कौन महान – माँ या गुरु? “ओशो”

 कौन महान – माँ या गुरु? “ओशो”

प्रश्नः मैंने सुना है कि अपनी मां को संन्यास देते समय आपने कुर्सी से उतरकर अपनी मां के चरण छुए थे। इस अनोखी स्थिति ने मुझे रोमांचित कर दिया है। कृपया कुछ और जानने की मेरी प्यास को बुझाएं। कौन महान है – माँ या गुरु?

ओशोः वे दोनों ही एक-दूजे से महान हैं। ऐसा सवाल पूछना ही गलत है। यह प्रश्न वैसा ही है, जैसे कोई पूछे कि ‘कौन पहले- मुर्गी या अंडा?’ तुम्हें समझ ही नहीं। तुम मुर्गी और अंडे को विभाजित करते हो, जबकि वे अविभाज्य हैं। मुर्गी अंडे की एक अवस्था है, अंडा मुर्गी की एक अवस्था है।
_कौन महान है–मां या गुरू? यह पूछना तभी संभव है जब तुम यह न समझ पाओ कि मां क्या है और गुरु क्या है। दोनों को एक विशेष गुण के लिए श्रद्धा दी जाती है जो दोनों में समान हैः वे दोनों जन्म देते हैं। इसलिए उन्हें आदर दिया जाता है।_
मां शरीर को जन्म देती है, पहला जन्म मां के जरिए होता है। दूसरा जन्म गुरु के माध्यम से होता है। सदगुरु भी एक माँ है! शिष्य बनने का अर्थ है गुरु के गर्भ में प्रवेश करना। बुद्धक्षेत्र एक गर्भ है। गुरु के गर्भ में प्रवेश, उसके परिवेश में प्रवेश, उसकी ऊर्जा के अंग बनने पर दूसरा जन्म घटता है। तुम दुबारा पैदा हुए, द्विज बने।
ईसा मसीह के इस वचन का यही अर्थ है, ‘जब तक कि तुम नया जन्म न लो…!’
दूसरा जन्म जरूरी है, अन्यथा तुम केवल भौतिक काया के रूप में ही जिओगे। मां ने आपको सिर्फ स्थूल देह दी है। मंदिर मां द्वारा बनाया गया है, देवता को अभी सदगुरु के माध्यम से जन्म लेना शेष है। अंग्रेजी के शब्द ‘मदर’ और ‘मैटर’, दोनों एक ही स्रोत से आते हैं। संस्कृत के मूल शब्द, ‘मात्रा’ से आते हैं। यह काव्यात्मक है कि ‘माँ’ और ‘पदार्थ’ दोनों एक ही मूल से आते हैं। इसका भावार्थ क्या है?_

माँ तुम्हें भौतिक रूप देती है, देह प्रदान करती है। वह तुम्हारा ‘जड़ पदार्थ’, तुम्हारा शरीर है। मां पृथ्वी है, सदगुरु आकाश है। लेकिन स्मरण रहे, पृथ्वी के बिना आकाश नहीं हो सकता। मंदिर के बिना देवता संभव नहीं है। इसलिए मां ने तुम्हें अवसर दिया है। किंतु यह केवल एक मौका है। इस अवसर को साकार में रूपांतरित करने के लिए तुम्हें गुरु को खोजना होगा।
अब यह कठिनाई हैः कौन अधिक आदरणीय है, कौन महान है?
मां के बिना तुम न होते, और गुरु काम न कर पाता। गुरु के बिना तुम तो होते, मगर तुम्हारा होना निरर्थक होता। वस्तुतः मां और गुरु के प्रति श्रद्धा, दोनों एक ही कारण से हैं – क्योंकि वे दोनों जन्म देते हैं। स्वाभावतः उच्च जन्म गुरु द्वारा दिया जाता है, इसलिए गुरु बड़ा है। लेकिन नींव मां ने रखी है, इसलिए मां बड़ी है। और इसीलिए मैं कहता हूं कि वे एक दूजे से बड़े हैं।
तुम पूछते हो कि ‘मैंने सुना है कि अपनी मां को संन्यास देते समय आपने कुर्सी से उतरकर अपनी मां के चरण छुए थे। इस अनोखी स्थिति ने मुझे रोमांचित कर दिया है। कृपया कुछ और जानने की मेरी प्यास को बुझाएं।’
_यह एक विचित्र घटना है। विरले ही ऐसा होता है कि कोई मां अपने बेटे की शिष्या बनने आती है। मरियम कभी भी ईसा की शिष्या नहीं बनी, और ईसा इस बात पर नाराज थे। क्योंकि वे चाहते थे कि वे जो भी बन गए हैं, उसे माँ के साथ साझा करें। लेकिन माँ कभी शिष्या न बनी; इसी वजह से ईसा ने यह अजीब सा वक्तव्य दिया। ईसा भीड़ से घिरे हुए थे, वहां मरियम आई, तो भीड़ में से किसी ने आवाज दी… भीड़ बहुत ज्यादा थी, वह अंदर नहीं आ सकती थी, और वह ईसा से बात करना चाहती थी … किसी ने कहा, ‘आपकी माँ भीड़ के बाहर इंतजार कर रही है। वह आपसे मिलना चाहती है।’ ईसा ने कहा, ‘उस स्त्री से मेरा कोई लेना-देना नहीं।’ यह वचन कुरूप प्रतीत होता है। ईसा के होठों पर ये शब्द शोभा नहीं देते। लेकिन वे क्यों कहते हैं, ‘उस स्त्री से मेरा कोई लेना-देना नहीं।’
मरियम बस एक ‘स्त्री’ ही बनी रही। ईसा क्रोधित थे, और उनके क्रोध को समझा जा सकता है। प्रेम के कारण ही वे नाराज थे। वे चाहते थे कि उनकी मां रूपांतरित हो। वे अपरिचितों के साथ अपनी रोशनी साझा कर रहे थे, और उनकी अपनी माँ और पिता अंधेरे में जी रहे थे। वे इस बारे में दुखी थे। उनकी उदासी उनके गुस्से में झलक उठी।

जब मेरी मां मुझसे दीक्षा लेने आईं तो मैंने उनके पैर छुए क्योंकि वे एक दुर्लभ मां साबित हुईं। अपने ही बेटे के सामने झुकना वास्तव में कठिन है, बहुत मुश्किल है। अपने ही पुत्र के चरण स्पर्श करना लगभग असंभव है, इसके लिए बड़े साहस की जरूरत होती है। अपने अभिमान को पूरी तरह गिराना बहुत खतरनाक है, हिम्मत की आवश्यकता होती है। मैंने उनके पैर इसलिए नहीं छुए कि वे मेरी मां हैं, मैंने उनके पैर छुए क्योंकि उन्होंने हिम्मत की! मेरे अनुसार जिस कारण से ईसा क्रोधित थे, उसी कारण से मैंने उनके पैर छुए। कारण वही है।

मैं अत्यंत प्रफुल्लित था। ऐसी घटना दुर्लभ है, कभी-कभार, केवल एक बार होती है! एक और वजह से भी मैंने उनके चरण स्पर्श किएः क्योंकि दीक्षा के बाद वे मेरी माँ नहीं होंगी और मैं उनका बेटा नहीं रहूंगा। इस खाते को यथासंभव सुंदरता से बंद किया जाना जरूरी है।

यह कदम, एक छलांग थी। वे हमेशा मुझे अपना बेटा समझती रहीं, मगर आगे और नहीं! अब वे मेरी शिष्या होंगी और मैं उनका गुरु रहूंगा। तब तक वे मुझे सलाह देती थीं, मुझे निर्देश देती थीं – ‘ऐसा करो, वैसा मत करो।’ अब यह सब संभव नहीं होगा। अब मैं उन्हें निर्देश दूंगा, मैं सलाह दूंगा, मैं आदेश दूंगा – ऐसा या वैसा करने के लिए। पूरी स्थिति बुनियादी रूप से बदलेगी।

उन्होंने बड़ा जोखिम उठाया है। मैंने उनके साहस का सम्मान किया, उनकी निरहंकारिता का आदर किया। पुराने खाते को खूबसूरती से बंद कियाः वह अंतिम बार थी जब मैं उनके लिए बेटा था; वह घटना सदा के लिए उनकी चेतना में अंकित रहेगी।
उस क्षण के बाद सभी प्राचीन संबंध टूट गए। एक नए रिश्ते का शुभारंभ हुआ। मैंने उनके पैर सिर्फ इसलिए नहीं छुए कि वे मेरी मां हैं। मैंने उसके पैर छुए क्योंकि उन्होंने हिम्मत की, बहुत हिम्मत की। उन्होंने अपना अहंकार छोड़ दिया।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

दि विज्डम ऑफ दि सेंड्स, भाग-1, प्रवचन-8_