नये के लिए पुराने को गिराना आवश्यक “ओशो”

 नये के लिए पुराने को गिराना आवश्यक “ओशो”

ओशो– सुना है मैंने, एक गांव में बहुत पुराना चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था कि आज गिरेगा या कल, कहना मुश्किल था। हवाएं जोर से चलती थीं तो गांव के लोग डरते थे कि चर्च गिर जाएगा। आकाश में बादल आते थे तो गांव के लोग डरते थे कि चर्च गिर जाएगा। उस चर्च में प्रार्थना करने वाले लोगों ने प्रार्थना करनी बंद कर दी थी। चर्च के संरक्षक, चर्च के ट्रस्टियों ने एक बैठक बुलाई, क्योंकि चर्च में लोगों ने आना बंद कर दिया था। और तब विचार करना जरूरी हो गया था कि चर्च नया बनाया जाए। वे ट्रस्टी भी चर्च के बाहर ही मिले। उन्होंने अपनी बैठक में चार प्रस्ताव पास किए थे। वे मैं आपसे कहना चाहता हूं।

उन्होंने पहला प्रस्ताव किया कि बहुत दुख की बात है कि पुराना चर्च हमें बदलना पड़ेगा। उन्होंने पहला प्रस्ताव पास किया बहुत दुख के साथ कि पुराना चर्च हमें गिराना पड़ेगा। पुराने को गिराते समय मन को सदा ही दुख होता है। क्योंकि मन पुराना ही है। और पुराने के साथ पुराने मन को भी मरना पड़ता है।

उन्होंने दूसरा प्रस्ताव पास किया कि पुराने चर्च की जगह हम एक नया चर्च बनाने का निर्णय करते हैं। जैसा पुराने को गिराने का दुख से निर्णय किया, वैसे ही नये को बनाने का भी दुख से निर्णय किया। क्योंकि नया बनाने के लिए पहले आदमी को स्वयं भी नया होना पड़ता है। पुराने में जीना सुविधापूर्ण है, कन्वीनियंट है। नये में जीना खतरे से खाली नहीं।

उन्होंने तीसरा प्रस्ताव भी पास किया और वह तीसरा प्रस्ताव यह था कि नया चर्च हम पुराने चर्च की बुनियाद पर ही बनाएंगे। और पुराने चर्च की ईंटों का ही उपयोग करेंगे, और पुराने चर्च के दरवाजे ही नये चर्च में लगाएंगे। और चैथा प्रस्ताव उन्होंने यह पास किया कि जब तक नया न बन जाए तब तक हम पुराने को गिराएंगे नहीं। और चारों प्रस्ताव सर्व स्वीकृति से पास हो गए। वह चर्च अभी भी नहीं गिरा होगा। क्योंकि जो भी ऐसा सोचता है कि नये को बनाने के पहले पुराने को गिराएंगे नहीं; वह न नये को बना पाता है न पुराने को गिरा पाता है। नये को बनाने की पहली शर्त पुराने को गिराने की हिम्मत। और पुराने के गिराने की हिम्मत से नये को बनाने की क्षमता पैदा होती है।
असल में जो कहते हैं कि हम जब तक नये को न बना लेंगे, तब तक हम पुराने को न गिराएंगे। ऐसे लोग पुराने के साथ जीने के इतने आदी हो जाते हैं कि वे नये को बनाने की कल्पना भी खो देते हैं।

इस कहानी से अपनी बात इसलिए शुरू करना चाहता हूं कि यह हमारा देश भी इसी तरह के प्रस्ताव कर रहा है पांच हजार वर्षों से। पांच हजार वर्षों से हम एक मरी हुई कौम हैं। पांच हजार वर्षों से हम पुराने में ही जी रहे हैं। और नये को निर्माण करने की बात सदा पोस्टपोन करते चले जाते हैं। और जितना पुराने के साथ रहने की आदत बढ़ती जाती है उतना ही पुराने से मोह बढ़ता जाता है।

भारत का एक ही दुर्भाग्य है कि हम पुराने से अपने को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। पुराने का मोह हमारे प्राण लिए लेता है। और जब कभी हम पुराने को थोड़ा-बहुत छोड़ते भी हैं, तो जिसे हम नया कह कर पकड़ते हैं, वह सारी दुनिया के लिए तब तक बहुत पहले पुराना हो चुका होता है। अगर हम कभी कुछ नया भी पकड़ते हैं, तो वह तभी पकड़ते हैं जब वह भी सारी दुनिया में पुराना हो जाता है। जिस देश की आत्मा पुराने के साथ इस भांति बंध गई हो, उस देश की आत्मा जवान नहीं रह जाती, बूढ़ी हो जाती है।

यह हमारा देश एक बूढ़ा देश है और इस देश की सारी तकलीफें इसके बूढ़े होने से पैदा हो रही हैं। सारी दुनिया जवान है। हम बूढ़े हैं। इस जवान दुनिया के साथ हमारे ये बूढ़े पैर नहीं चल पाते। और इस जवान दुनिया के साथ हमारा बूढ़ा मन भी नहीं दौड़ पाता। और इस जवान दुनिया के साथ हमारे बूढ़े मन का कोई तालमेल नहीं बैठता। तब हम एक ही काम करते हैं कि हम सारी दुनिया को गाली देकर अपने मन में तृप्ति पाने की कोशिश करते हैं।

असल में बूढ़े मन का यह लक्षण है कि वह जवान को गाली देकर तृप्ति पा लेता है। हम सारी दुनिया की निंदा किए रहते हैं। हम सारी दुनिया को भौतिकवादी कहते हैं। मैटीरियलिस्ट कहते हैं। और जिनको हम भौतिकवादी कहते हैं, उन्हीं के सामने हाथ जोड़े भीख भी मांगते रहते हैं। जिनको हम गाली देते हैं, उनके गेहूं से हमारी गाली की भी ताकत आती है। जिनको हम गाली देते हैं, उनसे हम ऑलपिन से लेकर बम बनाने तक की सारी कला भी सीखते हैं। जिनको हम गाली देते हैं, उन पर ही हमारा जिंदा रहना निर्भर हो गया है। फिर भी हम गाली दिए जाते हैं। इस गाली के पीछे कारण हैं।
असल में गाली सिर्फ इंपोटेंट माइंड का लक्षण है। जब चित्त बिल्कुल निर्वीर्य हो जाता है तो सिवाय गाली देने के और कुछ भी नहीं कर पाता। और आश्चर्य तो यह है कि जिनको हम गाली देते हैं उनकी ही नकल हमें करनी पड़ती है। लेकिन वह नकल भी हम इतने बेमन से करते हैं, और इतने पीछे करते हैं कि सिर्फ हंसी पैदा कर पाती है और कुछ भी नहीं कर पाती। भारत का पूरा व्यक्तित्व ही हास्यास्पद हो गया, हंसने योग्य हो गया। इस सारी हंसने योग्य स्थिति के पीछे जो बुनियादी कारण हैं उनके संबंध में मैं आपसे बात करना चाहूंगा।

पहला कारण तो पुराने के प्रति हमारा मोह है। और जिनका भी पुराने के प्रति मोह होता है नये के प्रति उनमें भय पैदा हो जाता है। जहां पुराने का मोह है वहां नये का भय है। और जहां पुराने का मोह है वहां भविष्य की तरफ न देखने की इच्छा है। पुराने का मोह पीछे की तरफ देखने का आग्रह पैदा कर देता है। इसलिए हम सदा पीछे की तरफ देखते रहते हैं। हमारी गोल्डन एज हो चुकी, हमारा स्वर्ण युग बीत चुका। हमारे रामराज्य घटित हो चुके। हमारे अवतार, हमारे महापुरुष, हमारे तीर्थंकर, सब पैदा हो चुके। हमारा कोई भविष्य नहीं है, हमारे पास सिर्फ अतीत है। वह जो बीत गया वही हमारी संपदा है। जो होने वाला है वह हमारी संपदा नहीं है। कैसे कोई कौम जी सकती है जिसके पास भविष्य न हो। और अगर हम भविष्य के संबंध में कभी सोचते भी हैं तो हम सदा अंधेरी, दुखद, निराशा की भाषा में सोचते हैं। यह आश्चर्यजनक है। यह आश्चर्यजनक है कि हम जहां सारी दुनिया प्रोग्रेस की छाया में जीती है, विकास की छाया में, हम पतन की छाया में। सारी मनुष्यता प्रगति की छाया में जी रही है और निरंतर भविष्य के सुंदर सपने बना रही है। वहां हम पतन की छाया में जी रहे हैं और निरंतर भविष्य की और काली तस्वीर हम निर्मित करते हैं। हमारा सतयुग हो चुका अब तो कलियुग है। और कलियुग का मतलब है हम रोज पतित हो रहे हैं।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 

भारत का भविष्य-(प्रवचन-02)