हमारी पूरी की पूरी व्यवस्था व्यक्तियों को ध्यान में रखकर नहीं है बल्कि नियमों को ध्यान में रखकर है, हालांकि इससे कोई फायदा नहीं होता, भयंकर नुकसान होता है “ओशो”
ओशो- इजरायल में एक चिकित्सक ने एक बहुत अनूठा प्रयोग किया है। प्रयोग यह है, हैरान करने वाला प्रयोग है। उसे यह खयाल पकड़ा बच्चों का इलाज करते-करते कि बच्चों की अधिकतम बीमारियां मां-बाप की भोजन खिलाने की आग्रहपूर्ण वृत्ति से पैदा होती हैं। बच्चों का चिकित्सक है, तो उसने कुछ बच्चों पर प्रयोग करना शुरू किया। और सिर्फ भोजन रख दिया टेबल पर सब तरह का और बच्चों को छोड़ दिया। उन्हें जो खाना है, वे खा लें। नहीं खाना है, न खाएं। जितना खाना है, खा लें। नहीं खाना है, बिलकुल न खाएं। फेंकना है, फेंक दें। खेलना है, खेल लें। जो करना है! और विदा हो जाएं।
वह इस प्रयोग से एक अजीब निष्कर्ष पर पहुंचा। वह निष्कर्ष यह था कि बच्चे को अगर कोई खास बीमारी है, तो उस बीमारी में जो भोजन नहीं किया जा सकता, वह बच्चा छोड़ देगा टेबल पर, चाहे कितना ही स्वादिष्ट उसे बनाया गया हो। उस बीमारी में उस बच्चे को जो भोजन नहीं करना चाहिए, वह नहीं ही करेगा। और एक बच्चे पर नहीं, ऐसा सैकड़ों बच्चों पर प्रयोग करके उसने नतीजे लिए हैं। और उस बच्चे को उस समय जिस भोजन की जरूरत है, वह उसको चुन लेगा, उस टेबल पर। इसको वह कहता है, यह इंस्टिंक्टिव है; यह बच्चे की प्रकृति का ही हिस्सा है।
यह प्रत्येक पशु की प्रकृति का हिस्सा है। सिर्फ आदमी ने अपनी प्रकृति को विकृत किया हुआ है। संस्कृति के नाम पर विकृति ही हाथ लगती है। प्रकृति भी खो जाती मालूम पड़ती है। कोई जानवर गलत भोजन करने को राजी नहीं होता, जब तक कि आदमी उसको मजबूर न कर दे। जो उसका भोजन है, वह वही भोजन करता है।
और बड़े मजे की बात है कि कोई भी जानवर अगर जरा ही बीमार हो जाए, तो भोजन बंद कर देता है। बल्कि अधिक जानवर जैसे ही बीमार हो जाएं, भोजन ही बंद नहीं करते, बल्कि सब जानवरों की अपनी व्यवस्था है, वॉमिट करने की। वह जो पेट में भोजन है, उसे भी बाहर फेंक देते हैं। अगर आपके कुत्ते को जरा पेट में तकलीफ मालूम हुई, वह जाकर घास चबा लेगा और उल्टी करके सारे पेट को खाली कर लेगा। और तब तक भोजन न लेगा, जब तक पेट वापस सुव्यवस्थित न हो जाए।
सिर्फ आदमी एक ऐसा जानवर है, जो प्रकृति की कोई आवाज नहीं सुनता। लेकिन हम बचपन से बिगाड़ना शुरू करते हैं। इसलिए इस चिकित्सक का कहना है कि सब बच्चे इंस्टिंक्टिवली जो ठीक है, वही करते हैं। लेकिन बड़े उन्हें बिगाड़ने में इस बुरी तरह से लगे रहते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं है! जब उन्हें भूख नहीं है, तब उनको मां दूध पिलाए जा रही है! जब उनको भूख लगी है, तब मां शृंगार में लगी है; उनको दूध नहीं पिला सकती! सब अस्तव्यस्त हो जाता है।
इसलिए भी हमारा भोजन, हमारी निद्रा, हमारा जागरण, हमारे जीवन की सारी चर्या अतियों में डोल जाती है, समन्वय को खो देती है।
दूसरी बात, प्रत्येक व्यक्ति की जरूरत अलग है। उम्र की ही नहीं, एक ही उम्र के दस बच्चों की जरूरत भी अलग है। एक ही उम्र के दस वृद्धों की भी जरूरत अलग है। एक ही उम्र के दस युवाओं की भी जरूरत अलग है। जो भी नियम बनाए जाते हैं, वे एवरेज पर बनते हैं–जो भी नियम बनाए जाते हैं।
जैसे कि कहा जाता है कि हर आदमी को कम से कम सात घंटे की नींद जरूरी है। लेकिन किस आदमी को? यह किसी आदमी के लिए नहीं कहा गया है। यह सारी दुनिया के आदमियों की अगर हम संख्या गिन लें और सारे आदमियों के नींद के घंटे गिनकर उसमें भाग दे दें, तो सात आता है; यह एवरेज है। एवरेज से ज्यादा असत्य कोई चीज नहीं होती।
जैसे अहमदाबाद में एवरेज हाइट क्या है आदमियों की? ऊंचाई क्या है औसत? तो सब आदमियों की ऊंचाई नाप लें। उसमें छोटे बच्चे भी होंगे, जवान भी होंगे, बूढ़े भी होंगे, स्त्रियां भी होंगी, पुरुष भी होंगे। सबकी ऊंचाई नापकर, फिर सबकी संख्या का भाग दे दें। तो जो ऊंचाई आएगी, उस ऊंचाई का शायद ही एकाध आदमी अहमदाबाद में खोजने से मिले–उस ऊंचाई का! वह औसत ऊंचाई है। उस ऊंचाई का आदमी खोजने आप मत जाना। वह नहीं मिलेगा।
सब नियम औसत से निर्मित होते हैं। औसत कामचलाऊ है, सत्य नहीं है। किसी को पांच घंटे सोना जरूरी है। किसी को छः घंटे, किसी को सात घंटे। कोई दूसरा आदमी तय नहीं कर सकता कि कितना जरूरी है। आपको ही अपना तय करना पड़ता है। प्रयोग से ही तय करना पड़ता है। और कठिन नहीं है।
अगर आप ईमानदारी से प्रयोग करें, तो आप तय कर लेंगे, आपको कितनी नींद जरूरी है। जितनी नींद के बाद आपको पुनः नींद का खयाल न आता हो, और जितनी नींद के बाद आलस्य न पकड़ता हो, ताजगी आ जाती हो, वह बिंदु आपकी नींद का बिंदु है।
समय भी तय नहीं किया जा सकता कि छः बजे शाम सो जाएं, कि आठ बजे, कि बारह बजे रात; कि सुबह छः बजे उठें, कि चार बजे, कि सात बजे! वह भी तय नहीं किया जा सकता। वह भी प्रत्येक व्यक्ति के शरीर की आंतरिक जरूरत भिन्न है। और उस भिन्न जरूरत के अनुसार प्रत्येक को अपना तय करना चाहिए।
लेकिन हमारी व्यवस्था गड़बड़ है। हमारी व्यवस्था ऐसी है कि सबको एक वक्त पर भोजन करना है। सबको एक वक्त पर दफ्तर जाना है। सबको एक समय स्कूल पहुंचना है। सबको एक समय घर लौटना है। हमारी पूरी की पूरी व्यवस्था व्यक्तियों को ध्यान में रखकर नहीं है। हमारी पूरी व्यवस्था नियमों को ध्यान में रखकर है। हालांकि इससे कोई फायदा नहीं होता, भयंकर नुकसान होता है। और अगर हम फायदे और नुकसान का हिसाब लगाएं, तो नुकसान भारी होता है।