ओशो- ऐसा हुआ कि मोहम्मद का एक शिष्य यहूदियों की किताब तालमुद पढ़ रहा था। मोहम्मद ने उसे तालमुद पढ़ते देखा तो उससे कहा, देख, अगर तालमुद पढ़नी हो तो यहूदी हो जा! क्योंकि बिना यहूदी हुए तू कैसे तालमुद समझ पाएगा? मुसलमान रहते हुए तू तालमुद समझ न पाएगा, क्योंकि तेरा पूरापन तालमुद से नहीं जुड़ेगा। अगर मुसलमान रहना है तो कुरान पढ़। अगर तालमुद पढ़नी है तो यहूदी हो जा। कुछ भी बुराई नहीं है यहूदी होने में, लेकिन जो भी करना है पूरे मन से कर।
और जहां तुम पूरे मन से कुछ करते हो वहीं मन विदा हो जाता है। क्योंकि मन पूरा हो ही नहीं सकता; वह उसका स्वभाव नहीं है। वह आधा-आधा ही हो सकता है। जब भी तुम पूरे मन से कोई भी चीज करते हो–अगर तुम गङ्ढा भी खोद रहे हो जमीन में और पूरे मन से खोद रहे हो–तत्क्षण तुम पाते हो ध्यान लग गया। तुम खाना बना रहे हो, पूरे मन से बना रहे हो, तत्क्षण तुम पाते हो ध्यान लग गया। जहां-जहां मन को तुम पूरा कर लोगे वहीं तुम पाओगे, मन विसर्जित हो गया और ध्यान लग गया। और वह ध्यान दृढ़ स्वभाव वाला है। वह ध्यान सिद्धासन है।
अब तुम इसे ठीक से समझ लो। लोग सोचते हैं, सिद्धासन में बैठने से ध्यान लगेगा। वे गलत सोचते हैं। ध्यान लगने से सिद्धासन उपलब्ध होता है। सिद्धासन तो कोई भी मदारी लगा लेगा। सिद्धासन में क्या है लगाने में? थोड़े दिन का अभ्यास किया जाए, एकदम सिद्धासन लग जाएगा। पैर थोड़े दिन बाद मुड़ने लगेंगे। थोड़े दिन तकलीफ हुई तो मसाज करवा लेना। सिद्धासन तो कोई भी लगा लेगा। सिद्धासन से अगर ध्यान लगता होता तो बड़ी सरल बात थी। ध्यान से सिद्धासन लगता है। जिसका भी ध्यान लग गया…। मोहम्मद की कोई प्रतिमा नहीं है, जीसस की कोई प्रतिमा नहीं है सिद्धासन लगाए हुए। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि जीसस का सिद्धासन लग गया। कभी बैठे नहीं वे बुद्ध जैसे, महावीर जैसे। लेकिन भीतर वह बैठक लग गई। वह बात भीतर की है। बाहर से सहारा मिल जाए, लेकिन बाहर को तुम पर्याप्त मत समझ लेना।
संत ईमानदार हैं। उनका ईमान भीतरी है। वह उनके होने का ढंग है। और इसीलिए वे काट करने वाले और तीखे नोकों वाले नहीं हैं। इस फर्क को खयाल में ले लो। अगर तुम्हारा ईमान ऊपर-ऊपर है, चेष्टित है, तो तुम बेईमान की निंदा करोगे, बेईमान को काटोगे। तुम घोषणा करोगे कि मैं ईमानदार, तुम बेईमान! तुम जहां जरा सा भी कुछ गलत होते देखोगे, तुम टूट पड़ोगे। तुम इस मौके को न छोड़ोगे अपनी घोषणा किए कि मैं श्रेष्ठ और तुम अश्रेष्ठ! तुम सारी दुनिया को ऐसे देखोगे कि सारी दुनिया नरक की तरफ जा रही है एक तुमको छोड़ कर–तुम स्वर्ग की तरफ जा रहे हो।
अगर तुम्हारी गुणवत्ता दूसरे की निंदा बन जाए तो समझ लेना कि यह आत्मा से नहीं आ रही, यह मन का ही धोखा है। संत दृढ़ होते हैं, लेकिन तीखे नोकों वाले नहीं। उनमें कोने नहीं होते। वे किसी को चोट पहुंचाने में रस नहीं लेते। निंदा उनसे नहीं हो सकती; बुरे को भी बुरा कहने में वे संकोच करेंगे। बुरे में भी भले को देखने का उनका स्वभाव होगा। बुरे से बुरे में भी, कितने ही गहरी छिपी हो ज्योति, कितने ही अंधेरे में दबी हो, उसे वे देख लेंगे।
तीखी नोक वाला तुम संत को न पाओगे। मृदु होगा। उसके व्यक्तित्व में एक गोलाई होगी, स्त्रैण गोलाई। उसमें नोक नहीं होगी।
“उनमें अखंडता, निष्ठा होती है, लेकिन वे दूसरों की हानि नहीं करते।’
वे अखंड होंगे, लेकिन तुम्हारे खंडित व्यक्तित्व को वे अपनी अखंडता से दबाएंगे नहीं, परतंत्र नहीं करेंगे। वे तुम पर शासन करने के काम में अपनी अखंडता का उपयोग न करेंगे। वे अखंड होंगे, गहन निष्ठा से भरे होंगे, लेकिन उनके कारण वे तुम्हें हीन दर्शित न करेंगे। ध्यान रखना, जब भी तुम अपने चरित्र का उपयोग किसी की हीनता के लिए करने लगो, तब तक समझ लेना कि तुम चरित्र का उपयोग भी दुश्चरित्रता की तरह कर रहे हो।
वे सीधे होते हैं, लेकिन यह सीधे होने का कोई दंभ उनमें नहीं होता। इसलिए उनमें कोई निरंकुशता नहीं होती।
ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन एक डाक्टर के पास गया। सिर में उसे दर्द था। और बहुत तेज दर्द था, जैसे कोई स्क्रू भीतर घुमा रहा हो, या कि कोई छुरी से भीतर काट रहा हो। तो वह बड़ा बेचैन था, सिर पकड़े हुए प्रवेश किया। डाक्टर ने उससे पूछा, बीमारी की जांच-पड़ताल की, तो पूछा कि सिगरेट, सिगार, ऐसी कोई चीज तो नहीं पीते? धूम्रपान तो नहीं करते? नसरुद्दीन ने कहा, नहीं, कभी नहीं। चाय-काफी, पूछा डाक्टर ने, इस तरह की कोई चीज तो नहीं लेते जिसमें निकोटिन हो? नसरुद्दीन ने और भी जोर से कहा कि कभी नहीं! उस आदमी ने पूछा, और शराब इत्यादि का तो उपयोग नहीं करते? नसरुद्दीन क्रोध से खड़ा हो गया। उसने कहा, तुमने समझा क्या है? डाक्टर ने कहा, और आखिरी बात और कि कोई परस्त्रीगमन, वेश्यागमन, कोई इस तरह की लत में तो नहीं पड़े हैं? नसरुद्दीन तो झपट्टा मार दिया उस डाक्टर पर। नसें खिंच गईं। उसने कहा, तुमने समझा क्या है? कोई चोर-लफंगा? कोई ऐरा गैरा नत्थू खैरा? तुम्हें पता नहीं मैं कौन हूं? मैं अखंड ब्रह्मचारी हूं, बाल ब्रह्मचारी। और इतना ही नहीं कि मैं ब्रह्मचारी हूं, मेरे पिता भी अखंड बाल ब्रह्मचारी थे। यह हमारे वंश में सदा से ही चला आया है। उस डाक्टर ने कहा, इलाज हो जाएगा; बीमारी पकड़ ली गई। तुम शांति से बैठो। तुम्हारा चरित्र तुम्हारे सिर में जरूरत से ज्यादा घुस गया है; उससे दर्द हो रहा है।
जब चरित्र तुम्हें सिरदर्द देने लगे तो थोड़ा सावधान हो जाना। जब चरित्र तुम्हारा दंभ बन जाए और अकड़ बन जाए और तुम्हारी चाल बदल जाए तो तुम सावधान हो जाना। यह चरित्र न हुआ, दुश्चरित्रता हो गई। इससे तो दुश्चरित्र बेहतर, कम से कम विनम्र तो है। दुश्चरित्रता इतनी बुरी नहीं जितना दंभ बुरा है।
संत में चरित्र होगा और चरित्र का कोई एहसास नहीं होगा, सेल्फ-कांशसनेस नहीं होगी। चरित्र ऐसे होगा जैसे कि हाथ हैं, कान हैं, नाक है; इनके लिए कोई अलग से घोषणा नहीं करनी पड़ती, हैं। चरित्र ऐसे होगा जैसे श्वास चलती है। अब इसकी कोई घोषणा तो नहीं करनी पड़ती कि हम श्वास ले रहे हैं, देखो। इसके लिए कोई यश-गौरव करे, ऐसी तो आकांक्षा नहीं होती कि हम श्वास ले रहे हैं। उसमें कोई खास बात ही नहीं है। चरित्र श्वास जैसा होगा संत का। और अगर चरित्र ऐसा न हो तो समझ लेना कि वह चरित्र असाधु का है, साधु का नहीं।
“वे सीधे होते हैं।’
उनकी सादगी इतनी सादी होती है कि उन्हें उसका पता भी नहीं होता। क्योंकि जिस सादगी का पता चल जाए वह सादी न रही। जिस सीधेपन का पता चल जाए वह सीधापन तिरछापन हो गया। उसमें नोक आ गई। उसमें अकड़ पैदा हो गई।
“वे दीप्त होते हैं, पर कौंध वाले नहीं।’
बड़ा कीमती वचन है!
“ब्राइट, बट नाट डैजलिंग।’
उनमें एक माधुर्य और माधुर्य से भरी ज्योति होती है, लेकिन शीतल। तुम उससे जल न सकोगे। उसमें कोई उत्ताप नहीं होता, कोई बुखार नहीं होता, कोई ज्वर नहीं होता। संत के पास तुम जल न सकोगे। तुम उसके प्रकाश को कितना ही पी लो तो भी वह शीतल ही अनुभव होगा। वह तुम्हारे रोएं-रोएं को पुलकित करेगा, लेकिन पसीने से न भर देगा।
इस फर्क को ठीक से समझ लो। क्योंकि संत ठंडी आग है। आग होना भी बहुत आसान है, ठंडा होना भी बहुत आसान है। ठंडी आग होना बहुत कठिन है। वह परम ज्ञान का लक्षण है। जब दीप्ति तो होती है, लेकिन दीप्ति में कोई ज्वर, त्वरा, चोट नहीं होती। आंखें चकाचौंध से नहीं भर जातीं संत के पास। वैसा चाकचिक्य देखना हो तो सिंहासन के पास होगा, राजधानी में होगा, सम्राटों के पास होगा। वहां तुम्हारी आंखें चकाचौंध से भर जाएंगी। वहां तुम्हारी आंखें थक जाएंगी। वहां से तुम ताजे होकर न लौटोगे। वहां से तुम कितने ही अभिभूत हो जाओ, प्रभावित हो जाओ, लेकिन वह प्रभाव बीमारी की भांति होगा, भारी होगा। सम्राट भी लोगों को प्रभावित करते हैं, लेकिन उनके प्रभाव में बड़ा दंश है। फफोले उठ आएंगे उनके प्रभाव से तुम्हारे ऊपर। तुम्हारे व्यक्तित्व में घाव की तरह उनका प्रभाव पड़ेगा। तुम वहां से दीन होकर लौटोगे। तुम उस चाकचिक्य से, चकाचौंध से भर कर तुम्हारी आंखें अंधेरे में होकर लौटेंगी, तुम अंधे होकर लौटोगे। एक प्रभाव सम्राटों का है।
इसलिए तो हमने इस देश में कहा है कि चक्रवर्ती भी कुछ नहीं है एक संत के सामने। चक्रवर्ती हम उसको कहते हैं जो सारी पृथ्वी का सम्राट हो। तलवार की धार की तरह वह तुम्हें काट देगा। लेकिन तुम कट कर लौटोगे। तुम खंड-खंड होकर आओगे। तुम जल कर आओगे। उतनी आग तुम्हें केवल बीमारी दे सकती है। संत भी अनूठी महिमा को उपलब्ध होता है। सब सिंहासन फीके हैं, चक्रवर्ती भी चरण छुएं।
क्या होगा? संत की क्या खूबी है?
उसकी खूबी है कि उसके पास एक और तरह की आग है। तुम उसकी आग को पी सकते हो, तुम उसकी आग को भोजन बना सकते हो, तुम जलोगे न। उसकी आग में कहीं भी चोट नहीं है।
दीप्ति बड़ा कीमती शब्द है। जैसे सुबह जब सूरज नहीं उगा होता, रात जा चुकी, सूरज अभी नहीं उगा, तब जैसा प्रकाश होता है वह दीप्ति है। रात गई, अंधेरा अब नहीं है, सूरज अभी आया नहीं। क्योंकि सूरज चक्रवर्तियों जैसा है, वह जला देगा। तुम उसकी तरफ आंख उठा कर न देख सकोगे, तुम्हारी आंखें अंधेरे से भर जाएंगी। अगर ज्यादा देखा तो अंधे हो जाओगे। सुबह का आलोक दीप्ति है। या सांझ को जब सूरज जा चुका और अभी रात नहीं आई, वह बीच का जो संध्या काल है, वह दीप्ति है।
इसलिए हिंदू अपनी प्रार्थना को संध्या कहते हैं। वह दीप्ति जैसी होनी चाहिए प्रार्थना। आग तो हो विरह की, पर बड़ी ठंडी और शीतल हो। तृप्त करे, भरे; जलाए न, जिलाए; राख न कर दे तुम्हें, तुम्हारी राख को अंकुरित करे, तुम्हें नया जन्म दे।
“संत दीप्त होते हैं, पर कौंध वाले नहीं।’
लाओत्से क्या कहना चाहता है? लाओत्से यह कहना चाहता है कि शासन संतों जैसा होना चाहिए। दीप्ति तो हो, कौंध न हो। लाओत्से यह कह रहा है कि वस्तुतः शासन संत का होना चाहिए, जो कि जला नहीं सकता, जो कि मिटा नहीं सकता, जो कि तुम्हें लूट नहीं सकता। क्योंकि जो भी पाने योग्य है उसने पा लिया है। जिसे तुम कुछ भी नहीं दे सकते, जिसके पास सब कुछ है, जो भरपूर है, जो आकंठ डूबा है आनंद में, जिसे तुमसे लेने को कुछ भी नहीं बचा है, उसका ही शासन होना चाहिए। उसका शासन अदृश्य होगा।
जैनों ने महावीर के वचनों को महावीर का शासन कहा है। बौद्धों ने भी बुद्ध के वचनों को बुद्ध का शासन कहा है। बौद्धों और जैनों ने, दोनों ने महावीर और बुद्ध को शास्ता कहा है–जो शासन दें, जिनसे शासन मिले। शासन उससे मिलना चाहिए जो स्वयं स्वतंत्र हो गया है। जो स्वयं स्वतंत्र हो गया है वह किसी को परतंत्र नहीं करता। उसकी स्वतंत्रता दूसरों के भी बंधन खोलती है, निर्ग्रंथ करती है। उसकी स्वतंत्रता दूसरों को भी स्वतंत्र करती है। वह वही दूसरों के लिए करता है जो उसके लिए हो गया है।
संत का शासन लाओत्से की अभीप्सा है, कि कभी ऐसी घड़ी आएगी जब संत से हम शासन लेंगे। दीप्ति की तरह फैल जाएगा उसका शासन। कुछ सौभाग्यशाली लोग संतों से शासन ले लेते हैं। पूरी पृथ्वी कब लेगी, न लेगी, कुछ कहना कठिन है। कुछ सौभाग्यशाली ले लेते हैं।
बौद्धों ने अपने भिक्षुओं का जो समूह है उसको संघ कहा है; बुद्ध को शास्ता कहा है। शास्ता वह है जिससे शासन मिले, और संघ वह है जो शासन ले। थोड़े से लोगों ने बुद्ध से शासन लिया, और उनके जीवन रूपांतरित हो गए। जिसने भी कभी किसी संत से शासन लिया उसका जीवन रूपांतरित हो जाता है। वही तो दीक्षा है। इनीशिएशन का वही अर्थ है: संत से शासन लेने की कामना कि अब मैं तुमसे शासित होऊंगा। तुम मुझे चलाना, जिनकी अब किसी को चलाने की कोई आकांक्षा न रही।
इसे बहुत गौर से सोचना। क्योंकि लाओत्से जो भी कह रहा है एक-एक शब्द बहुमूल्य है। जिस दिन तुम तैयार हो जाते हो संत से शासन लेने को, उसी दिन संन्यास फलित होता है। उस दिन तुम इस पृथ्वी के हिस्से न रहे, उस दिन तुम राजनीति के बाहर हुए। उस दिन इस पार्थिव में जो उपद्रव चल रहा है उससे तुम्हारा कोई लेना-देना न रहा। तुमने एक और ही राह पकड़ ली। तुम्हें अब इस जगत में अंधे शासन नहीं देंगे।
कबीर कहते हैं, अंधे अंधे ठेलिया दोऊ कूप पड़ंत। अंधे अंधों को चलाते हैं, फिर दोनों कुएं में गिर जाते हैं।
एक तो है अंधों का शासन जो तुम्हें परतंत्र करेगा, जो तुम्हें जकड़ेगा, जो तुम्हें जंजीरें पहना देगा। और एक है संतों का शासन जो तुम्हें मुक्त करेगा। जो तुम्हें परतंत्र करते हैं उनसे तुम्हें शासन मांगना नहीं पड़ता, वे बिना मांगे देते हैं। तुम भागो भी तो तुम्हारा पीछा करेंगे। तुम न भी चाहो तो भी तुम्हें शासित करेंगे। संत तुम्हें पीछा नहीं करेंगे और न तुम्हें शासित करने की कोई चेष्टा करेंगे। तुम्हें मांगना पड़ेगा, तुम्हें अपनी झोली फैलानी पड़ेगी। और जिस दिन तुम्हारी झोली में किसी संत का शासन पड़ जाए, तुम्हें एक गर्भ मिला। अब तुम दूसरे ही हो गए। अब तुम्हारा पुनर्जन्म बहुत करीब है।