संन्यास या संसार-ये दो विकल्प सभी के सामने होते हैं “ओशो”

 संन्यास या संसार-ये दो विकल्प सभी के सामने होते हैं “ओशो”

ओशो– बुद्ध का जन्म हुआ। पांचवें दिन रिवाज के अनुसार श्रेष्ठतम पंडित इकट्ठे हुए। उन्होंने बुद्ध को नाम दिया–सिद्धार्थ। सिद्धार्थ का अर्थ होता है: कामना की पूर्ति; आशा की पूर्ति; अर्थ की उपलब्धि; मंजिल का मिल जाना। बूढ़े शुद्धोधन के घर में बेटा पैदा हुआ था। जीवन भर प्रतीक्षा की थी, आशा की थी, सपने देखे थे; बहुत बार निराश हुआ था; और अब बुढ़ापे में बेटा पैदा हुआ था; निश्चित ही सिद्धार्थ था। पंडितों ने नाम ठीक ही दिया था। आठ बड़े पंडित थे। सम्राट पूछने लगा, इस नवजात शिशु का भविष्य भी कहोगे? सात पंडितों ने अपने हाथ उठाए और दो अंगुलियों का इशारा किया। सम्राट कुछ समझा नहीं। उसने कहा, मैं कुछ समझा नहीं। इशारे में नहीं, स्पष्ट कहो। तो उन सात पंडितों ने कहा कि दो विकल्प हैं–या तो यह चक्रवर्ती सम्राट होगा और या सब छोड़ कर सर्वत्यागी, वीतरागी, संन्यस्त हो जाएगा; या तो यह चक्रवर्ती सम्राट होगा और या सर्व वीतरागी संन्यासी होगा।

सिर्फ एक पंडित चुप रहा। वह सबसे युवा था। कोदन्ना उसका नाम था। लेकिन वह सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली भी था। सम्राट ने पूछा, तुम चुप हो, तुमने दो अंगुलियां न उठाईं!

कोदन्ना ने कहा, दो अंगुलियां तो सभी के जन्म के साथ उठाई जा सकती हैं, क्योंकि दोनों विकल्प सभी के सामने होते हैं–या तो संसार की दौड़ का, या संन्यास का। संन्यास या संसार–ये तो दो विकल्प सभी के सामने होते हैं। इन पंडितों ने कुछ विशेष नहीं किया अगर बुद्ध के लिए दो अंगुलियां उठाईं; मैं एक अंगुली उठाता हूं: यह संन्यासी होगा।
लेकिन आदमी का अभागा मन, शुद्धोधन रोने लगा। यह कोदन्ना सर्वज्ञात ज्योतिषी है; युवा है, पर महातेजस्वी है; और उसके वचन कभी खाली नहीं गए। दूसरे पंडितों के साथ तो सुविधा थी थोड़ी कि चक्रवर्ती भी बन सकता है, कोदन्ना ने तो विकल्प ही तोड़ दिया। उसने तो कहा, यह निश्चित बुद्ध बनेगा। उन पंडितों के साथ तो सम्राट रोया न था, प्रसन्न हुआ था–चक्रवर्ती सम्राट होगा बेटा। और दूसरे विकल्प को उसने कोई मूल्य न दिया था, क्योंकि जब चक्रवर्ती सम्राट होने का विकल्प हो तो कौन संन्यासी होना चाहता है! लेकिन कोदन्ना ने तो मार्ग तोड़ दिया, उसने तो एक ही अंगुली उठाई है। लेकिन सम्राट ने अपने मन को समझाया, कोदन्ना अकेला है, विपरीत सात ज्योतिषी हैं। ऐसे ही तो आदमी अपने मन को सांत्वना देता है। सात ही ठीक होंगे, एक ठीक न होगा। लेकिन वह एक ही ठीक सिद्ध हुआ। और अच्छा हुआ कि वह एक ही ठीक सिद्ध हुआ।

तुम्हारे जन्म के समय भी, जन्म के बाद भी–चाहे पंडित बुलाए गए हों, न बुलाए गए हों–प्रकृति दो अंगुलियां उठाती है। सारी प्रकृति दो विकल्प सामने रखती है–या तो खो जाना मूर्च्छा में, या जाग जाना होश में; या तो बाहर की संपदा को जुटाना, चक्रवर्ती होने की दौड़ में लगना; या भीतर की संपदा को जुटाना, आत्मवान होने में थिर होना। कोदन्ना की एक अंगुली याद रखना! कोई कोदन्ना तुम्हें न मिलेगा अंगुली उठाने को, तुम्हें ही अपनी अंगुली उठानी पड़ेगी।
शंकर के ये सूत्र त्याग और वैराग्य के सूक्ष्मतम इशारे हैं।

‘जिसके माथे पर जटा है, जो सिर मुड़ाए है, जिसने अपने बाल नोच डाले हैं, जो काषाय पहने है, अथवा तरहत्तरह के वेश धारण किए हैं, वह मूढ़ आंख रहते भी अंधा है। केवल पेट भरने के लिए उसने बहुत रूप बना रखे हैं।’

ध्यान रखना, आदमी का मन बड़ा खतरनाक है, वह संन्यास में भी संसार खोज लेता है। वह मंदिर में भी पाखंड खोज लेता है। वह साधना में भी भोग खोज लेता है। आवरण कुछ भी हो, भीतर मन अपनी पुरानी आदतों का जाल बुनता चला जाता है।

तो शंकर कहते हैं, जिसके माथे पर जटा है, उससे धोखा मत खा जाना। जटा होने से ही कुछ भी नहीं होता। जिसने सिर मुड़ा लिया है, धोखा मत खा जाना; और दूसरे धोखा खा जाएं तो खा जाएं, तुम खुद धोखा मत खा जानाI

☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
भजगोविंदम मुढ़मते (आदि शंक्राचार्य) प्रवचन–05