ओशो– बड़ी कीमत का सूत्र कहा है। यह एक सूत्र भी गीता को गीता बना देने के लिए काफी है। बाकी सब फेंक दिया जाए, तो चलेगा। स्वभाव अध्यात्म है–काफी है।
लाओत्से ने अपनी जिंदगीभर इस सूत्र के अतिरिक्त किसी सूत्र की व्याख्या नहीं की–स्वभाव अध्यात्म है।
नहीं, लेकिन गीता पढ़ने वाले को भी इस सूत्र पर ज्यादा ध्यान नहीं जाता कि स्वभाव अध्यात्म है। क्या मतलब है?
स्वभाव अध्यात्म है का अर्थ है कि अपने भीतर उसकी तलाश कर लेनी है, जो सदा से है और मेरा बनाया हुआ नहीं है। स्वभाव अध्यात्म है, इसका अर्थ है, मुझे उसे खोज लेना है, जिसके द्वारा मेरा सब कुछ बना है और जो स्वयं अनबना है, अनक्रिएटेड है।
लेकिन हम सब तो इतने कृत्रिम हैं कि उस स्वभाव का पता लगाना बहुत मुश्किल होगा। हम तो कृत्रिम होने की एक इतनी बड़ी भीड़ हैं कि हम कौन हैं, हमें इसका ही पता नहीं है।
स्वभाव अध्यात्म है।
मैं कौन हूं, यह मुझे पता नहीं! ऐसा नहीं कि मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। कौन हूं, बहुत कुछ मुझे पता है, लेकिन वह कोई भी स्वभाव नहीं है। वह सब सीखा हुआ है, कल्टिवेटेड है। जरा कुछ दो-चार जगह से खोज करें, तो शायद खयाल में आ जाए।
मैं एक भाषा बोल रहा हूं। अगर मैं इस भाषा बोलने वाले लोगों के घर में पैदा न होता, मैं दूसरी भाषा बोलता, तीसरी बोलता। जमीन पर कोई तीन सौ भाषाएं हैं। किसी भी घर में पैदा हो सकता था तीन सौ भाषाओं के, तो वही भाषा बोलता।
भाषा स्वभाव नहीं है, ट्रेनिंग है, सिखाई गई है। इसलिए इस भ्रम में कोई न रहे कि अगर आपको न सिखाया जाए, तो भी आप कोई तो भाषा बोलेंगे। नहीं, कोई भाषा न बोलेंगे। अगर आपको जंगल में छोड़ दिया जाए पैदा होते ही से और भेड़िए आपको पाल लें, तो आप कोई भी भाषा नहीं बोलेंगे।
और ऐसा नहीं कि यह मैं कल्पना से कह रहा हूं। ऐसी घटनाएं घटी हैं बहुत, जब भेड़िए बच्चों को उठाकर ले गए और उन्होंने उनको बड़ा कर लिया। वे बच्चे कोई भी भाषा नहीं बोल सकते। हां भेड़ियों की गुर्राहट कर सकते हैं; उतनी भाषा बोल सकते हैं। क्यों? क्योंकि भाषा सीखनी पड़ती है।
लेकिन भाषा के पीछे छिपा हुआ एक तत्व और है, वह है मौन। मौन सीखना नहीं पड़ता। इसलिए भाषा कृत्रिम है; मौन स्वभाव है।
यह मैं उदाहरण के लिए कह रहा हूं। इस तरह एक-एक चीज की पर्त भीतर है। एक चीज सीखी हुई है–कई चीजें सीखी हुई हैं ऊपर–भीतर कहीं खोजने पर वह जगह मिल जाएगी, जो स्वभाव है।
मौन स्वभाव है। इसलिए मौन साधना बन गया। क्योंकि वह स्वभाव में ले जाने का मार्ग है, हो सकता है। लेकिन अगर आप चुप बैठकर भीतर भी बोलते चले जाएं, जैसा कि हम करते हैं। और आमतौर से जब कोई नहीं होता, तब हम जितने जोर से बोलते हैं, उतना जब कोई होता है, तो नहीं बोलते। क्योंकि दूसरे का भी थोड़ा तो लिहाज रखना ही पड़ता है।