ओशो- तिब्बत का शब्द है ल्हामयी। ल्हामयी का अर्थ है, ऐसी आत्माएं, शरीर जिनके छूट गए हैं और नए शरीर जिन्हें नहीं मिले हैं–प्रेतात्माएं। लेकिन विशेष तरह की प्रेतात्माएं जो दूसरों को पथ-भ्रष्ट करने में आनंद लेती हैं। इसे हम अनुभव से भी जान सकते हैं। शरीर के भीतर भी बहुत ऐसे लोग हैं, शरीर में भी ऐसी बहुत आत्माएं हैं, जो दूसरे को अगर थोड़ा सा पथ-भ्रष्ट कर सकें, तो बड़ी प्रसन्न होती हैं।
आपको भी पता न होगा कि कई बार आप भी यह कार्य करते हैं और ल्हामयी हो जाते हैं। कोई आदमी आकर आपसे कहता है कि मैं ध्यान कर रहा हूं, ऐसे-ऐसे चरण हैं ध्यान के, कि नाचता हूं, कूदता हूं, श्वास लेता हूं, हू-हू करता हूं। आपको ध्यान का कोई भी पता नहीं, आप कहते हैं, यह क्या कर रहे हो? पागल हो जाओगे। दिमाग खराब हो गया है? जैसे कि आपको पागल होने का और पागल होने की कला का कुछ पता हो! जैसे कि आपको ध्यान के रहस्यों का कोई पता हो! जैसे कि आप ध्यान कर चुके हैं! और जैसे कि आप इस रास्ते से भी गुजर चुके हैं और पागल हो चुके हैं, अनुभवी हैं। इस भांति आप उससे कहते हैं, यह क्या कर रहे हो, पागल होना है? बिना यह समझे कि आप उसको पथ-भ्रष्ट कर रहे हैं। पर खयाल भी नहीं आता कि हम पथ-भ्रष्ट कर रहे हैं, ऐसे ही कह रहे हैं। और अगर वह आदमी आपसे राजी हो जाए, तो आपका चित्त प्रसन्न होगा। और राजी न हो, तो आप थोड़े उदास होंगे।
लोग बड़ी मेहनत करते हैं दूसरों को राजी करने के लिए कि यह मत करो, और यह करो! इतनी कोशिश वे खुद को भी नहीं करते राजी करने के लिए कि मैं वह करूं, जितनी वे दूसरों के लिए करते हैं। बड़ा सिर पचाते हैं, बड़े सेवाभावी हैं। दूसरों के काम में लगे रहते हैं। इस तरह की आत्माएं चारों तरफ मौजूद हैं।
तिब्बती खोज इस संबंध में बहुत गहरी है। जब कोई आदमी मरता है, तो साधारण आदमी अगर हो, तो तत्क्षण पैदा हो जाता है, ज्यादा देर नहीं लगती उसको नया शरीर ग्रहण करने में, क्योंकि सामान्य गर्भ सदा उपलब्ध होते हैं। जब कोई असाधारण आदमी मरता है, कोई महापुरुष या कोई महापापी, तब उसको जन्म लेने में काफी समय लग जाता है, क्योंकि उसके योग्य गर्भ तत्काल, रेडीमेड नहीं होते हैं; कभी-कभी निर्मित होते हैं। जैसे हिटलर मर जाए, तो सैकड़ों वर्ष लग जाएंगे उसको मां-बाप खोजने में। उसके योग्य गर्भ पाने के लिए उसको प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इस प्रतीक्षा के क्षण में वह प्रेत होगा। कोई ज्ञानी मर जाए और अभी उस जगह न पहुंचा हो, जहां से फिर जन्म नहीं होता, तो उसको भी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, सैकड़ों वर्ष, तभी उसके योग्य गर्भ मिल सकेगा।
नीचे के छोर पर और ऊपर के छोर पर प्रतीक्षा करनी होती है। जो लोग ऊपर के छोरी पर प्रतीक्षा करते हैं, उनको हम देव कहते रहे हैं। जो नीचे के छोर पर प्रतीक्षा करते रहते हैं, उनको हम प्रेत कहते रहे हैं। दोनों छोर पर प्रतीक्षा करती हुई आत्माएं हैं, जिनको अभी गर्भ लेना है। देव स्वभावतः आनंदित होते हैं किसी की सहायता करने में। प्रेत आनंदित होते हैं, किसी को भ्रष्ट करने में, पथ से हटाने में। ये दोनों आत्माएं आपके आसपास काम कर रही हैं।
यह सूत्र कहता है कि प्रसन्न रह, और ध्यान रख कि अगर तू उदास हुआ, तो तेरे आसपास ऐसी ल्हामयी आत्माएं हैं, जो उदासी के क्षण में तुझे पकड़ ले सकती हैं और तुझसे ऐसे काम करवा सकती हैं, जो तूने स्वयं खुद कभी न किए होते। आपको कई बार ऐसा लगता है कि यह काम मैं नहीं करना
चाहता था; फिर भी किया। यह मेरी मरजी न थी, तय भी किया था कि नहीं करूंगा; फिर भी किया। और कई बार ऐसा भी होता है कि आप कोई अच्छा काम करना बिलकुल पक्का कर लेते हैं और फिर ऐन वक्त पर बदल जाते हैं।
एक महिला कल सांझ मेरे पास पहुंची; रो रही थी। बहुत भाव में थी। संन्यास लेना था। मैंने उसे कहा, कल; कल दोपहर। आज वह पहुंची, वह बोली कि मैं महीने भर से तैयार हूं संन्यास लेने को, और कल तो बहुत भाव में थी। लेकिन जैसे ही आपने कहा, कल आकर ले लेना, न मालूम क्या हुआ, मेरा भाव ही चला गया। मुझे संन्यास अब नहीं लेना है। और रो रही है अभी भी, और कह रही है कि मैं लेना चाहती हूं और लेने की बहुत तैयारी है और बहुत दिन से प्रतीक्षा है। और पता नहीं क्या हो गया है मेरे भीतर कि अब मैंहिम्मत ही नहीं जुट रही है लेने की। और साथ में उसे यह भी लगता है कि लेना है। और नहीं ले पा रही है, इसलिए रो भी रही है।
हमें खयाल में नहीं है, हमारे चारों तरफ विचार का एक विराट जगत है, उसमें आत्माएं भी हैं, उसमें विचारों के पुंज भी हैं। उनको हम किन्हीं क्षणों में पकड़ लेते हैं और आविष्ट हो जाते हैं। और उस आवेश में फिर हम जो करते हैं, वह हमारा किया हुआ नहीं है। शुभ विचार भी हम पकड़ते हैं, शुभ आत्माएं भी हमें सहारा देती हैं। अशुभ विचार भी पकड़ते हैं, अशुभ आत्माएं भी बाधा डालती हैं।
लेकिन जो अति प्रसन्न है, इस नियम को समझ लेना, वह सुरक्षित है। जो उदास है, वह असुरक्षित है। उदासी के क्षण में उपद्रवी आत्माएं, उपद्रवी विचार पकड़ लेते हैं। प्रसन्नता
और आनंद के अहोभाव में, जो श्रेष्ठ है, उससे संबंध जुड़ता है। जो सदा आनंदित रहने की कोशिश करे, उसे इस जगत की जितनी दिव्य शक्तियां है, उन सभी का सहयोग मिल जाता है। जो सदा उदास बना रहे, इस जगत में जो भी मूढ़तापूर्ण है, जो भी भारी वजनी और पथरीला है, सबका उसके साथ सत्संग हो जाता है।
जब आप उदास बैठते हैं, तब आपके चारों तरफ उदास चेतनाओं की एक जमात बैठी है, जो आपको दिखाई नहीं पड़ती है। जब आप आनंदित होते हैं, तब आपके चारों तरफ कुछ आनंदित चेतनाएं नाच रही हैं, जो आपको दिखाई नहीं पड़तीं। आप अपने आसपास एक वर्तुल निर्मित कर रहे हैं।
ध्यान रहे, साधक सदा प्रसन्न रहे, न हो परिस्थिति प्रसन्न होने की, तो भी कोई कारण खोज ले, और प्रसन्न रहे। प्रसन्नता को सूत्र बना ले।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ समाधि के सप्त द्वार #9