ओशो- वैज्ञानिक कहते हैं कि हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बनता है। अगर आप हाइड्रोजन और आक्सीजन को मिला दें, तो पानी नहीं बनेगा। लेकिन अगर आप पानी को तोड़े, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन बन जाएगी। अगर आप पानी की एक बूंद को तोड़े, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन आपको मिलेगी और कुछ भी नहीं मिलेगा। स्वभावत:, इसका नतीजा यह होना चाहिए कि अगर हम हाइड्रोजन और आक्सीजन को जोड़ दें, तो पानी बन जाना चाहिए।लेकिन बड़ी मुश्किल है। तोड़े, तो सिर्फ हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलती है। जोड़े, तो पानी नहीं बनता। जोड्ने के लिए बिजली की मौजूदगी जरूरी है। और बिजली उस जोड़ में प्रवेश नहीं करती, सिर्फ मौजूद होती है, जस्ट प्रेजेंट। सिर्फ मौजूदगी चाहिए बिजली की। बिजली मौजूद हो, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बन जाता है। बिजली मौजूद न हो, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी नहीं बनते।
वह जो बरसात में आपको बिजली चमकती दिखाई पड़ती है, वह कैटेलिटिक एजेंट है, उसके बिना वर्षा नहीं हो सकती। उसकी वजह से वर्षा हो रही है। लेकिन वह पानी में प्रवेश नहीं करती है। वह सिर्फ मौजूद होती है।
यह कैटेलिटिक एजेंट की धारणा बड़ी कीमती है और अध्यात्म में तो बहुत कीमती है। गुरु कैटेलिटिक एजेंट है। वह कुछ देता नहीं। क्योंकि अध्यात्म कोई ऐसी चीज नहीं कि दी जा सके। वह कुछ करता भी नहीं। क्योंकि कुछ करना भी दूसरे के साथ हिंसा करना है, जबरदस्ती करनी है। वह सिर्फ होता है मौजूद। लेकिन उसकी मौजूदगी काम कर जाती है; उसकी मौजूदगी जादू बन जाती है। सिर्फ उसकी मौजूदगी, और आपके भीतर कुछ हो जाता है, जो उसके बिना शायद न हो पाता।
पहली तो बात यह है कि कृष्ण मौजूद न हों, तो समर्पण बहुत मुश्किल है। इसलिए मैं मानता हूं कि अर्जुन को समर्पण जितना आसान हुआ होगा, मीरा को उतना आसान नहीं हुआ होगा। इसलिए मीरा की कीमत अर्जुन से ज्यादा है। क्योंकि कृष्ण सामने मौजूद हों, तब समर्पण करना आसान है। कृष्य बिलकुल सामने मौजूद न हों, तब दोहरी दिक्कत है। पहले तो कृष्ण को मौजूद करो, फिर समर्पण करो।
मीरा को दोहरे काम करने पड़े हैं। पहले तो कृष्ण को मौजूद करो; अपनी ही पुकार, अपनी ही अभीप्सा, अपनी ही प्यास से निर्मित करो, बुलाओ, निकट लाओ। ऐसी घड़ी आ जाए कि कृष्ण मालूम पड़ने लगें कि मौजूद हैं। रत्ती मात्र फर्क न रह जाए, कृष्ण की मौजूदगी में और इसमें। दूसरों को लगेगी कल्पना, कि मीरा कल्पना में पागल है। नाच रही है, किसके पास! जो देखते हैं, उन्हें कोई दिखाई नहीं पड़ता। और यह मीरा जो गा रही है और नाच रही है, किसके पास?
तो मीरा की आंखों में जो देखते हैं, उन्हें लगता है कि कोई न कोई मौजूद जरूर होना चाहिए! और या फिर मीरा पागल है। जो नहीं समझते, उनके लिए मीरा पागल है। क्योंकि कोई भी नहीं है और मीरा नाच रही है, तो पागल है। जो नहीं समझते, वे समझते हैं, कल्पना है।
लेकिन अगर कल्पना इतनी प्रगाढ़ है, इतनी सृजनात्मक, इतनी क्रिएटिव है कि कृष्ण मौजूद हो जाते हों, तो जो कल्पनाशील हैं, वे धन्यभागी हैं। जिनकी कल्पना इतनी सशक्त है कि कृष्ण के और अपने बीच के पांच हजार सालों को मिटा देती हो, अंतराल टूट जाता हो, और मीरा ऐसे करीब खड़ी हो जाती हो, जैसे अर्जुन खड़ा था।
तो पहली तो कठिनाई, जब मौजूद कृष्ण न हों, तो उनको मौजूद करने की है। और अगर कोई अपने मन में उनको मौजूद करने को राजी हो जाए, तो वे हर घड़ी मौजूद हैं। क्योंकि परम सत्ता तिरोहित नहीं होती, सिर्फ उसके प्रतिबिंब तिरोहित होते हैं। परम सत्ता का मूल, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं कि अर्जुन तू देख सकेगा, जब मैं तुझे आंख दूंगा; वह मूल तो कभी नहीं खोता, प्रतिलिपियां खो जाती हैं।
वह मूल कभी पानी में झलकता है और राम दिखाई पड़ते हैं। वह मूल कभी पानी में झलकता है, और बुद्ध दिखाई पड़ते हैं। वह मूल कभी पानी में झलकता है, और कृष्य दिखाई पड़ते हैं। यह भेद भी पानी की वजह से पड़ता है। अलग-अलग पानी अलग-अलग प्रतिबिंब बनाते हैं। वह मूल एक ही बना रहता है। उस मूल का तो खोना कभी नहीं होता; वह अभी आपके भी पास है। वह सदा आपके आस—पास आपको घेरे हुए है।
जिस दिन आपकी कल्पना इतनी प्रगाढ़ हो जाती है कि आपकी कल्पना जल बन जाए, दर्पण बन जाए, उस दिन वह मूल फिर प्रतिबिंब आपमें बना देता है। उसी प्रतिबिंब के पास मीरा नाच रही है। वह प्रतिबिंब मीरा को ही दिखाई पड़ रहा है। क्योंकि वह उसने अपनी ही कल्पना के जल में निर्मित किया है। किसी और को दिखाई नहीं पड़ रहा। लेकिन जिनमें समझ है, वे मीरा की आंख में भी उस प्रतिबिंब को पकड़ पाते हैं। वह मीरा की धुन और नाच में भी खबर मिलती है कि कोई पास है। क्योंकि मीरा जब उसके पास होने पर नाचती है, तो फर्क होता है।