आलसी शासन: कानून अगर अतिशय हो तो लोगों को अपराधी बनाता है “ओशो”

 आलसी शासन: कानून अगर अतिशय हो तो लोगों को अपराधी बनाता है “ओशो”

ओशो- कानून अगर अतिशय हो तो लोगों को अपराधी बनाता है क्योंकि इतना कानून कोई भी बरदाश्त नहीं कर सकता कि जीना मुश्किल हो जाए। कानून जीने में सहायता देने को है, जीने को मिटा देने को नहीं। इसलिए कम से कम कर होने चाहिए और कम से कम कानून होने चाहिए। न्यूनतम कानून से काम चलेगा तो कम से कम अपराधी होंगे। जब तक कि अपरिहार्य न हो जाए तब तक कानून मत बनाओ। यह अर्थ है लाओत्से का कि शासन सुस्त हो, आलसी हो। अति आवश्यक घड़ी में ही आए। अनावश्यक घड़ियों में बीच से हट जाए; लोगों को मुक्ति की श्वास दे। तो लोग निष्कलुष होंगे।
आखिर कलुषता क्या है? तुमने कभी खयाल किया कि तुम जितने कानून बनाओ उतनी ही कलुषता बढ़ती जाती है, क्योंकि उतने ही कानून के टूटने की संभावना बढ़ती जाती है।
मैं घरों में देखता हूं। बच्चा कहता है, मुझे बाहर खेलने जाना है; मां कहती है, नहीं। बच्चा कहता है, आइसक्रीम चाहिए; मां कहती है, गला खराब हो जाएगा। बच्चा कहता है, चलो तो मिठाई ही ले लें; मां कहती है, ज्यादा मिठाई खाने से ये-ये नुकसान हो जाएंगे। तुम खड़े करते जाते हो कानून चारों तरफ से, बच्चे को कुछ होने का उपाय छोड़ते हो? कुछ भी सुविधा है उसको बच्चा होने की या नहीं है? रेत में खेले तो कपड़े खराब होते हैं, मिट्टी में खेले तो गंदगी हो जाती है। पड़ोस के बच्चों के साथ खेले तो वे बच्चे भ्रष्ट हैं, उनके साथ बिगड़ जाएगा। एक छोटे बच्चे से एक औरत ने पूछा कि तू तो अच्छा बच्चा है न? उसने कहा कि अगर सच पूछो तो मैं उस भांति का बच्चा हूं जिसके साथ मेरी मां मुझको खेलने न देगी।
कोई सुविधा नहीं है। तब बच्चा अपराधी मालूम होने लगता है। उसे बाहर जाना जरूरी है। बच्चा है, बाहर जाएगा। खुले आकाश के नीचे सांस लेनी जरूरी है। अब अगर जाता है तो अपराधी हो जाता है; नहीं जाता है तो अभी से बूढ़ा होने लगता है। तुम ऐसी असुविधा खड़ी कर देते हो। रोको, आग में जाने की आज्ञा मांग रहा हो, मत जाने दो; समझ में आता है। लेकिन बाहर खुले आकाश में खेलने दो। कपड़े इतने मूल्यवान नहीं हैं जितना रेत के साथ खेलना। फिर यह उम्र दुबारा न आएगी। कपड़े धोए जा सकते हैं, लेकिन जो बच्चा खेलने से वंचित रह गया वह सदा कुछ न कुछ कमी अनुभव करेगा। उसका जीवन कभी पूरा न होगा। जो बच्चा मिट्टी में न लोट पाया, खेल न पाया, उसके जीवन में उत्सव की क्षमता कम हो जाएगी। वह कभी नाच न सकेगा, गीत न गा सकेगा। तुम उसे मारे डाल रहे हो। अब अगर बच्चा अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करे तो बगावती है। अगर स्वतंत्रता की घोषणा न करे, आज्ञा मान ले, तो जीवन का घात कर रहा है अपने। क्या करे?
और जो तुम बच्चे की हालत घर में कर देते हो वही शासन तुम्हारी हालत किए हुए है। कहीं कोई सुविधा नहीं है। कहीं कोई जगह नहीं है, जहां तुम खुल सको और मुक्त हो सको। तुम किसी का कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहे हो। तुम किसी की हानि नहीं कर रहे हो।
मेरे कैंपों में मैंने लोगों को आज्ञा दी थी कि अगर उन्हें उचित लगे और वे आनंदपूर्ण समझें, तो वस्त्र निकाल दें। तो राजनीतिज्ञ बड़े बेचैन हो गए। विधान सभाओं में चर्चा हो गई। कानून सख्त हो गया।
अब जब तुम नग्न हो रहे हो तो तुम किसी दूसरे को नग्न नहीं कर रहे हो। तुम खुद नग्न हो रहे हो। तुम्हारे शरीर को खुले सूरज के नीचे खड़े करने की तुम्हें स्वतंत्रता नहीं है! तुम किसी के भी तो जीवन में कोई बाधा नहीं डाल रहे। तुम किसी से यह भी नहीं कह रहे कि आओ और हमें देखो। अगर वे देखते हैं तो उनकी मर्जी। अगर वे नहीं देखना चाहते, वे अपनी आंख बचा कर जा सकते हैं। तुम्हारी कोई जबरदस्ती भी नहीं है।
लेकिन राजनीति बहुत जरूरत से ज्यादा है। अब इस छोटी सी स्वतंत्रता में, जो कि व्यक्ति का निजी अधिकार है। अगर मुझे ठीक लगता है कि मैं नग्न चलूं तो किसी को भी अधिकार नहीं होना चाहिए कि मुझे रोके। हां, मैं किसी को दबाव डालूं कि तुम नग्न चलो, तब राज्य को बीच में आ जाना चाहिए कि भई गलत बात हो रही है; दूसरे पर दबाव मत डालो! तुम्हारी मौज है, तुम्हें नग्न चलना है, तुम नग्न चलो। मेरी नग्नता से किसी दूसरे का क्या लेना-देना है?
तुम तो महावीर को भी नग्न न होने दोगे। महावीर अच्छा हुआ पहले हो गए; तब शासन थोड़ा सुस्त था। खुला आकाश था, स्वतंत्रता थी। लोगों ने महावीर की महिमा में कोई बाधा न डाली; कोई कानून बीच में न आया। आज बड़ी मुश्किल में पड़ते। आज बड़ी अड़चन हो जाती।
छोटे से, थोड़ी सी संख्या है दिगंबर जैन मुनियों की, बीस-बाईस। इस समय भारत में बीस-बाईस दिगंबर जैन मुनि हैं, जो नग्न हैं। बड़े-बड़े नगरों में उन पर रुकावट है। बंबई में, दिल्ली में वे ऐसे ही नहीं जा सकते, पुलिस को खबर करनी पड़ती है। तो उनके अनुयायी पुलिस को खबर करते हैं कि हमारे गुरु इस-इस रास्ते से, इस-इस जगह से निकलेंगे। और तब भी वे ऐसा नहीं जा सकते खुले, उनके शिष्य उनके चारों तरफ घेरा बांध कर चलते हैं, ताकि वे किसी को दिखाई न पड़ें।
तुमने कभी जैन मुनि की सीधी खड़ी हुई फोटो किसी अखबार में कभी छपते देखी? नहीं। जैन मुनि की तुम जितनी फोटो देखोगे उन सब में वह इस भांति बैठता है पालथी लगा कर कि उसकी नग्नता दिखाई न पड़े। क्योंकि वह सीधी फोटो खतरनाक होगी। कानून उसके खिलाफ है।
समझ में आता है कि कानून बीच में आए जब तुम किसी का अहित करो, अकल्याण करो, लेकिन जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो तब कानून को बीच में आने का क्या प्रयोजन है? पार्लियामेंट-असेंबलियों में चर्चा करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर कोई ध्यान में नग्न खड़े होकर ध्यान करना चाहता है तो किसी का भी इसमें कोई लेना-देना नहीं है। और अगर किसी का लेना-देना है तो यह उसका रोग है; उसको अपने रोग की चिकित्सा करवानी चाहिए। अगर उसको लगता है कि किसी की नग्नता से उसके मन में वासना उठती है तो यह उसका रोग है; इससे नग्न होने वाले का कोई लेना-देना नहीं है। और जिसको नग्न देख कर वासना उठती है क्या तुम सोचते हो कपड़ों में छिपे शरीर को देख कर उसे वासना न उठेगी? थोड़ी ज्यादा उठेगी। क्योंकि जो छिपा हो उसे उघाड़ने का मन होता है; जो उघड़ा हो उसे उघाड़ने का मन नहीं होता।
सच तो यह है कि नग्न आदमी या नग्न स्त्री कम से कम वासना उठाती है। छिपा हुआ शरीर निषेध बन जाता है, ज्यादा वासना उठाता है। स्त्रियां इतनी सुंदर नहीं हैं जितनी कपड़ों में ढंकी हुई मालूम पड़ती हैं। अगर स्त्रियों की नग्न कतार खड़ी हो, तो तुम बड़े चकित हो जाओगे, उसमें शायद ही कोई एकाध स्त्री सुंदर मालूम पड़े। लेकिन कपड़ों में ढंकी हैं; कुछ भी पता नहीं चलता। कपड़ों में ढंकी सभी स्त्रियां सुंदर मालूम पड़ती हैं। और अगर बुरका ओढ़ा हो, तब तो कहना ही क्या! तो कुरूप से कुरूप स्त्री भी बुरका पहने सड़क से निकल जाए तो हर आदमी सचेत हो जाता है। और सभी झांक कर देखने की कोशिश करते हैं मामला क्या है। यही स्त्री बिना बुरके के निकले, कोई देखने की फिक्र नहीं करता।
जीवन के सीधे-सीधे सत्य हैं कि जो छिपा हो वह आकर्षक हो जाता है, जो प्रकट हो वह आकर्षक नहीं रह जाता। आदिवासियों को जाकर देखो, नग्न हैं। तुम्हें भी कुछ न लगेगा कि उनके नग्न होने में कुछ अपराध हो रहा है। तुम भी थोड़े दिन में राजी हो जाओगे। तुम्हें लगेगा कि अगर तुम्हें कुछ लग रहा है तो वह तुम्हारी अपनी बेचैनी है, जिसका इलाज चाहिए।
पार्लियामेंट में जो लोग बैठे हैं, जिनको चिंता होती है कि कोई ध्यानी नग्न खड?ा न हो, इनको अपनी मनोचिकित्सा करवानी चाहिए। लेकिन नहीं, उनके ऊपर पूरे देश का भार है। यह किसी ने दिया भी नहीं है भार, यह अपने हाथ से ले लिया है। सारे देश के कल्याण का उन्हें विचार करना है।
लाओत्से कहता है, कृपा करो, तुम अपना ही कल्याण कर लो तो काफी है। तुम सबका कल्याण मत करो; क्योंकि तुमसे अकल्याण होगा।
“शासन जब आलसी और सुस्त होता है, तब उसकी प्रजा निष्कलुष होती है।’
कानून कम से कम, शासन कम से कम, स्वतंत्रता ज्यादा से ज्यादा। क्योंकि स्वतंत्रता के बिना निष्कलुषता का फूल खिलता नहीं। स्वतंत्रता की भूमि चाहिए।
“जब शासन दक्ष और साफ-सुथरा होता है, तब प्रजा असंतुष्ट होती है। व्हेन दि गवर्नमेंट इज़ एफीशिएंट एंड स्मार्ट, इट्स पीपुल आर डिसकंटेंटेड।’
क्यों ऐसा हो जाता है? क्योंकि जब शासन बहुत दक्ष होता है, उतनी ही परतंत्रता बढ़ जाती है। जितना शासन कुशल होता है, उतनी ही गर्दन का फंदा कस जाता है। शासन की कुशलता का अर्थ ही यह है कि परतंत्रता बहुत कुशल हो गई और तुम्हें सब तरफ से बांध लेगी। तुम्हें पता भी न चले, इस तरह बांध लेगी; तुम्हारे होश में भी न आए, इस तरह बांध लेगी। तुम लगोगे स्वतंत्र, और तुम स्वतंत्र बिलकुल भी नहीं रहोगे।
“विपत्ति भाग्य के लिए छायादार रास्ता है, और भाग्य विपत्ति के लिए ओट है।’
लाओत्से कहता है कि सदा विपरीत जुड़े हुए हैं। इसे जिसने देख लिया उसने जीवन की कुंजी पा ली। क्रमशः

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 

ताओ उपनिषाद–प्रवचन–097