ओशो– सुखासन में बैठ जाना। लेकिन बैठ गये और एक घंटा बैठने का तय किया तो फिर एक घंटा शरीर की मत सुनना। तुम चकित होओगे, थोड़े ही दिन में—तीन सप्ताह के भीतर, तुम चकित होओगे—और तुमने हिम्मत रखी और तुम न झुके, शरीर आवाज देना बंद कर देगा। और जब शरीर आवाज देना बंद कर दे, तब तुम मन की तरफ ध्यान देना। मन की तरफ ध्यान ही मत देना। अभी मन के साथ उलझना ठीक नहीं है। पहले शरीर को साथ हो जाने देना। जिस दिन पाओ कि अब शरीर कोई उपद्रव खड़ा नहीं करता, वह बैठने को राजी हो गया है आधी यात्रा पूरी हो गयी; आधी से भी ज्यादा पूरी हो गयी। क्योंकि मन भी शरीर का ही हिस्सा है। अगर पूरा शरीर बैठने को राजी हो गया तो अब यह हिस्सा ज्यादा देर बगावत नहीं कर सकता। यह सबसे ज्यादा बगावती है; लेकिन फिर भी शरीर का ही हिस्सा है। और जब पूरा शरीर आसन में आ गया तो यह ज्यादा देर यहां वहां नहीं भटक पाएगा। यह भी बैठ जाएगा।
शरीर को आसनस्थ कर लेने का अर्थ है कि शरीर का सब उपद्रव शांत हो गया। अब तुम ऐसे बैठते हो जैसे अशरीरी हो; जैसे शरीर है ही नहीं, शरीर का पता ही नहीं चलता; बस तुम बैठे हो। अब तुम मन पर ध्यान देना। और, मन की भी प्रक्रिया वही है कि मन कुछ भी कहे, सुनना मत। कोई प्रतिक्रिया मत करना। मन में विचार चले तो वैसे देखना जैसे तुम तटस्थ हो; जैसे तुम्हारा कोई लेना—देना नहीं है; जैसे ये विचार किसी और के मन में चल रह हैं, बहुत दूर हैं तुमसे; जैसे रास्ते पर शोरगुल चल रहा है या जैसे आकाश में बादल चल रहे हैं, कुछ तुम्हारा लेना—देना नहीं। उपेक्षा से तुम देखते रहना।
पहले शरीर को शांत हो जाने देना, फिर धीरे—धीरे, शरीर कोई तीन सप्ताह लेगा; मन कोई अन्दाजन तीन महीने लेगा। कम—ज्यादा हो सकता है। कैसी प्रगाढ़ता है तुम्हारी, उस पर निर्भर होगा। लेकिन करीब छह महीने के भीतर तुम पाओगे कि आसनस्थ दशा आ गयी। अब न शरीर कोई क्रिया करता है, न मन कोई क्रिया करता है।
मन से लड़ना मत। दबाने की कोशिश मत करना कि नहीं, विचार मत करो; क्योंकि ध्यान रखना यह भी विचार है, इतना विचार भी तुमने अगर सहारा दिया तो मन जारी रहेगा। मन न मालूम कितने उपद्रव खड़े करेगा। तुम लड़ना भी मत; क्योंकि लड़ने का मतलब है कि तुम राजी हो गये प्रतिक्रिया करने को, तुम उपेक्षा न कर पाए। उपेक्षा सूत्र है। तुम देखते रहना। तुम कुछ कहना ही मत। मुश्किल होगी, क्योंकि पुरानी आदतें हैं। सदा की आदतें हैं—उसके साथ प्रतिक्रिया करने की, बातचीत करने की, उत्तर देने की। धीरे—धीरे, तुम सिर्फ देखते, देखते देखते उस घड़ी में आ जाओगे, जब तुम सिर्फ बैठे हो, कुछ भी नहीं हो रहा है। न शरीर में कोई गति है, न मन में कोई गति है। जिस दिन शरीर और मन दोनों की गति शांत हो जाए, उस अवस्था का नाम आसनस्थ है।