ओशो- सुख-दुख के लिए जो क्रियाएं करता है व्यक्ति, ऋषि ने उसे ही कर्ता कहा है–दि डुअर; जो सुख-दुख के लिए क्रियाएं करता है–जो मांगता है कि सुख मुझे मिले और दुख मुझे न मिले, यह कर्ता है। लेकिन जो कहता है कि जो मिले, ठीक; न मिले, ठीक; दोनों में भेद ही नहीं करता, यह अकर्ता हो जाता है; यह नॉन-डुअर हो जाता है। और जब व्यक्ति अकर्ता होता है तो परमात्मा कर्ता हो जाता है। इसी से भाग्य की कीमती धारणा पैदा हुई।
भाग्य का मतलब ज्योतिषी से नहीं है; भाग्य का खयाल बहुत आध्यात्मिक है। उसका हाथ की रेखाओं से कुछ लेना-देना नहीं; उसका भविष्य से कोई संबंध नहीं; उससे रास्ते के किनारे पर बैठे हुए ज्योतिषी से कोई संदर्भ ही नहीं है उसका। भाग्य की धारणा इससे पैदा हुई कि जब मैं कर्ता नहीं हूं और चीजें तो हो ही रही हैं, चीजें तो घटित हो ही रही हैं और मैं कर्ता नहीं हूं क्योंकि कर्ता तभी तक मैं होता हूं जब तक मैं मांगता हूं कि सुख मिले और दुख न मिले; तब तक संघर्ष करता हूं तो कर्ता होता हूं। अब कर्ता नहीं रहा; अब जो मिल जाए ठीक है, न मिल जाए ठीक है, मैंने फिकर ही छोड़ दी मिलने-न मिलने की। सुख आए तो मैं फिकर नहीं करता कि सुख है, दुख आए तो मैं फिकर नहीं करता कि दुख है– धीरे- धीरे भेद ही गिर जाता है और पहचानना ही मुश्किल हो जाता है कि क्या सुख है और क्या दुख है; दोनों के बीच आदमी निर्लिप्त हो जाता है।
ऐसी जो निर्लिप्ता है, इसमें कर्ता तो खो जाएगा, क्योंकि करने को कुछ बचा नहीं। करना था ही क्या? एक ही था : सुख कैसे पाएं और दुख से कैसे बचें.. वही करना था। अब कर्म का कोई उपाय न रहा.. फिर भी चीजें तो होती ही चली जाती हैं। जब व्यक्ति कर्ता नहीं रह जाता तो परमात्मा कर्ता हो जाता है। और जब परमात्मा कर्ता हो जाता है, इस भाव-दशा का नाम ही भाग्य है, विधि है।
ऐसे व्यक्ति की गर्दन काट दो, तो वह कहता है, कटनी थी। वह इसमें उसको भी दोषी नहीं ठहराता है जिसने काटी, क्योंकि अब वह मानता है, कर्ता कोई है नहीं। कटनी थी; कर्ता विलीन हो गया। ऐसे व्यक्ति को जहर पिला दो, तो वह कहता है, पीना था, होना था। और जो व्यक्ति जहर पिलाते वक्त भी जानता हो कि होना था, क्या उसके मन में क्षण भर को भी क्रोध आ सकता है उसके प्रति जिसने जहर पिला दिया? क्योंकि अब वह मानता ही नहीं कि कोई कर्ता है; इसलिए अब दोषारोपण समाप्त हुआ; इसलिए अब कोई जिम्मेवार है यह बात ही खत्म हुई–अब जो भी हो रहा है, वह परम नियति है; उसमें व्यक्ति का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा व्यक्ति अगर परम शांति को, परम संतोष को उपलब्ध हो जाए तो आश्चर्य क्या है?
जो सुख-दुख के बीच चुनाव करता है, वह कभी संतोष को उपलब्ध नहीं हो सकता; जो सुख-दुख में भेद करता है वह कभी संतोष नहीं पा सकता। जिसने सुख-दुख का भेद ही छोड़ दिया, वह संतुष्ट है। इसलिए लोग जो समझाते रहते हैं–बड़ी कीमती बातें भी कभी बहुत नासमझी के आधार बन जाती हैं।
लोग कहते हैं : संतोष में ही सुख है। पागल हैं बिलकुल, उन्हें संतोष का पता ही नहीं; अभी भी वे सुख को ही संतोष के साथ एक कर रहे हैं! और वे जिसको समझा रहे हैं, इसलिए समझा रहे हैं कि अगर सुख चाहते हो तो संतोष रखो। और जो सुख चाहता है वह संतुष्ट हो नहीं सकता, क्योंकि सुख असंतोष का सूत्र है। जो सुख चाहता है वह दुख से बचेगा ही; नहीं तो सुख चाह नहीं सकता। तो संतुष्ट कैसे होगा? सुख संतोष नहीं है। संतोष सुख नहीं है; संतोष सुख-दुख के पार है। और संतुष्ट वही है, जिसने सुख-दुख का भेद ही त्यागा। संतोष दोनों का अतिक्रमण करता है। इसलिए आप अगर कभी सुख मान कर संतोष कर रहे हों तो भ्रांति में मत पड़ना, आपका संतोष निपट धोखा है।
नियति, भाग्य, विधि परम आध्यात्मिक शब्द हैं। व्यक्ति अहंकार से मुक्त हुआ, यह उनका प्रयोजन है। अस्मिता नहीं है अब, शिकायत नहीं है अब, जो हो रहा है उसकी परम स्वीकृति है, टोटल एक्सेप्टेंस है। उससे अन्यथा होने का कोई कारण ही नहीं है। उससे अन्यथा हो ही नहीं सकता था। उससे अन्यथा की कोई चाह भी नहीं है। उससे अन्यथा होना चाहिए था इसका कोई स्वप्न भी नहीं है।
ऐसी जो तथाता है, ऐसा जो भाव है स्वीकार का, यह अगर आपके भीतर सारी लहरों को शांत कर जाए तो आश्चर्य है? सब लहरें खो जाएं तो आश्चर्य है? और इस लहर के खोने में ही आप भीतर… और भीतर… और भीतर प्रवेश करते चले जाते हैं।…