक्ष्य न बनाएं। जिसने आनंद को लक्ष्य बनाया, बस वह मुश्किल में पड़ गया।
परिणाम—परिणाम हैं—लक्ष्य नहीं हैं।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 

अध्‍यात्‍म उपनिषद–(प्रवचन-12)
वैराग्‍य आनंद का द्वार है