आलसी शासन: शासन एक अपरिहार्य बुराई है, ए नेसेसरी ईविल; उससे बचना मुश्किल है, लेकिन जितना बचा जा सके उतना शुभ “ओशो”

 आलसी शासन: शासन एक अपरिहार्य बुराई है, ए नेसेसरी ईविल; उससे बचना मुश्किल है, लेकिन जितना बचा जा सके उतना शुभ “ओशो”

ओशो- शासन का मूलभूत हिंसा है; शासन अहिंसक नहीं हो सकता। इसलिए शासन है तो बीमारी। शासन औषधि नहीं है; उपचार का धोखा है।

शासन भी वही करता है जिस बुराई को कि शासन मिटाना चाहता है। एक आदमी हत्या करता है तो शासन उसे फांसी देता है। हत्या मिटती नहीं, हत्या दो गुनी हो जाती है। आदमी की भूल थी कि उसने किसी की हत्या की; अब शासन उसकी हत्या करता है। हत्या बुरी है, ऐसा मालूम नहीं होता। कौन हत्या करता है, इस पर सब कुछ निर्भर है। अगर शासन करे तो शुभ, अगर लोग करें तो अशुभ। यह कैसा शुभ है और कैसा अशुभ है?
शासन जब अदालतों के द्वारा हत्याएं करवाता है तो न्यायाधीश जरा भी अपने को अपराधी नहीं समझते, बल्कि समाज के सेवक समझते हैं। न्यायाधीश कभी एहसास नहीं करता अपने अंतःकरण में कि उसने कुछ बुरा किया है। क्योंकि शासन की स्वीकृति है। न्यायाधीश तो राज्य में व्यवस्था ला रहा है; बुरों को मिटा रहा है। लेकिन मिटाना ही बुराई है, यह उसके खयाल में नहीं है।
दूसरे महायुद्ध के बाद जब जर्मन अपराधियों पर मुकदमे चले तो यह बात बड़ी प्रगाढ़ रूप से सामने आई। क्योंकि जिन्होंने लाखों हत्याएं की थीं हिटलर की आज्ञा से उन्होंने अदालत से कहा कि हमारा कोई कसूर नहीं है, हम तो सिर्फ आज्ञा का पालन कर रहे थे। और इस बात में सचाई है। ऊपर से आज्ञा मिली थी, हम वही कर रहे थे। और सारी दुनिया चकित होकर यह बात अनुभव की कि जो लोग अपने सामान्य जीवन में भले थे, जो किसी को कांटा भी न चुभाएंगे, जो किसी का बुरा और अहित भी न चाहेंगे, उन लोगों ने लाखों लोग इस तरह जला दिए जैसे घास-पात हों।
जो आदमी हिटलर के सबसे बड़े कारागृह का प्रधान था, कहते हैं, अंदाजन उसने दस लाख लोगों को जलाया। हिटलर ने ऐसी भट्टियां बनाई थीं जिनमें दस-दस हजार लोग एक साथ एक सेकेंड में जलाए जा सकें। उन भट्टियों का वह आदमी मालिक था। लेकिन वह रोज बाइबिल पढ़ता था, चर्च नियमित जाता था; जो भी थोड़ा दान कर सकता था, दान भी करता था। और कभी किसी ने नहीं जाना कि वह आदमी बुरा हो या किसी का उसने कोई अहित किया हो। रात प्रार्थना करके ही सोता था। उसके कमरे में जीसस का चित्र सूली पर लटका हुआ टंगा था। और यह आदमी दस लाख आदमियों की हत्या के लिए जिम्मेवार था। उसने अदालत से कहा, मेरा कोई कसूर नहीं, मैं सीधा-सादा आदमी हूं। मैंने सिर्फ आज्ञा का पालन किया है। और आज्ञा का पालन बुराई नहीं है।
जिस अदालत के सामने इस आदमी ने यह कहा उस अदालत ने भी इसे फांसी की सजा दी। अगर कल कहीं कोई और ऊपर बड़ी अदालत हो और वह इस अदालत के न्यायाधीशों से पूछे कि तुमने यह क्या किया? तो वे भी कहेंगे कि हमने तो न्याय का पालन किया, जो न्याययुक्त था वही किया।
अपराधी में और न्यायाधीश में फर्क क्या है?
अपराधी और न्यायाधीश में इतना ही फर्क है: अपराध तो दोनों करते हैं, एक समाज की सहमति से करता है और एक समाज की असहमति से करता है। बस इतना ही फर्क है। क्रमशः….

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 

ताओ उपनिषाद–प्रवचन–097