भोग ओर योग विपरीत नहीं हैं। योग का जन्म भोग की अंतरतम अवस्था में पैदा होता है “ओशो”
ओशो- मैं भर्तृहरि के जीवन में एक उल्लेख पढ़ता था। भर्तृहरि सम्राट हुए। सम्राट होते ही इन्होंने अपने वजीरों को बुलाया और एक बड़ी अनूठी आज्ञा दी। आज्ञा यह थी कि जितने भी सुख संभव हो संसार में, मैं सब भोगना चाहता हूं। वजीरों ने सोचा: खूब भोगी–सम्राट हो गया है। पहले दिन ही सिंहासन पर बैठा है और कहता है: जितने सुख हो संसार में, सब भोग लेना है! एक भी छोड़ना नहीं है।
उन्होंने कहा: महाराज, जो भी बन सकेगा, हम करेंगे। सब सुख जुटा देंगे। आप मालिक हैं। आप आज्ञा दें।
दूसरी बात भर्तृहरि ने कही; दूसरी यह कि एक सुख एक ही बार देखना है–दुबारा नहीं, क्योंकि फिर क्या सार है! तो खयाल रहे: जो वस्त्र मुझे एक दफा पहनने दिए जाए, दुबारा न दिए जाए। और जो स्त्री एक बार मेरे पास लाई जाए, दुबारा न लाई जाए। और जो भोजन मुझे एक बार परोसा जाए, दुबारा न परोसा जाए।वजीरों ने कहा: ऐसा ही होगा। थोड़े तो दिक्कत में पड़े। और महीने दो महीने में दिक्कत बहुत साफ हो गई। अब कहां रोज-रोज नए भोजन लाओ! जो सब्जी दफे खाली–खतम हो गई। जो फल एक बार चख लिया–समाप्त हो गया।
साल बीतते-बीतते तो वजीर पागल होने लगे कि कहां से इंतजाम करो! लाओ कहां से? सब छान डाले उन्होंने। दूर-दूर प्रांत, जहां-जहां जो मिल सकता था। न मालूम कितनी स्त्रियां लाए; कितने वस्त्र लाए; न मालूम कितने भोजन लाए। लेकिन सब चुकने लगा। साल पूरा होते-होते वजीरों ने कहा: महाराज, क्षमा करें। हम पागल हुए जा रहे हैं। रोज-रोज नया कहां से लाए?
तो भर्तृहरि ने कहा: सब चुक गया? उन्होंने कहा: सब चुक गया। अब हमें कुछ नहीं सूझता। तो भर्तृहरि कहा कि बस, ठीक है; बात समाप्त हो गई; अब मैं जंगल जाता हूं।
उन्होंने कहा: क्यों? भर्तृहरि ने कहा: देख लिया। और एक दफा चख लिया; अब दुबारा उसी को चखने से क्या मिलेगा? जब एक बार चखने से नहीं मिला, तो दुबारा उसी को चखने से क्या मिलेगा? जो मिलना होता, तो पहली बार में मिल आता। अब दुबारा मैं वही हूं, चीज भी वही है, अब इसको पुनरुक्त करते रहने से क्या सार है? इस व्यर्थ की दौड?-धूप में कोई अर्थ नहीं है। अब मैं जंगल जाता हूं।
तब तो वजीर बड़े हैरान हुए। वे तो सोचते थे: कहां का भोगी राजा मिल गया! तब उनको पता चला कि इस भोग के पीछे कोई अनूठी त्याग की प्रक्रिया छिपी थी। किसी बड़े सूत्र पर भर्तृहरि काम कर रहा था।
भर्तृहरि ने दो शास्त्र लिखे हैं। पहला शास्त्र लिया–शृंगार शतक–शृंगार के सूत्र। ऐसे सूत्र किसी ने नहीं लिखे, क्योंकि किसी ने ऐसा शृंगार जाना नहीं।
मलूकदास यही कह रहे हैं: जेते सुख संसार के इकट्ठे किए बटोर। सब बटोर लिया और सब सुख भोग लिए–तो शृंगार शतक लिखा। और फिर जब सब छोड़ कर गए, तो दूसरा शास्त्र लिखा–वैराग्य शतक। शृंगार से ही वैराग्य का जन्म हुआ। भोग से योग का जन्म हुआ।
संसार को देखने से ही, पहचानने से ही परमात्मा की स्मृति आनी शुरू होती है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: भागना मत। मैं अपने संन्यासी को कहता हूं–भाग कर कहीं जाना मत। जहां खड़े हो, वहां जो उपलब्ध है, उसे ठीक-ठीक भोग लो। भोग में ही मुक्ति है; भोग से ही मुक्ति है।
भोग ओर योग विपरीत नहीं हैं। योग का जन्म भोग की अंतरतम अवस्था में पैदा होता है। इसलिए भागो मत। भाग कर कहीं कोई सार नहीं है। भगोड़े मत बनो। भागो नहीं–जानो। जो भोग रहे हो–उसे जाग कर भोगो, ताकि पुनरुक्ति न हो; ताकि बार-बार उसी-उसी में न दोहराते रहो। गाड़ी के चाक की तरह मत घूमो। हर अनुभव से तुम बोध ले लो और जल्दी ही तुम पाओगे कि ठीक कहते हैं :
जेते सुख, संसार के, इकट्ठे किए बटोर।
कन थोरे कांकर घने, देखा फटक पछोर।।
खूब…जैसे स्त्रियां सूप में साफ करती है ना–चावल, गेहूं–देखा फटक पछोर; ऐसा सूप में–बुद्धि के, होश के सूप में सब फटक पछोर कर देख लिया: कन थोरे कांकर घने। कन तो कहीं-कहीं हैं, सुख तो कहीं-कहीं है और कंकड़ ही कंकड़ ज्यादा हैं। कन थोरे कांकर घने…। सूख तो क्षणभंगुर है, दुःख की लंबी कतारें लगी हैं।
यह बात भी समझने जैसी है कि मलूकदास की सचाई के प्रति ऐसी निष्ठा है कि अतिशयोक्ति नहीं करते। आमतौर से ज्ञानी कहेंगे: संसार से बिलकुल सुख नहीं है। मलूक ने यह नहीं कहा। यह एक सच्चे आदमी की परख है।
आमतौर से महात्मा कहते हैं: संसार में सुख है ही नहीं। अतिशयोक्ति हो गई यह। अगर संसार में सुख बिलकुल न हो, तो इतने लोग कब तक भटके रहें–कैसे भटके रहें! कुछ तो होना ही चाहिए। कन थोरे कांकर घने। माना कि कंकड़-पत्थर बहुत हैं, लेकिन यहां थोड़ी-थोड़ी सुख की भी बूंदें पड़ती हैं; ऐसा नहीं कि नहीं पड़ती। इसको मैं कहता हूं: बड़ी निष्ठा, बड़ी ईमानदारी। नहीं तो सहज यही होता है मन में कि अब क्या रखा है संसार में! सब व्यर्थ; सब दुःख।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३