आलसी शासन: राजनीति का अर्थ है, दूसरे तुम्हें नैतिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं “ओशो”

 आलसी शासन: राजनीति का अर्थ है, दूसरे तुम्हें नैतिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं “ओशो”

ओशो- जब विपत्ति आए तो तुम घबड़ाना मत, क्योंकि विपत्ति के ही छाएदार रास्ते से भाग्य भी यात्रा करता है। विपत्ति के पीछे ही भाग्य आता है। विपत्ति के पीछे ही सुख, महासुख की संभावना छिपी है। जब विपत्ति आए तो तुम घबड़ा मत जाना, उद्विग्न मत हो जाना, जल्दी ही भाग्य तुम्हारे द्वार पर दस्तक देगा। विपत्ति तो उसकी आने की खबर है। वह पूर्व-सूचक है, संदेशवाहक है; पत्र है कि मैं आ रहा हूं।
तो जब विपत्ति आए तुम उत्तेजित मत होना, परेशान मत होना, क्योंकि जल्दी ही भाग्य आ रहा है। और जब भाग्य के फूल खिलें तब तुम सुख के कारण हर्षोन्मत्त मत हो जाना। क्योंकि भाग्य के पीछे ही फिर विपत्ति छिपी है। जैसे दिन के पीछे रात है और रात के पीछे दिन है, ऐसा सुख के पीछे दुख है, दुख के पीछे सुख है, सफलता के पीछे असफलता है, असफलता के पीछे सफलता है। सब विरोधी जुड़े हैं।
तो न तो दुख तुम्हें उद्विग्न करे, और न सुख तुम्हें उत्तेजित करे। तुम दोनों ही स्थिति में साक्षी बने रहना। क्योंकि दोनों में से कोई भी ठहरने वाला नहीं है। जो भी आया है, चला जाएगा। जो भी आया है, जल्दी ही उसका विपरीत आएगा। तो यहां पकड़ने को कुछ भी नहीं। यहां किसी भी चीज के साथ मोह बना लेने की कोई सुविधा नहीं है। न तो तुम विपत्ति को हटाने की कोशिश करना; क्योंकि विपत्ति को हटाओगे तो भाग्य भी हट जाएगा जो उसके पीछे आ रहा था। न तुम भाग्य को पकड़ने की कोशिश करना; क्योंकि भाग्य को पकड़ोगे तो विपत्ति भी पकड़ में आ जाएगी जो कि उसके पीछे ही छिपी है। तो तुम करोगे क्या?
तुम साक्षी रहना। तुम देखते रहना। तुम सिर्फ हंसना। क्योंकि तुम्हें दोनों दिखाई पड़ जाएं तो तुम हंसने लगोगे। किसी ने दी गाली तो तुम दुखी न होओगे, क्योंकि तुम जानते हो कि कहीं से कोई प्रशंसा शीघ्र ही मिलने वाली है। तुम गिर पड़े, घबड़ाना मत। क्योंकि जो ऊर्जा गिराती है वही उठा भी लेती है। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। तुम बीमार पड़े, तो जिस ऊर्जा से बीमारी आती है उसी ऊर्जा से स्वास्थ्य भी आता है। तुम एक ही काम कर सकते हो कि तुम देखते रहना। आने देना, जाने देना, और तुम देखते रहना।
धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम्हारे देखने की क्षमता सघन हो जाएगी, जैसे-जैसे तुम्हारा द्रष्टा जड़ें जमा लेगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे कुछ भी नहीं छूता; तुम कमलवत हो गए। वर्षा भी हो जाती है, पानी गिरता भी है, तो भी छूता नहीं; अनछुआ गुजर जाता है। तुम अस्पर्शित रह जाते हो।
और अगर तुम यह न कर पाए तो तुम कभी भी सामान्य न हो पाओगे।
“जैसी स्थिति है, सामान्य कभी भी अस्तित्व में नहीं आएगा।’
तुम एक अति से दूसरी अति पर भटकते रहोगे। कभी दुख, कभी सुख; कभी छांव, कभी धूप; कभी दिन, कभी रात; कभी जन्म, कभी मृत्यु; बस तुम एक से दूसरे पर भटकते रहोगे। दोनों के बीच में छिपा है जीवन का राज।
“जैसी स्थिति है, सामान्य कभी अस्तित्व में नहीं होगा। लेकिन सामान्य शीघ्र ही पलट कर छलावा बन जाएगा, और मंगल पलट कर अमंगल हो जाएगा। इस हद तक मनुष्य-जाति भटक गई है।’
उसे यह भी पता नहीं है कि हम जो भी करते हैं वह हमेशा विपरीत में पलट जाता है। तुम सोचते हो, यह बड़ी मंगल घड़ी है और पकड़ लेते हो। जल्दी ही तुम पाते हो कि मंगल घड़ी तो कहीं खो गई, उसकी जगह सिर्फ अमंगल रह गया है। देखते हो प्रेम, पकड़ लेते हो; मुट्ठी खोल भी नहीं पाते कि पता चलता है, प्रेम तो कहीं तिरोहित हो गया, घृणा हाथ में रह गई है। आकर्षण खो जाता है, विकर्षण रह जाता है। पकड़ने गए थे सुबह को, सांझ हाथ में आती है।
लाओत्से कहता है, यह आखिरी भटकाव है। इससे ज्यादा और क्या भटकना होगा? लौटो पीछे, थोड़ा सम्हलो। और सम्हलने का एक ही मतलब है: द्वंद्व से बच जाओ। एक ही सम्हलना है कि जहां-जहां तुम्हें दो दिखाई पड़ें, तुम उनमें से चुनाव मत करना; तुम चुनावरहित साक्षी हो जाना। मन तो कहेगा, सुख को पकड़ लो; इतने दिन तो प्रतीक्षा की, अब द्वार पर आया है, अब जाने मत दो। मन तो कहेगा, दुख को हटाओ। हटाओगे तो जल्दी हट जाएगा, अन्यथा न मालूम कितनी देर टिक जाए।
न तुम्हारे टिकाए कुछ टिकता है, और न तुम्हारे हटाए कुछ हटता है। इसे अगर तुमने जान लिया तो तुम समझदार हो। क्या हटता है तुम्हारे हटाए? किस दुख को तुम हटा पाते हो? चित्त जब उदास होता है, तुम कोई उपाय करके उदासी से बाहर हो सकते हो? चित्त जब प्रसन्न होता है, कोई उपाय है जिससे तुम प्रसन्नता को पकड़ लो और तिजोड़ी में कैद कर लो कि जब चाहो तब निकाल लिया तिजोड़ी से, थोड़ी देर खेले, प्रसन्न हुए, बंद कर दिया। इतना लंबा जीकर भी तुम्हें यह समझ में नहीं आया कि न तुम्हारे पकड़े कुछ बचता है, न तुम्हारे हटाए कुछ हटता है। आती है प्रसन्नता और चली जाती है, जैसे तुमसे अलग ही उसकी यात्रा का पथ है। छाया आती है, धूप आती है; तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है। जैसे उसके आने-जाने का अलग ही वर्तुल है। तुम तो सिर्फ दर्शक हो। तुम्हारी भ्रांति एक ही है कि तुमने अपने को कर्ता मान लिया।
अगर तुम कर्ता न मानो तो तुम बड़े हैरान होओगे, जैसे उदासी आती है वैसे ही चली जाती है; तुम अनछुए, अस्पर्शित पीछे खड़े रहते हो। तब खुशी-हंसी भी आती है, वह भी चली जाती है। जैसे-जैसे यह भाव प्रगाढ़ होता है वैसे-वैसे तुम मुक्त होने लगते हो। तब तुम अपने जीवन को भी अनुशासन नहीं देते।
लाओत्से कह रहा है, अनुशासन के बहुत तल हैं। दूसरे तुम्हें अनुशासन दे रहे हैं–वह राज्य। फिर तुम अपने को अनुशासन देने की कोशिश करते हो–वह नीति। इसलिए तो हम राजनीति और नीति शब्द का उपयोग करते हैं। क्योंकि दोनों का मतलब एक ही है गहरे में। राजनीति का अर्थ है, दूसरे तुम्हें नैतिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। और नीति का अर्थ है, तुम खुद ही अपने को नैतिक बनाने की कोशिश कर रहे हो।
न दूसरे तुम्हें बना सकते हैं, न तुम खुद अपने को बना सकते हो। दूसरे भ्रांति में हैं कि उनके ऊपर दुनिया का भार है सुधारने का। तुम भी इस भ्रांति में हो कि यह कर्तृत्व तुम्हारा है कि तुम अपने को शुद्ध, चरित्रवान, शीलवान बना कर रहोगे। राजधानियों का अहंकार भी झूठा है, और तुम्हारा अहंकार भी झूठा है। इस जगत में चेतना साक्षी की भांति है, कर्ता की भांति नहीं। कर तो तुम कुछ भी न पाओगे। करने की भ्रांति के कारण ही तो इतना भटके हो जन्मों-जन्मों तक। कब तक भटकते रहोगे? क्यों नहीं छोड़ देते उस भ्रांति को और एक बार साक्षी होकर देखते?
और तब साक्षी के पीछे एक अनुशासन आता है जो लाया गया नहीं है, जो प्रयास से नहीं आया है, जो निष्प्रयत्न फला है। तब एक वर्षा हो जाती है आशीर्वादों की, तब सब तरफ से आनंद सघन होकर तुम्हारे ऊपर गिरने लगता है। बिन घन परत फुहार। कोई बादल भी दिखाई नहीं पड़ता और वर्षा होती है। कोई कारण समझ में नहीं आता, कोई कर्ता नहीं है, कोई लाने वाला नहीं है, और आनंद बरसता चला जाता है। जब तक यह घड़ी न आ जाए, बिन घन परत फुहार, तब तक समझना कि भटक रहे हो।
लाओत्से कहता है, मनुष्य-जाति इस सीमा तक भटक गई है कि जो आनंद बिना किए मिल सकता है, उसको भी वह उपलब्ध नहीं कर पाती। इससे ज्यादा भटकाव और क्या होगा? जो संपदा बिना कुछ किए मिल सकती है, तुम उसको भी नहीं खोज पा रहे! नहीं खोज पा रहे हो, क्योंकि तुम उस संपदा को खोजने में लगे हो जो कि मिल ही नहीं सकती। तो सारी ऊर्जा गलत दिशा में प्रवाहित है।
“इसलिए संत ईमानदार, दृढ़ सिद्धांत वाले होते हैं, लेकिन काट करने वाले या तीखे नोकों वाले नहीं।’
यह संत के स्वभाव को समझने की कोशिश करो।
“देयरफोर दि सेज इज़ स्क्वायर, हैज फर्म प्रिंसिपल्स, बट नाट कटिंग, शार्प कार्नर्ड।’
चौकोन आकार का है संत, क्योंकि चौकोन आकृति की कोई भी चीज दृढ़ होती है। उसे तुम जमीन पर रख दो, वह जम जाती है, वह थिर होती है। उसे हटाना आसान नहीं होता। उसे कंपन नहीं आता, वह निष्कंप होती है।
तो लाओत्से कहता है, “दि सेज इज़ स्क्वायर।’
एक दृढ़ता है संत की जो बड़ी अनूठी है, जो उसके होने के ढंग से आती है। इसलिए स्क्वायर, इसलिए चौकोन आकृति वाला है संत।
तुमने अगर एक जापानी गुड़िया दारुमा देखी हो–दारुमा डॉल। उस गुड़िया को तुम कैसा ही फेंको, वह सदा पालथी मार कर बैठ जाती है। दारुमा जापानी में भारतीय अनूठे पुरुष बोधिधर्म का नाम है। जापानी भाषा में बोधिधर्म का नाम दारुमा है। और वह जो पुतली है वह बोधिधर्म की है, जिसने भारत से चीन में बौद्ध-धर्म की शाखाएं आरोपित कीं। स्क्वायर का वह अर्थ है कि तुम संत को कैसा ही घुमाओ-फिराओ, उलटा-सीधा पटको, कुछ भी करो, हमेशा तुम सिद्धासन में बैठा हुआ पाओगे। वह दारुमा डॉल घर में रखनी चाहिए, उसे फेंक-फेंक कर देखना चाहिए कि वह संत का स्वभाव है। तुम उसे उलटा सिर के बल फेंको, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि वह वजनी है पैरों में, वह तत्क्षण बैठ जाती है।
संत को हिलाने का उपाय नहीं; वह दारुमा डॉल है। वह कंपित नहीं होता। तूफान आएं, सुख आएं, दुख आएं, कुछ उसे उत्तेजित नहीं करता। वह हर घड़ी अपने सिद्धासन में बैठा रहता है। उसके भीतर सिद्धासन लगा है।
यह सिद्धासन शरीर का नहीं है। हमने जो तीर्थंकरों, बुद्धों की, सबकी प्रतिमाएं सिद्धासन में बनाई हैं, इससे तुम यह मत समझना कि वे इसी तरह बैठे रहते थे चौबीस घंटे। ये तो भीतर के प्रतीक हैं; इस भांति भीतर हो गए थे, दारुमा डॉल की भांति। इनकी पालथी ऐसी लग गई थी कि अब उसे हिलाने का कोई उपाय न था। ये ऐसे दृढ़ हो गए थे।
तो एक तो दृढ़ता मन की भी होती है। वह दृढ़ता झूठी होती है। उसके भीतर डर छिपा होता है।
मैं जहां पढ़ता था, मेरे स्कूल में एक शिक्षक थे जो हमेशा कहते कि अंधेरे से मुझे बिलकुल डर नहीं लगता; अंधेरी रात में मैं मरघट भी चला जाता हूं।
तो मैंने उनसे कहा कि आप इतनी बार यह बात कहते हैं कि शक होता है। इस बात को बार-बार कहने की क्या जरूरत हम छोटे बच्चों के सामने कि मैं बिलकुल नहीं डरता? यह कोई बात है! नहीं डरते तो अच्छा। मगर आप किस पर रोब गांठ रहे हैं कि मरघट अकेला चला जाता हूं? जरूर इसमें कहीं आपके भीतर डर है। डर को आप अपने मन की बातों से भुलाने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं बिलकुल सुदृढ़ आदमी हूं, मैं भयभीत नहीं होता।
अक्सर तुम ऐसी दृढ़ता करते हो। तुम कहते हो कि मैं जो कसम खा रहा हूं, सदा इसका पालन करूंगा। लेकिन अगर तुम उसी वक्त भी भीतर झांक कर देखो तो तुम पाते हो तुम जानते हो कि यह पूरा होने वाला है नहीं। अपने को भुला रहे हो। और जितना तुम अपने को भुलाना चाहते हो उतने ही जोर से बोलते हो। खुद की आवाज सुन कर भरोसा लाने की कोशिश कर रहे हो।
तुम्हारी दृढ़ता का कोई मतलब नहीं, तुम्हारी दृढ़ता के पीछे जब तक कि तुम्हारी चेतना न हो। मन के संकल्प कोई संकल्प नहीं, पानी पर खींची लकीरें हैं। वे टिकने वाली नहीं, तुम कितने ही जोर से खींचो। कुछ टिकेगा नहीं मन पर; मन कभी दृढ़ होता ही नहीं। मन का स्वभाव दृढ़ता नहीं है, चंचलता है। वह कभी चौकोर नहीं है। तुम मन की दारुमा पुतली नहीं बना सकते, तुम लाख उपाय करो। वह पालथी तो चेतना की ही लगती है। वह सिद्धासन तो आत्मा का ही है। उसके पहले नहीं हो सकती वह दृढ़ता।
संत दृढ़ होता है। उसे खुद पता भी नहीं होता कि वह दृढ़ है। क्योंकि पता अगर हो तो विपरीत का भी पता होगा। वह दृढ़ होता है। उसकी दृढ़ता स्वाभाविक है। संत दृढ़ होते हैं और उनकी दृढ़ता से ही उनका ईमान प्रकट होता है। उनकी दृढ़ता से ही उनकी प्रामाणिकता आती है, उनके संकल्प से नहीं। वह उनके स्वभाव से आविर्भूत होती है।
एक तो ईमान है जो तुम सोच-विचार कर लाते हो। और एक ईमान है जो तुम्हारे स्वभाव की अनुभूति से प्रकट होता है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 

ताओ उपनिषाद–प्रवचन–097