आलसी शासन: कानून मनुष्य के लिए है, मनुष्य कानून के लिए नहीं “ओशो”
ओशो- जीसस पर यहूदियों का सबसे बड़ा जो विरोध था, वह यही था कि उन्होंने कानून तोड़े। कानून ऐसे जिन्हें तोड़ कर उन्होंने किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया, कानून तोड़ कर लाभ पहुंचाए। लेकिन यह सवाल नहीं है; कानून तोड़े।
यहूदी मानते हैं कि सप्ताह के एक दिन, जिसको वे सबथ का दिन कहते हैं, उस दिन कोई काम नहीं करना चाहिए। क्योंकि उस दिन परमात्मा ने भी विश्राम किया। और जो सबथ के दिन काम करे वह आदमी बड़ा अपराधी है, क्योंकि वह नियम तोड़ रहा है।
जीसस जेरूसलम के मंदिर में जा रहे थे और एक अंधे आदमी ने आवाज दी और कहा कि सुनो मेरी आवाज, मेरी पुकार, मैं अंधा हूं। और मैंने सुना है कि तुम्हारे छूने से आंखें ठीक हो जाती हैं! तो जीसस लौटे। प्रार्थना करने जा रहे थे; वह उन्होंने एक तरफ सरका दी बात। लौटे; उसकी आंखें छुईं। कहानी कहती है, उसकी आंखें ठीक हो गईं। मंदिर के पुरोहित बड़े नाराज हुए। भीड़ लगा ली। और उन्होंने कहा, यह तुमने कैसे किया? सबथ के दिन कोई कृत्य नहीं किया जा सकता।
तो जीसस ने कहा कि मैंने किसी का नुकसान नहीं किया, किसी की आंखें नहीं फोड़ दीं। यह अंधा आदमी चिल्लाया और मैं इस प्रार्थना के क्षण में था कि यह चमत्कार हो सकता था। तो मैं प्रार्थना करने जाता या इस आदमी की आंखें ठीक करता! उन्होंने कहा कि यह प्रार्थना का दिन है। तो जीसस का बड़ा प्रसिद्ध वचन है; जीसस ने कहा, दि सबथ इज़ फॉर मैन, दि मैन इज़ नाट फॉर सबथ। कानून मनुष्य के लिए है, मनुष्य कानून के लिए नहीं।
यह सबसे बड़ा अपराध था जिसके लिए यहूदी जीसस को माफ न कर पाए। क्योंकि कानून तोड़ा गया।
समाज, मनुष्यता नियमों के लिए है या नियम तुम्हारे लिए?
वही प्रयोजन है लाओत्से का जब वह कहता है, राज्य आलसी और सुस्त हो। सोया हुआ हो, खड़ा हुआ नहीं। इतनी कर्मठता की जरूरत नहीं है, विश्राम करता हुआ हो। जब बहुत ही जरूरत पड़े तभी बीच में आए उठ कर। आलसी का यह अर्थ है। जैसे घर में आग लगी हो तो आलसी चलता हुआ दिखाई पड़ेगा। ऐसे बाहर से कोई बारात निकल रही हो तो आलसी कोई देखने नहीं आने वाला, कि बाहर कोई झगड़ा हो गया है तो आलसी कोई बाहर उठ कर आने वाला नहीं। लेकिन घर में आग लग गई हो तो शायद उठ कर आए, तो शायद कुछ करे।
आलस्य प्रतीक है। वह प्रतीक है इस बात का कि जब तुम्हारी अनिवार्य जरूरत हो तभी कृपा करके तुम प्रकट होओ, अन्यथा तुम्हारे प्रकट होने की कोई आवश्यकता नहीं है। राजधानियां मरघटों जैसी होनी चाहिए–गांव के बाहर। जब बहुत जरूरत हो तभी पता चलना चाहिए कि राजधानी है। राजनेता को छिपा कर रखना चाहिए, जैसे पहले लोग कोढ़ के बीमारों को गांव के बाहर कर देते थे–अंत्यज, छूने योग्य नहीं, अछूत। जब बहुत ही जरूरत हो तब उनको भीतर लाना चाहिए, अन्यथा गांव के बाहर। उनकी कोई आवश्यकता जब पड़े तभी।
लेकिन वे अतिशय हैं; जरूरत, गैर-जरूरत वे हमेशा खड़े हैं, हमेशा आगे खड़े हैं। जहां उनकी कोई भी आवश्यकता नहीं है वहां भी वे मौजूद हैं। अतिशय, उन्होंने सब तरफ से तुम्हें घेर लिया है। इतनी अतिशय कर्मठता नहीं चाहिए। उनके कर्म से शुभ नहीं हो सकता। स्वभाव शासन का शुभ नहीं है।
शासन का मतलब है: किसी को दबाओ, परतंत्र करो; वह जो करना चाहता हो वह न करने दो; जो तुम करवाना चाहते हो वह करवाओ। ठीक है, एक जगह जरूरत मालूम पड़ती है, इसलिए अपरिहार्य बीमारी है। जब तक कि मनुष्य–सभी मनुष्य–संतत्व को उपलब्ध न हो जाएं तब तक शासन रहेगा। लेकिन कोई गुण-गरिमा नहीं है शासन की। तुम चिकित्सक के पास जाते हो जब तुम बीमार हो। राजनीतिज्ञ, शासन, राज्य तभी तुम्हारे पास आने चाहिए जब तुम कुछ ऐसा उपद्रव कर रहे हो जिससे दूसरों को हानि हो; अन्यथा नहीं। बस एक ही जगह उनकी जरूरत होनी चाहिए: जब तुम अपनी सीमा के बाहर जाकर दूसरे की स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचा रहे हो। जब तक तुम अपनी सीमा के भीतर हो, जब तक तुम किसी को नुकसान नहीं पहुंचा रहे, जब तक तुम अपने भीतर अपने सुख में लीन हो, तब तक शासन को आलसी होना चाहिए।
लाओत्से कहता है, “जब शासन आलसी और सुस्त होता है तब उसकी प्रजा निष्कलुष होती है।’
यह जरा हैरानी का है। क्योंकि तुम इससे उलटी बात के लिए तो राजी हो जाओगे कि जब प्रजा निष्कलुष होती है तब शासन सुस्त और आलसी होता है। यह तो तुम्हें समझ में आ जाएगा, गणित साफ है कि जब प्रज्ञा निष्कलुष है तो अपने आप शासन सुस्त होता है, कोई प्रयोजन नहीं होता शासन को बीच में आने का। लेकिन लाओत्से उससे उलटी बात कह रहा है। और उलटी बात भी उतनी ही सही है। यह बात वैसी ही है जैसे मुर्गी पहले या अंडा पहले; तय करना मुश्किल है। मुर्गी से अंडा पैदा होता है, अंडे से मुर्गी पैदा होती है। वे अन्योन्याश्रित हैं, इंटरडिपेंडेंट हैं।
लाओत्से कहता है, प्रजा को निष्कलुष करो और शासन को सुस्त। क्योंकि वे दोनों अन्योन्याश्रित हैं। प्रजा को निर्दोष बनाओ और शासन को अकर्मठ। क्योंकि वे दोनों मुर्गे-अंडे की तरह जुड़े हैं। जब प्रजा निर्दोष होती है तो शासन की कोई जरूरत नहीं होती। जब शासन जरूरत से पीछे हट जाता है, अपनी जरूरत नहीं बनाता, तब प्रजा अपने आप निर्दोष होने लगती है।
अब यहां यह भी समझ लेना जरूरी है कि शासन प्रजा को निर्दोष होने नहीं देगा। क्योंकि अगर शासन प्रजा को निर्दोष होने दे तो शासन की जरूरत कम होती है। इसलिए शासन की पूरी चेष्टा होती है कि प्रजा कभी भी निष्कलुष न हो जाए। इसलिए शासन नए कानून बनाता है ताकि नए कानून तोड़े जा सकें। और शासन करीब-करीब ऐसी स्थिति पैदा कर देता है कि तुम बिना कानून तोड़े जी नहीं सकते। जब तुम जी नहीं सकते तब शासन की जरूरत आ जाती है। तब शासन कहता है, हम कैसे शिथिल हो सकते हैं, क्योंकि लोग अनाचारी हैं। और शासन इतने कानून बना देता है कि या तो अनाचार करें लोग या मर जाएं, आत्मघात कर लें। दो के बिना कोई उपाय नहीं रह जाता।
अब इतने कानून हैं, इतने कर हैं, इतना टैक्सेशन है कि अगर कोई आदमी ईमानदार हो तो जितना वह कमाए उससे ज्यादा उसे कर देना पड़े। तो वह कमाए किसलिए? वह जीए कैसे? अगर वह निर्दोष हो तो वह लुट जाए। और फिर भी कोई उसका भरोसा न करेगा।
अगर तुम इनकम टैक्स आफिसर के पास जाओगे, और तुमने दस हजार रुपए ही कमाए हैं और तुम पूरे ही बता दो कि मैंने दस हजार कमाए हैं, तो भी वह कहेगा, कम से कम पचास हजार कमाए होंगे। क्योंकि कौन सच बोलता है? तुम्हारा कोई भरोसा करने वाला नहीं है। इस समय सच्चा आदमी जितना झूठा मालूम होगा उतना कोई झूठा नहीं मालूम होता। क्योंकि कोई सच्चा है ही नहीं। तो तुम्हें भी दो हजार से शुरू करना पड़ता है। तुम दो हजार कहते हो, वह पांच हजार कहता है। ऐसा खींचतान करके कहीं तीन-चार हजार पर राजी हो जाते हो। तुम भी जानते हो, वह राजी नहीं होगा, अगर तुम सच बोल दो। वह भी जानता है कि तुम सच बोलोगे नहीं, इसलिए राजी हो जाना जल्दी आसान नहीं है। खींचतान चलेगी। क्रमशः
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३