भोग यानी शूद्र, तृष्णा यानी वैश्य, संकल्प यानी क्षत्रिय और समर्पण यानी ब्राह्मण .”ओशो”

 भोग यानी शूद्र, तृष्णा यानी वैश्य, संकल्प यानी क्षत्रिय और समर्पण यानी ब्राह्मण .”ओशो”

प्रश्न :- कल आपने शूद्र और ब्राह्मण की परिभाषा की।
कृपया समझाएं कि मन शूद्र है अथवा ब्राह्मण।

ओशो :- देह शूद्र है। मन वैश्य है। आत्मा क्षत्रिय है। परमात्मा ब्राह्मण। इसलिए ब्रह्म परमात्मा का नाम है। ब्रह्म से ही ब्राह्मण बना है। देह शूद्र है। क्यों? क्योंकि देह में कुछ और है ही नहीं। देह की दौड़ कितनी है? खा लो; पी लो; भोग कर लो; सो जाओ। जीओ और मर जाओ। देह की दौड़ कितनी है। शूद्र की सीमा है यही। जो देह में जीता है, वह शूद्र है। शूद्र का अर्थ हुआ : देह के साथ तादात्म्य। मैं देह हूं, ऐसी भावदशा : शूद्र।

मन वैश्य है। मन खाने-पीने से ही राजी नहीं होता। कुछ और चाहिए। मन यानी और चाहिए। शूद्र में एक तरह की सरलता होती है।

देह में बड़ी सरलता है। देह कुछ ज्यादा मांगें नहीं करती। दो रोटी मिल जाएं। सोने के लिए छप्पर मिल जाए। बिस्तर मिल जाए। जल मिल जाए। कोई प्रेम करने को मिल जाए। प्रेम देने-लेने को मिल जाए। बस, शरीर की मांगें सीधी-साफ हैं; थोड़ी हैं, सीमित हैं। देह की मांगें सीमित हैं। देह कुछ ऐसी बातें नहीं मांगती, जो असंभव है। देह को असंभव में कुछ रस नहीं है। देह बिलकुल प्राकृतिक है ।

इसलिए मैं कहता हूं कि सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं, क्योंकि सभी देह की तरह पैदा होते हैं। जब और-और की वासना उठती है, तो वैश्य। वैश्य का मतलब है : और धन चाहिए।

फोर्ड अपने बुढा़पे तक–हेनरी फोर्ड–और नए धंधे खोलता चला गया। किसी ने उसकी अत्यंत वृद्धावस्था में, मरने के कुछ दिन पहले ही पूछा उससे कि आप अभी भी धंधे खोलते चले जा रहे हैं! आप के पास इतना है; इतने और नए धंधे खोलने का क्या कारण है ? वह नए उद्योग खोलने की योजनाएं बना रहा था। बिस्तर पर पड़ा हुआ भी! मरता हुआ भी! हेनरी फोर्ड ने क्या कहा, मालूम? हेनरी फोर्ड ने कहा : मैं नहीं जानता कि कैसे रुकूं। मैं रुकना नहीं जानता। मैं जब तक मर ही न जाऊं, मैं रुक नहीं सकता।

यह वैश्य की दशा है। वह कहता है, और। इतना है, तो और। ऐसा मकान है, तो और बड़ा। इतना धन है, तो और थोड़ा ज्यादा धन।

देह शूद्र है, और सरल है। शूद्र सदा ही सरल होते हैं। मन बहुत चालबाज, चालाक, होशियार, हिसाब बिठाने वाला है। मन की सब दौडे़ं हैं। मन किसी चीज से राजी नहीं है। मन व्यवसायी है। वह फैलाए चला जाता है। वह जानता ही नहीं, कहां रुकना। वह अपनी दुकान बड़ी किए चला जाता है! बड़ी करते-करते ही मर जाता है।

आत्मा क्षत्रिय है। क्यों? क्योंकि क्षत्रिय को न तो इस बात की बहुत चिंता है कि शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं; जरूरत पड़े तो वह शरीर की सब जरूरतें छोड़ने को राजी है। और क्षत्रिय को इस बात की भी चिंता नहीं है कि और-और। अगर क्षत्रिय को इस बात की चिंता हो, तो जानना कि वह वैश्य है; क्षत्रिय नहीं है। क्षत्रिय का मतलब ही यह होता है : संकल्प का आविर्भाव। प्रबल संकल्प का आविर्भाव। महा संकल्प का आविर्भाव। और महा संकल्प या प्रबल संकल्प के लिए एक ही चुनौती है, वह है कि मैं कौन हूं, इसे जान लूं।

शूद्र शरीर को जानना चाहता है। उतने में ही जी लेता है। वैश्य मन के साथ दौड़ता है। मन को पहचानना चाहता है। क्षत्रिय, मैं कौन हूं, इसे जानना चाहता है। जिस दिन तुम्हारे भीतर यह सवाल उठ आए कि मैं कौन हूं, तुम क्षत्रिय होने लगे। अब तुम्हारी धन इत्यादि दौडो़ं में कोई उत्सुकता नहीं रही। एक नयी यात्रा शुरू हुई–अंतर्यात्रा शुरू हुई।

तुम यह जानते हो कि इस देश में जो बड़े से बड़े ज्ञानी हुए -सब क्षत्रिय थे। बुद्ध, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, राम, कृष्ण–सब क्षत्रिय थे! क्यों? होना चाहिए सब ब्राह्मण, मगर थे सब क्षत्रिय। क्योंकि ब्राह्मण होने के पहले क्षत्रिय होना जरूरी है। जिसने जन्म के साथ अपने को ब्राह्मण समझ लिया, वह चूक गया। उसे पता ही नहीं चलेगा कि बात क्या है! और जो जन्म से ही अपने को ब्राह्मण समझ लिया और सोच लिया कि पहुंच गया, क्योंकि जन्म उसका ब्राह्मण घर में हुआ है, उसे संकल्प की यात्रा करने का अवसर ही नहीं मिला, चुनौती नहीं मिली।

इस देश के महाज्ञानी क्षत्रिय थे। हिंदुओं के अवतार, जैनों के तीर्थंकर, बौद्धों के बुद्ध–सब क्षत्रिय थे। इसके पीछे कुछ कारण है। सिर्फ एक परशुराम को छोड़कर कोई ब्राह्मण अवतार नहीं हैं। और परशुराम बिलकुल ब्राह्मण नहीं हैं। उनसे ज्यादा क्षत्रिय आदमी कहां खोजोगे! उन्होंने क्षत्रियों से खाली कर दिया पृथ्वी को कई दफे काट-काटकर। वे काम ही जिंदगीभर काटने का करते रहे। उनका नाम ही परशुराम पड़ गया, क्योंकि वे फरसा लिए घूमते रहे। हत्या करने के लिए परशु लेकर घूमते रहे। वे क्षत्रिय ही थे। उनको भी ब्राह्मण कहना बिलकुल ठीक नहीं है, जरा भी ठीक नहीं है। उनसे बड़ा क्षत्रिय खोजना मुश्किल है! जिसने सारे क्षत्रियों को पृथ्वी से कई दफे मार डाला और हटा दिया, अब उससे बड़ा क्षत्रिय,..और कौन होगा ?

संकल्प यानी क्षत्रिय…।

ऐसा समझो कि भोग यानी शूद्र, तृष्णा यानी वैश्य और संकल्प यानी क्षत्रिय…।
और जब संकल्प पूरा हो जाए, तभी समर्पण की संभावना है। तब समर्पण यानी ब्राह्मण…।

जब तुम अपना सब कर लो, तभी तुम झुकोगे। उसी झुकने में असलियत होगी। जब तक तुम्हें लगता है : मेरे किए हो जाएगा, तब तक तुम झुक नहीं सकते। तुम्हारा झुकना धोखे का होगा; झूठा होगा; मिथ्या होगा।

अपना सारा दौड़ना दौड़ लिए, अपना करना सब कर लिए और पाया कि नहीं, अंतिम चीज हाथ नहीं आती, नहीं आती, नहीं आती, चूकती चली जाती है। तब एक असहाय अवस्था में आदमी गिर पड़ता है। जब तुम घुटने टेककर प्रार्थना करते हो, तब असली प्रार्थना नहीं है। जब एक दिन ऐसा आता है कि तुम अचानक पाते हो कि घुटने टिके जा रहे हैं पृथ्वी पर। अपने टिका रहे हो–ऐसा नहीं; झुक रहे हो–ऐसा नहीं; झुके जा रहे हो;। अब कोई और उपाय नहीं रहा। जिस दिन झुकना सहज फलित होता है, उस दिन समर्पण।

समर्पण यानी ब्राह्मण । समर्पण यानी ब्रह्म ।
जो मिटा उसने ब्रह्म को जाना ।

ये चारों पर्तें तुम्हारे भीतर हैं। यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम किस पर ध्यान देते हो। ऐसा ही समझो कि जैसे तुम्हारे रेडियो में चार स्टेशन हैं । तुम कहां अपने रेडियो की कुंजी को लगा देते हो; किस स्टेशन पर रेडियो के कांटे को ठहरा देते हो, यह तुम पर निर्भर है।

ये चारों तुम्हारे भीतर हैं। देह तुम्हारे भीतर है। मन तुम्हारे भीतर है। आत्मा तुम्हारे भीतर। परमात्मा तुम्हारे भीतर।

अगर तुमने अपने ध्यान को देह पर लगा दिया, तो तुम शूद्र हो गए। स्वभावत:, बच्चे सभी शूद्र होते हैं। क्योंकि बच्चों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे देह से ज्यादा गहरे में जा सकेंगे। मगर बूढ़े अगर शूद्र हों, तो अपमानजनक है। बच्चों के लिए स्वाभाविक है। अभी जिंदगी जानी नहीं, तो जो पहली पर्त है, उसी को पहचानते हैं। लेकिन बूढ़ा अगर शूद्र की तरह मर जाए, तो निंदा-योग्य है। सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं, लेकिन किसी को शूद्र की तरह मरने की आवश्यकता नहीं है।

अगर तुमने अपने रेडियो को वैश्य के स्टेशन पर लगा दिया, तुमने अपने ध्यान को वासना-तृष्णा में लगा दिया, लोभ में लगा दिया, तो तुम वैश्य हो जाओगे। तुमने अगर अपने ध्यान को संकल्प पर लगा दिया, तो क्षत्रिय हो जाओगे। तुमने अपने ध्यान को अगर समर्पण में डुबा दिया, तो तुम ब्राह्मण हो जाओगे।

ध्यान कुंजी है। कुछ भी बनो, ध्यान कुंजी है। शूद्र के पास भी एक तरह का ध्यान है। उसने सारा ध्यान शरीर पर लगा दिया। अब जो स्त्री दर्पण के सामने घंटों खड़ी रहती है–बाल संवारती है; धोती संवारती है; पावडर लगाती है–यह शूद्र है। ये जो दो-तीन घंटे दर्पण के सामने गए, ये शूद्रता में गए। इसने सारा ध्यान शरीर पर लगा दिया है। यह राह पर चलती भी है, तो शरीर पर ही इसका ध्यान है। यह दूसरों को भी देखती है, तो शरीर पर ही इसका ध्यान होगा। जब यह अपने शरीर को ही देखती है, तो दूसरे के शरीर को ही देखेगी। और कुछ नहीं देख पाएगी। यह अगर अपनी साड़ी को घंटों पहनने में रस लेती है, तो बाहर निकलेगी, तो इसको हर स्त्री की साड़ी दिखाई पडे़गी और कुछ दिखायी नहीं पडे़गा।

जो व्यक्ति बैठा-बैठा सोचता है कि एक बड़ा मकान होता; एक बड़ी कार होती; बैंक में इतना धन होता–क्या करूं? कैसे करूं? वह अपने ध्यान को वैश्य पर लगा रहा है। धीरे-धीरे ध्यान वहीं ठहर जाएगा। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर तुम एक ही रेडियो में एक ही स्टेशन सदा सुनते हो, तो धीरे-धीरे तुम्हारे रेडियो का कांटा उसी स्टेशन पर ठहर जाएगा; जड़ हो जाएगा। अगर तुम दूसरे स्टेशन को कभी सुने ही नहीं हो और अचानक सुनना भी चाहो, तो शायद पकड़ न सकोगे। क्योंकि हम जिस चीज का उपयोग करते हैं, वह जीवित रहती है। और जिसका उपयोग नहीं करते, वह मर जाती है।

इसलिए कभी-कभी जब सुविधा बने शूद्र से छूटने की, तो छूट जाना। वैश्य से छूटने की, तो छूट जाना। जब सुविधा मिले, तो कम से कम–ब्राह्मण दूर–कम से कम थोड़ी देर को क्षत्रिय होना; संकल्प को जगाना। और कभी-कभी मौके जब आ जाएं, चित्त प्रसन्न हो, प्रमुदित हो, प्रफुल्लित हो, तो कभी-कभी क्षणभर को ब्राह्मण हो जाना। सब समर्पित कर देना। लेट जाना पृथ्वी पर चारों हाथ-पैर फैलाकर, जैसे मिट्टी में मिल गए, एक हो गए। झुक जाना सूरज के सामने या वृक्षों के सामने। झुकना मूल्यवान है; कहां झुकते हो, इससे कुछ मतलब नहीं है। उसी झुकने में थोड़ी देर के लिए ब्रह्म का आविर्भाव होगा।

ऐसे धीरे-धीरे, धीरे-धीरे अनुभूति बढ़ती चली जाए, तो हर व्यक्ति अंततः मरते-मरते ब्राह्मण हो जाता है।

जन्म तो शूद्र की तरह हुआ है, ध्यान रखना, मरते समय ब्राह्मण कम से कम हो जाना। मगर एकदम मत सोचना कि हो सकोगे। कई लोग ऐसा सोचते हैं कि बस, आखिरी घड़ी में हो जाएंगे जिसने जिंदगीभर अभ्यास नहीं किया, वह मरते वक्त आखिरी घड़ी में रेडियो टटोलेगा; स्टेशन नहीं लगेगा फिर! पता ही नहीं होगा कि कहां है! और मौत इतनी अचानक आती है कि सुविधा नहीं देती। पहले से खबर नहीं भेजती कि कल आने वाली हूं। अचानक आ जाती है। आयी कि आयी! कि तुम गए! एक क्षण नहीं लगता। उस घड़ी में तुम सोचो कि राम को याद कर लेंगे, तो तुम गलती में हो। तुमने अगर जिंदगीभर कुछ और याद किया है, तो उसकी ही याद आएगी।

इसलिए तैयारी करते रहो; साधते रहो। जब सुविधा मिल जाए, ब्राह्मण होने का मजा लो। उससे बड़ा कोई मजा नहीं है। वही आनंद की चरम सीमा है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

एस धम्मो सनंतनो–12